मृदा स्वस्थ कार्ड योजना को कृषि मंत्रालय ने खूब प्रचारित किया. मिटटी का नमूना ले कर यह देखा जाता है की यह मिटटी कैसी है और इसमें किस मिनरल की कमी है. उस मिनरल की कमी को दूर कर के ऐसे पोषक तत्व मिलाये जाते हैं जिस से वह मिटी उपजाऊ बन जाती है.
लेकिन यह भी कहावत है की ढाई कोस पर पानी का स्वाद बदल जाता है और ढाई कोस पर बोली भी बदल जाती है.
देखने में यह भी आया है की कहीं कहीं तो मिटटी भुरभुरी है कहीं चिकनी और कहीं काली और कहीं लाल, तो कहने का मतलब यह हुआ की मिटटी की किसम के अनुसार क्या फसलों को उगाया जाता है.
हमारी फिल्म जगत का एक गाना भी है की ...इक दिन मिट जायेगा मिटटी के मोल ...और जग में रह जायेगा...``बात सही भी है. किसान भाई इसे खूब जानते हैं की जैसी मिटटी वैसी फसल उगाने की जुगत.
हमारी ज़िंदगी में मिट्टी की क्या उपयोगिता है ये समझ आ जाता है। कैल्शियम, सोडियम, एल्युमिनियम, मैग्नीशियम, आयरन, क्ले और मिनरल ऑक्साइड के अवयवों से मिलकर बनी मिट्टी वातावरण को संशोधित भी करती है। घर बनाने से लेकर फसल उगाने तक हमारी ज़िंदगी के लगभग हर काम में मिट्टी कहीं न कहीं ज़रूर होती है। किसी भी क्षेत्र में कौन सी फसल अच्छी तरह से हो सकती है ये बात बहुत हद तक उस क्षेत्र की मिट्टी पर निर्भर करती है।
इकोसिस्टम में मिट्टी पौधे की वृद्धि के लिए एक माध्यम के रूप में काम करती है। यहां हम आपको बताएंगे कि देश के कौन से क्षेत्र में कौन सी मिट्टी होती है और उसमें कौन सी फसलें उगाई जा सकती हैं।
जलोढ़ मिट्टी भारत में सबसे बड़े क्षेत्र में पाई जाने वाली और सबसे महत्वपूर्ण मिट्टी समूह है। वेबसाइट एग्रीफार्मिंग के मुताबिक, देश के कुल भूमि क्षेत्र का करीब 15 लाख वर्ग किमी या 35 प्रतिशत हिस्से में यही मिट्टी है। देश की लगभग आधी कृषि जलोढ़ मिट्टी पर होती है। जलोढ़ मिट्टी वह मिट्टी होती है जिसे नदियां बहा कर लाती हैं।
इस मिट्टी में नाइट्रोजन और पोटाश की मात्रा कम होती है लेकिन फॉस्फोरस और ह्यूमस की अधिकता होती है। जलोढ़ मिट्टी उत्तर भारत के पश्चिम में पंजाब से लेकर सम्पूर्ण उत्तरी विशाल मैदान से चलते हुए गंगा नदी के डेल्टा क्षेत्र तक फैली है। इस मिट्टी की यह खासियत है कि इसमें उवर्रक क्षमता बहुत अच्छी होती है। पुरानी जलोढ़ मिट्टी को बांगर और नई को खादर कहा जाता है।
तंबाकू, कपास, चावल, गेहूं, बाजरा, ज्वार, मटर, लोबिया, काबुली चना, काला चना, हरा चना, सोयाबीन, मूंगफली, सरसों, तिल, जूट, मक्का, तिलहन फसलें, सब्ज़ियों और फलों की खेती इस मिट्टी में होती है।
काली मिट्टी बेसाल्ट चट्टानों (ज्वालामुखीय चट्टानें) के टूटने और इसके लावा के बहने से बनती है। इस मिट्टी को रेगुर मिट्टी और कपास की मिट्टी भी कहा जाता है। इसमें लाइम, आयरन, मैग्नेशियम और पोटाश होते हैं लेकिन फॉस्फोरस, नाइट्रोजन और कार्बनिक पदार्थ इसमें कम होते हैं। इस मिट्टी का काला रंग टिटेनीफेरस मैग्नेटाइट और जीवांश (ह्यूमस) के कारण होता है। यह मिट्टी डेक्कन लावा के रास्ते में पड़ने वाले क्षेत्रों जैसे महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, गुजरात, आंध प्रदेश और तमिलनाडु के कुछ हिस्सों में होती है। गोदावरी, कृष्णा, नर्मदा और ताप्ती नदियों के किनारों पर यह मिट्टी पाई जाती है।
इस मिट्टी में होने वाली मुख्य फसल कपास है लेकिन इसके अलावा गन्ना, गेहूं, ज्वार, सूरजमुखी, अनाज की फसलें, चावल, खट्टे फल, सब्ज़ियां, तंबाखू, मूंगफली, अलसी, बाजरा व तिलहनी फसलें होती हैं।
ये मिट्टी ये दक्षिणी पठार की पुरानी मेटामार्फिक चट्टानों के टूटने से बनती है। भारत में यह मिट्टी छत्तीसगढ़, ओडिशा, आंध्र प्रदेश और मध्य प्रदेश के पूर्वी भाग, छोटानागपुर के पठारी क्षेत्र, पश्चिम बंगाल के उत्तरी पश्चिम जिलों, मेघालय की गारो खासी और जयंतिया के पहाड़ी क्षेत्रों, नागालैंड, राजस्थान में अरावली के पूर्वी क्षेत्र, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और कर्नाटक के कुछ भागों में पाई जाती है। यह मिट्टी कुछ रेतीली होती है और इसमें अम्ल और पोटाश की मात्रा अधिक होती है जबकि इसमें नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, मैग्नीशियम और ह्यूमस की कमी होती है। लाल मिट्टी का लाल रंग आयरन ऑक्साइड की उपस्थिति के कारण होता है, लेकिन जलयोजित रूप में यह पीली दिखाई देती है।
चावल, गेहूं, गन्ना, मक्का, मूंगफली, रागी, आलू, तिलहनी व दलहनी फसलें, बाजरा, आम, संतरा जैसे खट्टे फल व कुछ सब्ज़ियों की खेती अच्छी सिंचाई व्यवस्था करके उगाई जा सकती हैं।
लैटेराइट मिट्टी पहाड़ियों और ऊंची चट्टानों की चोटी पर बनती है। मानसूनी जलवायु के शुष्क और नम होने का जो परिवर्तन होता है उससे इस मिट्टी को बनने में मदद मिलती है। मिट्टी में अम्ल और आयरन ज़्यादा होता है और ह्यूमस, फॉस्फोरस, नाइट्रोजन, कैल्शियम की कमी होती है। इस मिट्टी को गहरी लाल लैटेराइट, सफेद लैटेराइट और भूमिगत जलवायी लैटेराइट में बांटा जाता है। लैटेराइट मिट्टी तमिलनाडु, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, ओडिशा और असम में पाई जाती है।
लैटेराइट मिट्टी ज़्यादा उपजाऊ नहीं होती है लेकिन कपास, चावल, गेहूं, दलहन, चाय, कॉफी, रबड़, नारियल और काजू की खेती इस मिट्टी में होती है। इस मिट्टी में आयरन की अधिकता होती है इसलिए ईंट बनाने में भी इसका इस्तेमाल किया जाता है।
आरावली के पश्चिमी क्षेत्र में पाई जाने वाली शुष्क मिट्टी में रेत की मात्रा अधिक होती है और क्ले की मात्रा कम होती है। सूखे वाले क्षेत्रों में ह्यूमस और मॉइश्चर की कमी कारण भी ये मिट्टी शुष्क हो जाती है। ये मिट्टी क्षारीय होती है और इसमें नमक की मात्रा अधिक व नाइट्रोजन की मात्रा कम होती है। इस मिट्टी का रंग कुल लाल या भूरा होता है।
इस मिट्टी में गेहूं, मक्का, दलहन, मक्का, जौ, बाजरा आदि उगाय जा सकता है।
यह मिट्टी पहाड़ी क्षेत्रों जैसे जम्मू कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उतराखण्ड, सिक्किम व अरुणाचल प्रदेश में पाई जाती है। इस मिट्टी में ह्यूमस अधिक मात्रा में होता है लेकिन पोषक तत्व जैसे पोटाश, फॉस्फोरस और चूना कम होता है। इस मिट्टी की प्रकृति अम्लीय होती है। इस मिट्टी में उगाई जाने वाली फसलों को अच्छे उर्वरकों की ज़रूरत होती है।
इस मिट्टी में चाय, मसाले, गेहूं, मक्का, जौ, कॉफी, कुछ फल आदि उगाए जा सकते हैं।
चंद्र मोहन,कृषि जागरण
Share your comments