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नववर्ष की बहस और भारत की आत्मा : तारीख़ों में उलझी हमारी सोच

नववर्ष को लेकर चल रही बहस के माध्यम से यह लेख हमारी सामाजिक सोच, सांस्कृतिक बहुलता और बढ़ती असहिष्णुता पर गहरा सवाल उठाता है. कैलेंडर के नाम पर खड़ी की जा रही वैचारिक दीवारों के बीच यह विचार समय, परंपरा और आधुनिकता के संतुलन की बात करता है.

KJ Staff
डॉ. राजाराम त्रिपाठी , सामाजिक चिन्तक/ संप्रति: जनजातीय सरोकारों की मासिक पत्रिका 'ककसाड़' के संपादक
डॉ. राजाराम त्रिपाठी , सामाजिक चिन्तक/ संप्रति: जनजातीय सरोकारों की मासिक पत्रिका 'ककसाड़' के संपादक

“जनवरी बनाम भारतीयता: यह बहस हमें कहां ले जाएगी?”

पचास वर्ष पुराने अपने गांव ककनार (बस्तर) और अपने घर की यादें आज भी वैसी ही जीवित हैं जैसे कल की बात हो. बाबूजी के चेहरे की वह चमक, और दादा जी की झिड़कियों से बेपरवाह वह साहस आज भी याद है! दादा जी ने फिजूलखर्ची कहकर लाख मना किया, लेकिन बाबूजी एक तीन बैंड का रेडियो घर लेकर आ ही गए थे. यह आसपास के गांवों का भी पहला रेडियो था. घर के मुख्य दरवाजे के सामने लगे आम के पेड़ पर वह रेडियो लटका दिया जाता था और सुबह-शाम पूरा गांव उसमें से निकलती आवाज की ओर कान लगाए रहता था. उस समय रेडियो घर की धड़कन था, गांव की जान. दिसंबर की रातों में जब “आई जनवरी आने दो, गया दिसंबर जाने दो” गाना गूंजता, तो बिना किसी बहस, बिना किसी विवाद और बिना किसी सांस्कृतिक द्रोह या राष्ट्रद्रोह के आरोप झेले हम बड़ी खामोशी से दिसंबर को जाने देते थे और उतनी ही सादगी से जनवरी का स्वागत कर आने देते थे.

नए साल का शोर नहीं था. तब तक नए साल पर केक काटने की परिपाटी गांव कस्बों तक नहीं पहुंच पाई थी, शाकाहारी केक, जैन केक की अवधारणा का भी तब तक जन्म नहीं हुआ था. लेकिन यह सभी को पता था कि केक में अंडा पड़ता है, तो मध्यम वर्ग में केक बहुत सोच समझकर खाया परोसा जाता था. नववर्ष के उत्सव के नाम पर ज्यादा से ज्यादा इतना ही होता कि चाय-पकौड़ी खा-खिलाकर दोस्तों को नववर्ष की बधाई दे देते और बस हो गया नया साल. और यह उत्सव भी बस पढ़े लिखे नौकरीपेशा वर्ग के बीच तक ही सीमित था.

लेकिन इधर कुछ दशकों में समय बड़ी तेजी से बदला है. जहां पहले सवाल यह था कि नया साल मनाते कैसे हैं, अब सवाल यह उठने लगा है कि मनाने की हिम्मत कैसे की?

दिसंबर की सांस उखड़ने लगी हैं, बस चंद दिनों बाद अंग्रेजी कैलेंडर का नया वर्ष दस्तक देने वाला है. जगह-जगह आयोजन होंगे. गांव कस्बों तक में सारी रात गाना बजाना खाना पीना चलेगा. दूसरी ओर पहली जनवरी को सुबह किसी को नववर्ष की बधाई दें तो सामने से कटु उत्तर सुनने को मिल सकता है: “यह कौन-सा नया साल है भला ?”, “यह तो पश्चिमी एजेंडा है”, “यह अंग्रेजियत है”, “यह राष्ट्रद्रोह है.” खास बात यह है कि यह विवाद अब बैठक या चबूतरे पर नहीं, बल्कि व्हाट्सएप और फेसबुक नामक नए अखाड़ों में लड़ा जाता है. डिजिटल तलवारें चल रही हैं और तर्क कमजोर पड़ते ही भावनाएं दांव पर लगा दी जाती हैं.

   इस बहस का नया और दिलचस्प पक्ष यह है कि विरोध करने वाले भी वही है जिनके जीवन का हर महत्वपूर्ण दस्तावेज, पूरा जीवन-वृत्त और उनकी जन्म-तिथि तक ग्रेगोरियन कैलेंडर से दर्ज है. अस्पताल में उनका जन्म जिस तिथि पर लिखा गया, स्कूल-कॉलेज की परीक्षा और रिजल्ट, वोटर आईडी, पासपोर्ट, आधार कार्ड, बैंक खाते, अदालत की तारीखें, संसद सत्र, सरकारी छुट्टियां, नौकरी, तनख्वाह, प्रमोशन सब कुछ उसी अंग्रेजी कैलेंडर पर आधारित हैं. लेकिन 1 जनवरी आते ही वही कैलेंडर विदेशी एजेंडा लगने लगता है.

      इस तरह के युद्धों में सोशल मीडिया का एक नया योद्धा वर्ग तैयार हुआ है, “डिजिटल राष्ट्रभक्त वर्ग.”

 न इतिहास की जानकारी, न भूगोल की, न संस्कृति की. बस किसी के शुभकामना संदेश पर लाल पीला होना है,गांव बजाना है. और जब तर्क कम पड़ने लगे तो तुरुप का इक्का सामने रख देते हैं, राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर. अब सोशल मीडिया का युद्ध संवाद सुनिए:  “दिनकर जी ने कहा था, यह नववर्ष हमें स्वीकार नहीं!” और यह वाक्य कई बार एक लंबी सी कविता में लपेट कर इतनी आत्मविश्वास के साथ फैंका जाता है या चेंपा जाता है कि सामने वाला ग्लानी में गले गले डूब जाए, पूर्णतः नतमस्तक हो जाए.

   लेकिन हमारी जानकारी के अनुसार यह कविता राष्ट्रकवि दिनकर जी की है ही नहीं. डिजिटल दुनिया की शोध बताती है कि यह कविता लगभग 2013–14 के आसपास पहली बार सोशल मीडिया पर प्रगट हुई, फिर 2017 के बाद इसे व्हाट्सएप विश्वविद्यालय ने इतना प्रचारित किया कि वह राष्ट्रकवि की कृति मान ली गई. यह साहित्यिक जालसाजी सिर्फ दिनकर जी तक सीमित नहीं है. आज महादेवी वर्मा और हरिवंश राय बच्चन जैसे महान रचनाकारों के नाम से भी सोशल मीडिया पर दर्जनों कविताएं घूम रही हैं. दुखद बात यह है कि इनमें से कई कविताएं अच्छी भी हैं. यदि इन्हें लिखने वाले अपने नाम से प्रचारित करें, तो भले ही वे दिनकर या बच्चन न बन पाएं, पर स्वतंत्र पहचान अवश्य बना सकते हैं. परन्तु पहचान और श्रम से बचने की चाह में लोग साहित्यिक चोरी को ही मार्ग बना रहे हैं. यह प्रवृत्ति एक साहित्यिक कुटेव है ; बौद्धिक बेईमानी का प्रमाण.

अब कैलेंडर विवाद पर आते हैं. कुछ लोग कहते हैं कि अंग्रेजी कैलेंडर विदेशी है. तो प्रश्न उठता है कि क्या आपका जन्म ग्रह-नक्षत्र देखकर अंग्रेजी में दर्ज नहीं किया गया? क्या भारतीय न्याय व्यवस्था किसी वैदिक पंचांग से चल रही है? क्या संसद के शीतकालीन सत्र की तारीखें अंग्रेजी नहीं हैं ? क्या आपका हवाई जहाज भारतीय कैलेंडर देखकर उड़ता है?

  विरोध करने वालों की आवाज जितनी ऊंची है, उनके तर्क उतने खोखले हैं.

और जो आज अंग्रेजी कैलेंडर को विदेशी एजेंडा बता रहे हैं, क्या उन्हें पता है कि ग्रेगोरियन कैलेंडर लागू होते ही यूरोप में दंगे हुए थे? 1582 में पोप ग्रेगोरी XIII ने नया कैलेंडर लागू किया तो पूरा यूरोप विद्रोह में फट पड़ा. इंग्लैंड ने 1752 में इसे अपनाया और वहां नारा लगा , “हमें हमारे 11 दिन वापस दो!”

  रूस में यह 1918 में लागू हुआ और रूढ़िवादी चर्च ने तब इसे धर्म विरोधी बताया था. ग्रीस में कैलेंडर पर दंगे हुए और लोग मारे गए. इतना ही नहीं इथियोपिया आज भी अलग कैलेंडर चलाता है. इस्लामी देशों का कैलेंडर सूर्य नहीं, चंद्रमा पर आधारित है और तिथियां हर वर्ष बदलती रहती हैं. जापान का कैलेंडर अपने सम्राट आधारित युगों के नाम पर चलता है. यानी कैलेंडर का विवाद आज का नहीं, सदियों पुराना है.

   भारत की ताकत उसकी बहुलता है. अलग-अलग समुदाय अपने-अपने नववर्ष मनाते हैं, और इन उत्सवों में अद्भुत सांस्कृतिक सामंजस्य दिखाई देता है. चैत्र प्रतिपदा पर गुड़ी पड़वा, उगाड़ी और नवसंवत्सर एक साथ मनते हैं. बंगाल का पोइला बैशाख, पंजाब की बैसाखी, असम का बिहू, केरल का विशु और कश्मीर का नवरेह,,ये क्षेत्रीय नहीं, अब लगभग राष्ट्रीय उत्सव हैं. इसलिए झगड़ा कहाँ है? समाधान सीधा है. सभी नववर्षों को त्योहार समझकर मनाइए. विविधता मतभेद नहीं, समृद्धि है.

फिर इन सबके बीच यदि कोई जनवरी मनाता है तो वह भारत विरोधी कैसे हो गया? भारत की आत्मा बहुलता है- एकरूपता नहीं.

इस बहस में आदिवासी कैलेंडर भी शामिल हो गए हैं. जनजातीय समाज प्रकृति के संकेत से समय तय करता रहा है. वर्ष तब आता है जब पेड़ों की हरियाली बदलती है, खास पक्षियों की आवाजें आने लगती हैं और पहले वर्षा संकेत मिलते हैं. बस्तर का ‘कोयामूरी बुम’ कैलेंडर इसी प्रकृति-आधारित समयबोध का उदाहरण है. पर यह कैलेंडर किसी को हराने या नीचा दिखाने का औजार नहीं, यह समग्र जीवन-दर्शन है.

कैलेंडर लड़ाई का आधार नहीं होना चाहिए. समय की परख घड़ी में नहीं, चरित्र में होनी चाहिए. आज कॉपी-पेस्ट संस्कृति नववर्ष का नया धर्म बन गई है. युवा अब फॉरवर्डेड इमोजी को ही शुभकामना समझते हैं. सोचने, समझने, लिखने और मौलिकता का श्रम गायब होता जा रहा है. कैलेंडर बदलने से समाज नहीं बदलता—चेतना बदलने से बदलता है.

देश की वास्तविक समस्या यह नहीं कि हम 1 जनवरी मनाते हैं या चैत्र प्रतिपदा ! समस्या यह है कि हम दिन-ब-दिन असहिष्णु होते जा रहे हैं. जहां एक शुभकामना संदेश भी कलह का कारण बन जाए, वहां कैलेंडर नहीं, मानसिकता खोखली है. जो समाज शुभकामनाओं पर आपातकाल लगा दे, वह विकास नहीं कर सकता. उन्नति विचारधारा से होती है, नफरत से नहीं.

इसलिए सवाल तारीख का नहीं, दृष्टिकोण का है. नया वर्ष तभी नया है जब हम अपने भीतर नई सोच पैदा करें. बुद्ध ने भीतर देखा तो नया अर्थ मिला, कबीर ने भीतर देखा तो सत्य मिला. इसी तरह बाहरी शोर से थोड़ा हटकर यदि हम अपने अंतर में झांकें, तो पाएंगे कि नववर्ष सिर्फ कैलेंडर में नहीं , विवेक में जन्म लेता है. हमारी शुभकामना यही है कि आने वाला हर वर्ष हमें अधिक मानवीय, अधिक न्यायपूर्ण और अधिक प्रकृति-निकट बनाए.

नववर्ष किसी एक तारीख का नाम नहीं, यह आत्मावलोकन का अवसर है. इसलिए चाहे वह जनवरी में आए या चैत्र में या पहली वर्षा के साथ, यदि मन और समाज और सोच नहीं बदलता, तो तिथि बदलने से क्या होगा?

लेखक : डॉ. राजाराम त्रिपाठी, सामाजिक चिन्तक/ संप्रति: जनजातीय सरोकारों की मासिक पत्रिका 'ककसाड़' के संपादक

English Summary: new year celebration debate India cultural identity Dr. Rajaram Tripathi Published on: 23 December 2025, 01:02 PM IST

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