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केला की आधुनिक उत्पादन खेती विस्तार में!

सेब के बाद केला विश्व का दूसरा महत्वपूर्ण फल है। चावल, गेंहू एवं दुग्ध उत्पादों के बाद यह कुल उत्पादन की दृष्टि से चौथी महत्वपूर्ण खाद्य सामग्री है। भारत का यह एक अति प्राचीन फल है, जिसका सामाजिक एवं आर्थिक पहलू बहुत महत्वपूर्ण है। भारत के उत्तरी पूर्वी क्षेत्र में केला औषधी के रूप में विभिन्न बीमारियों के इलाज हेतु प्रयोग किया जाता है। भारत के कुल फल उत्पादन में केला का हिस्सा 31.72 प्रतिशत है और यह विश्व का सबसे बड़ा केला उत्पादक राष्ट्र है। यहाँ केला की खेती उष्ण एवं उपोष्ण जलवायु में सफलतापूर्वक की जाती है।

सेब के बाद केला विश्व का दूसरा महत्वपूर्ण फल है। चावल, गेंहू एवं दुग्ध उत्पादों के बाद यह कुल उत्पादन की दृष्टि से चौथी महत्वपूर्ण खाद्य सामग्री है। भारत का यह एक अति प्राचीन फल है, जिसका सामाजिक एवं आर्थिक पहलू बहुत महत्वपूर्ण है। भारत के उत्तरी पूर्वी क्षेत्र में केला औषधी के रूप में विभिन्न बीमारियों के इलाज हेतु प्रयोग किया जाता है। भारत के कुल फल उत्पादन में केला का हिस्सा 31.72 प्रतिशत है और यह विश्व का सबसे बड़ा केला उत्पादक राष्ट्र है। यहाँ केला की खेती उष्ण एवं उपोष्ण जलवायु में सफलतापूर्वक की जाती है।
तमिलनाडु क्षेत्रफल एवं कुल उत्पादन दोनों ही दृष्टिकोण से भारत में केला उत्पादन के क्षेत्र में अग्रणी है जबकि प्रति हेक्टेयर उत्पादन की दृष्टि से महाराष्ट्र प्रथम स्थान पर है। भारतवर्ष में सन् 2020 तक के लिए केला उत्पादन का लक्ष्य 25 मिलियन टन रखा गया है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिय यह आवश्यक है कि केला का उत्पादन एवं उत्पादकता दोनों में वृद्धि की जाए उत्पादन एवं प्रति हेक्टेयर उत्पादकता बढ़ाने के लिए आवश्यक है कि परिष्कृत उत्पादन तकनीक का बड़े पैमाने पर उपयोग किया जाए, उत्पादन के हर पहलू जैसे पौध प्रवर्धन रोपाई, सिंचाई, उर्वरको का प्रयोग समन्वित कीट एवं रोग प्रवंधन इत्यादि पर यथोचित ध्यान दिया जाए। उत्पादकों के अपने उत्पाद का उचित मूल्य मिले इसके लिए आवश्यक है कि केला के भंडारण एवं विपणन की ओर भी समुचित ध्यान दिया जाय। चूँकि यह एक शीघ्र ही नष्ट हो जाने वाला फल है और अपने देश में भंडारण की क्षमता बहुत सीमित है परीक्षण द्वारा इसके विभिन्न उत्पादों के निर्माण में गुणात्मक वृद्धि लाने की आवश्यकता है।


केला का उत्पादन एवं क्षेत्रफल:- सन् 1999 में पूरे विश्व में 8.81 करोड़ टन केला का उत्पादन हुआ था जिसमें 2/3 हिस्सा पक्का कर खाने योग्य केले का था तथा 1/3 हिस्सा सब्जी वाले केले का। एशिया में कुल केला उत्पादन का आधा भाग पैदा होता है। भारत विश्व का सबसे बड़ा केला उत्पादक राष्ट्र है। भारत में 4.6400 हेक्टेयर क्षेत्रफल से लगभग 1.5 करोड़ टन केला पैदा होता है इस वक्त अधिक उत्पादन हो रहा है। केला की व्यवसायिक खेती उष्ण एवं उपोष्ण परिस्थितियों में भारत में लगभग 23 प्रदेशों में होती है। इसकी खेती भारत के केवल उन प्रदेशों में नहीं होती है जहाँ अत्यधिक ठंडक पड़ती है। जैसे हिमांचल प्रदेश, पंजाब, जम्मू एवं कश्मीर, बिहार पूर्वी, उत्तर प्रदेश में केला की खेती की असीम सम्भावनाएं है। अभी उत्तर प्रदेश में केलव 1300 हेक्टेयर में इसकी खेती होती है और यहाँ का उत्पादकता 27.54 टन प्रति हेक्टेयर है।


कृषि जलवायु और उन्नत उत्पादन:- केला की खेती के लिये आदर्श तापक्रम 20 से 30 सेल्सियस है इसके उपर नीचे केला की वृद्धि प्रभावित होती है। 10 सेल्सियस से नीचे के तापक्रम पर पौधे की वृद्धि रूक जाती है। यदि केला का घौद जाड़े के मौसम में निकलता है तो वह ठंडक की वजह से प्रभावित होता है और फल की बढ़वार की धीमी गति के कारण देर से तैयार होता है वौनी किस्म बसरई में अत्यधिक सर्दी के कारण घौद कभी-कभी तना के भीतर फंसा रह जाता है और विलम्ब से ताना को फड़ते हुए बाहर निकला है। अतः अत्यधिक जाड़ा एवं गर्मी दोनों ही केला के पौधे के लिए हानिकारक है। खेत में जल जमाव की स्थिति भी इसकी वृद्धि को प्रभावित करती है। जबकि केला पानी को अधिक पसन्द करने वाली फसल है। केला के पौधे की गर्म एवं तेज हवाओं से रक्षा करने के उद्देश्य से वायु रोधक पौधे या वृक्ष खेत के किनारे या मेड़ पर लगाये जाने चाहिए। केला के फलों को 12-13 सेल्सीयस पर ही एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाना चाहिए क्योंकि उक्त तापक्रम पर श्वसन सबसे कम होता है। उच्च तापक्रम पर पौधों के झुलसने की सम्भावना रहती है। लेकिन गर्मियों में 50 प्रतिशत छाया में केला की खेती की जा सकती है। वर्षा के जल पर आधारित खेती में भी 25 मिमी वर्षा सप्ताह पर्याप्त है अन्यथा सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है।


भूमि की संरचना:- किसी भी मृदा को केला की खेती के लिए उपयुक्त बनाने के लिए आवश्यक है कि मृदा की संरचना की सुधार जाए उत्म जल विकास की व्यवस्था की जाय यद्यपि केला 4.5 से लेकर 8.0 तक पी0एच मान वाले मृदा में उगाया जा सकता है। इसकी खेती के लिए मृदा का सर्वोतम पी0एच मानढ़ से लेकर 7.5 के तक होता है। मृदा की संरचना में आशातीत सुधार के लिए यह आवश्यक है कि उसमें कार्बनिक पदार्थों को भरपूर मिलाया जाय भारी मृदा में उत्तम जल विकास की व्यवस्था तथा भूमि में पोषक तत्वों के उपयुक्त स्तर को बनाये रखने के लिए खाद एवं उर्वरक की पर्याप्त मात्रा डालना चाहिए एक ऐसी मृदा जिसमें अम्लीयता ज्यादा न हो कार्बनिक पदार्थ पर्याप्त हो नत्रजन, फास्फोरस एवं पोटास की मात्रा समुचित हो केला की खेती के लिए उपयुक्त होती है।


केला की प्रजातियाँ:- राजेन्द्र कृषि विश्वविद्यालय पूसा के पास केला की 100 से ज्यादा किस्में उद्यान अनु0 केन्द्र हाजीपुर में संग्रहित है भारत में लगभग 500 किस्में उगाई जाती है। लेकिन एक ही किस्में का विभिन्न क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न नाम है। केला का पौधा बिना शाखाओं वाला को मल तना से निर्मित होता है जिसकी उचाई 1.8 मी0 से लेकर 6 मी0 तक होती है इसके ताना को झूठा तना या आ मासी ताना कहते है। क्योंकि यह पत्तियों के नीचले हिस्से के संग्रहण से बनता है। असली तना जमीन के नीचे होता है जिसे प्रकन्द कहते है इसके मध्यवर्ती भाग से पुष्पक्रम निकलता है। क्षेत्र विशेष के अनुसार लगभग 20 किस्में वाणिज्यिक उद्देश्य से उगाई जा रही है।


विभिन्न प्रदेशों में उगाई जाने वाली केला की किस्में:-
असम:- रोवस्टा, मालभोग, अल्पान डवार्फ काबेनिडस, गैरिया, मुठिया कचकेल, बत्तीसा।
-पश्चिम बंगाल:- लैकटन, चम्पा, अर्मतसागर, कन्थाली, जायन्ट, गर्वनर।
-बिहार:- रोवस्टा, चीनी चम्पा, मालभोग, बागनर, मोंस, चिनिया।
-महाराष्ट्र:- सिन्दरनी, अर्धापुरी, राजेली, पेदालसे हनुमान, सफेद वेलची लालवेलची।
-आंधप्रदेश:- चाक्कर केली, मोन्थन, रोबस्टा, अमृतवानी येनागुवंधा।
-कर्नाटक:- पूवान, रेडवनाना, नेद्रन पालीयन कादन मोन्थन, इलावाज्हर्ड, कारीबाले।
-गुजरात:- डवार्क काबोन्डीस, कारपुरा, ग्रैंडनेने हरीछाल, गणदेवी।


टिशुकलचर, उतक संवर्धन विधि:- इस विधि द्वारा तैयार पौधों से केलो की खेती करने से अनेको लाभ है ये पौधे स्वस्थ रोग रहित होते है। पौधे समान रूप से वृद्धि करते हैं अतः सम पौधों में पुष्पन फलन कटाई करीब करीब एक साथ होती है। जिसकी वजह से विपणन में सुविधा होती है। फलों का आकार प्रकार एक समान एवं पुष्ट होता है। प्रकन्दों की तुलना में उत्तक संवर्धन द्वारा तैयार पौधों में फलन लगभग 50-60 दिन पूर्व हो जाता है। इस प्रकार रोपण के बाद 13-15 माह में ही केला की पहली फसल प्राप्त होती है। जबकि प्रकन्दों से तैयार पौधों से पहली फसल 17 माह बाद मिलती है। ऊतक संवर्धन विधि से तैयार पौधों से औसत उपज 30-35 किलोग्राम प्रति पौधा तक मिलती है। पहली फसल लेने के बाद दूसरी फसल खुटी (रैटून) में गहर के 8-10 माह के भीतर पुनः आ जाती है।

इस प्रकार 24-25 माह में केले की दो फसलों ली जा सकती है। जबकि प्रकन्दों से तैयार रोबस्टा किस्म के पौधों से प्रायः ऐसा सम्भव नहीं है। ऐसे पौधो के रोपण से समय तथा धन की बचत होती है। परिणामस्वरूप पूंजी की वसूली शीघ्र होती हे। लेकिन उपरोक्त सभी लाभ तभी मिलेंगे जब मातृ पौधों का चयन बहुत ही सावधानी से किया जाय तथा बाद के देखभाल में पुरा ध्यान दिया जाय। उतक संवर्धन विधि द्वारा पौधों को तैयार करने के विभिन्न चरण है। मातृ पौधों का चयन विषाणु मुक्त मातृ पौधों को चिन्हित करना, पौधों से संक्रमण विहिन उतक तैयार करना प्रयोगशाला में संवर्धन द्वारा उत्तक बहुगुणन तथा नवजात पौधों के वातावरण के अनुरूप सख्त बनाना तथा आने वाली व्यवहारिक समस्याओं का अध्ययन करना।


मृदा प्रबन्ध:- केला का जड़ तंत्र उथला होता है जो खेती करने की वजह से क्षतिग्रस्त हो सकता अतः सतह पर आच्छादित होने वाली फसलो को नहीं लेना चाहिए। केला के शुरूआती चार महिनों के लिए अल्प अवधि की फसलों को अन्तरवर्तीय फसल के रूप में लेने की संस्तुति की जाती है। जैसे- पत्तागोभी, फूलगोभी, आलू, हल्दी, लोविया, मूली। कभी भी कद्दू वर्षीय सब्जियों को अन्तरवर्तीय फसल के रूप में नहीं लेना चाहिए क्योंकि इन फसलों से विष्णु रोगों के फैलने की आशंका रहती है।


खेत की तैयारी:- खेत की दो तीन जुताई करने के बाद 50ग50ग50 सेमी0 आकार गढ़े 1.5ग1.5 मी0 बौनी प्रजाति के लिए व 2ग2 मी0 लम्बी प्रजाति के लिए दूरी गड्ढा खोद लेते है। गढ्ढा की खोदाई का कार्य मई-जून में कर लेना चाहिए खुदाई के उपरान्त उसी अवस्था में गढ्ढों को 15 दिन के लिए छोड़ देना चाहिए। गढ्ढों के रोपण से 15 दिन पूर्व कम्पोस्ट एवं मिट्टी के 1ः1 मिश्रण से भर देना चाहिए। गढ्ढो की मिट्टी 20 किलोग्राम सड़ी गोबर की खाद कम्पोस्ट एक किलो अंडी की या नीम की खल्ली 20 ग्राम फ्यूराडाॅन मिट्टी में मिला देना चाहिए। गढ्ढा भरने के उपरान्त सिचाई करना आवश्यक है जिससे गढ्ढो की मिट्टी बैठ जाय।


ऊतक संवर्धन द्वारा तैयार पौधों का रोपण:- पालीथिन के थैले को तेज चाकू या ब्लेड से काटकर अलग कर देते है तथा पौधों को निकाल लेते है लेकिन पालीथिन थैले में 8-10 इंच उचाई के उतक संवर्धन द्वारा तैयार पौधे रोपण हेतु उपयुक्त होते है। ध्यान यह देना चाहिए कि मिट्टी की पिण्डी न फुटने पाये पहले से भरे गये गढ्ढो के बीचो-बीच मिट्टी की पिण्डी के बराबर छोटा सा गढ्ढा बनाकर पौधों को सीधा रखना चाहिए। जड़ो को बिना हानि पहुँचाये पिण्डी के चारो ओर मिट्टी भरकर अच्छी प्रकार दबा देना चाहिए ताकि सिचाई के समय मिट्टी में गढ्ढों में न पड़े बहुत अधिक गहराई में रोपण कार्य नहीं करना चाहिए। केवल पौधे की पिण्डी तक ही मिट्टी भरना चाहिए।


सघन रोपण की नई विधि:- इस विधि में उत्पादन तो बढता है, लेकिन साथ ही खेती की लगात घटती है। उर्वरक एवं पानी का समुचित एवं सर्वोत्तम उपयोग हो जाता है। रोबस्ट्रा एवं बरसराई प्रजाति के पौधों की संख्या हेक्टेयर बढ़ाकर अधिक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है। प्रकन्दों की संख्या एक स्थान पर एक न रखकर तीन रखकर तथा पौधों से पौधों तथा पंक्ति से पंक्ति की दूरी 2ग3 मी0 रख प्रति हेक्टेयर 5000 पौधा रखा जा सकता है। इसमें नत्रजन फास्फोरस एवं पोटास की 25 प्रतिशत मात्रा परम्परागत रोपण की तुलना में बढ़ाना पड़ता है। इस व्यवस्था के फलस्वरूप उत्पादन में उल्लेखनीय वृद्धि संभव है। सघन रोपण विधि के अन्तर्गत कापेन्डीस समूह के केलो को जोड़ा पंक्ति पद्धति में लगाने संस्तुति की जाती है। इस विधि से सिचाई टपक विधि द्वारा करने से सलाह दी जाती है। इसके कई फायदे है। केला की प्रथम फसल मात्रा उष्ण जलवायु में 10-11 महिनो में ली जा सकती है तथा उपज कम से कम 60 टन तक मिल जाती है। फल की गुणवत्ता काफी अच्छी होती है।


रोपण का समय:- पश्चिमी तथा उत्तरी भारत में केला लगाने का सबसे अच्छा समय दक्षिणी व पश्चिमी मानसून की शुरूआत यानि जून- 9 जुलाई का महीना है। दक्षिण भारत के केरल के मालावार हिस्से में सितम्बर अक्टूबर में तथा कुछ क्षेत्र में दिसम्बर में केला लगाते है। पश्चिम बंगाल, बिहार तथा आसाम में मानसून शुरू होने के बाद जून, जुलाई में केला लगाते है। बिहार में केला अगस्त के प्रथम सप्ताह के बाद नहीं लगाना चाहिए क्योंकि इस प्रकार लगाये गये केले में गहर जाड़ों में निकलती है। जो अत्यधिक ठंडक की वह से देर से बढ़ती है। साथ ही अगस्त मे लगाई गयी फसल की रोपाई से कटाई तक की अवधि अत्यधिक लम्बबी हो जाती है क्योंकि सर्दी के कारण फलो को तैयार होने में अधिक समय लगता है।


सिंचाई:- भारतीय परिस्थिति में केला की खेती प्रभावी सिंचाई तंत्र द्वारा सुसज्जित होना चाहिए मृदा में नमी की कमी के आधार पर कुल नमी का 40 प्रतिशत की नमी होने पर सिंचाई करनी चाहिए आमतौर पर केला में 20 सिचाई की आवश्यकता होती है।
पोषण:- सामान्य वनस्पतिक वृद्धि हेतु 200 से 250 ग्राम पौधा नाइट्रोजन देना चाहिए नाइट्रोजन आपूर्ति सामान्यतः यूरिया के रूप में करते है। वानस्पतिक वृद्धि के मुख्य चार अवस्थाएं है रोपण के 30,75, 120 और 165 दिन वाद एवं प्रजननकारी अवस्था की भी मुख्य तीन अवस्था में होती है। 210, 255 एवं 300 दिन बाद रोपण के लगभग 150 ग्राम नत्रजन को चार बराबर भाग में बांट कर वानस्पतिक वृद्धि के अवस्था में प्रयोग करना चाहिए इसी प्रकार से 50 ग्राम नत्रजन को 3 भाग में बांट कर प्रति पौधा की दर से प्रजननकारी अवस्था में देना चाहिए बेहतर उपज के लिए नत्रजन का 25 प्रतिशत सड़ी हुई कम्पोस्ट के रूप में अवश्य प्रयोग किया जाना चाहिए केला में फास्फोरस के प्रयोग की आवश्यकता कम होती है सुपर फास्फेट के रूप में 100 व 150 ग्राम पौधा की दर से फास्फोरस देना चाहिए फास्फोरस की सम्पूर्ण मात्रा को रोपण के समय ही मिट्टी में दे देना चाहिए।
पोटैशियम की भूमिका केला की खेती में अति महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके विविध प्रभाव है। इस खेत में सुरक्षित नहीं रखा जा सकता है तथा इसकी उपलब्धता तापक्रम द्वारा प्रभावित होती है। गहर में फल लगते समय पोटाश कि लगातार आपूर्ति आवश्यक है क्योंकि गहर में फल लगने के प्रक्रिया में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। केला की वानस्पतिक वृद्धि के दौरान 100 ग्राम पोटैशियम को दो किस्तो में फल बनते समय देना चाहिए पूरी फसल अवधि में 300 ग्राम पोटास देना चाहिए।


मिट्टी चढ़ाना:- वर्षा के बाद सदैव मिट्टी चढ़ना चाहिए क्योंकि पौधों के चारो तरफ की मिट्टी धुल जाती है तथा पौधा में घौद निकलने से नीचे की ओर कुछ झुक जाते है और तेज हवा में उनके उलट जाने की संभावना रहती है।
पत्तियों की कटाई व छटाई:- पौधा जैसे जैसे वृद्धि करता है नीचे की पत्तियां सूखती है। सूखी पत्तियों से फल भी क्षतिग्रस्त होते है। सूखी एवं रोगग्रस्त पत्तियों को तेज चाूके से समय समय पर काटते रहना चाहिए इस क्रिया से रोग का फैलाव एवं उसकी तीक्ष्णता घटती है। हवा एवं प्रकाश नीचे तक पहुंचता रहता है। जिससे कीटो की संख्या में भी कमी हो जाती है अधिकतम उपज के लिए 13 से 15 पत्तिया ही पर्याप्त होती है।


सहारा देना:- केला की खेती को तेज हवाओं से भी खतरा बना रहता है कई बार तो चक्रवात के प्रकोप से पूरी फसल ही बर्बाद हो जाती है। अतः लम्बी प्रजातियों में सहारा देना अति आवश्यक है। केले के फलो का गुच्छा भारी होने के कारण पौधे नीचे तरू झूक जाते है अगर उनको सहारा नहीं दिया जाता है तो वे उखड़ भी जाते है अतः दो बांसो को आपस में बांधकर कैची की तरह बना लेते है तथा फलो के गुच्छे के बीच से लगाकर सहारा देते है। गहर निकलते समय ही सहारा देना लाभकट होता है।
गुच्छों को ढकना एवं नरपुष्प की कटाई:- पौधों में गहर आ जाने पर वे एक तरफ झुक जाते है, यदि उनका झुकाव पूर्व या दक्षिणपूर्व या दक्षिण की तरफ होता है तो फल तेज धुप से खराब हो जाता है। अतः केले के घौद को उपर वाली पत्तियों से ढक देना चाहिए। गहर का अग्रभाग जो नरपुष्प होता है बिना फल पैदा किये बढ़ता रहता है। गहर में फल पूर्ण मात्रा में लग जाने के पश्चात् उसे काट कर अलग कर देना चाहिए जिससे वह भोज्य पदार्थ लेकर फलो की वृद्धि को अवरूध न कर सके तथा इसको बेंचकर अतिरिक्त आप प्राप्त किया जा सकें क्योंकि कही-कही इसका प्रयोग सब्जी बनाने में किया जाता है। नरपुष्प की कटाई वर्षात में करना आवश्यक है। क्योंकि इससे केला के फल का रंग और आकर्षक हो जाता है। उष्ण एवं उपोष्ण जलवायु में फलो को पारदर्शी छिद्रयुक्त पोलिथीन से ढकने से 15 से 20 प्रतिशत उपज वृद्धि होती है तथा फल 7 से 10 दिन पहले परिपक्य हो जाते है।


जब तक व्यवहार में बदलाव नहीं आता है तब तक जिंदगी में सीख हासिल नहीं होती है। बदलाव तभी होता है जब जानकारियां अंदर तक जाती है। अंतर्मन को छूती है। ज्यादातार किसान भाई जिंदगी में इसलिए असफल नहीं होते है क्योकि उनमें काबलियत की कमी है बल्कि इसलिये असफल होते है क्योंकि उनमें इरादे की कमी होती है।


रवीन्द्र नाथ चौबे
प्रगतिशील एवं सम्मानित
कसान सेवा केन्द्र
डाक बंगला के सामने, बाँसडीह
जिला-बलिया (उ.प्र.)
मो0- 09453577732

English Summary: Modern production of banana farming in detail! Published on: 10 November 2017, 02:09 AM IST

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