बारहनाजा को सादा अनाज भी कहते है. हालांकि उत्तराखंड में बारहनाजा को केवल अनाज ही नहीं मानते है, बल्कि इसके अंतर्गत तरह-तरह के रंग- रूप, स्वाद और पौष्टिकता से परिपूर्ण दलहन, तिलहन, शाक के साथ ही भाजी, मसाले और रेशे को मिलाकर कुल 20 से 22 तरह के अनाज आ जाते है. यह केवल अनाज नहीं है, बल्कि पहाड़ की पूरी कृषि संस्कृति है. इसी लिहाज से उत्तराखंड की बारहनाजा फसलें बदलाव का प्रतिबिंब है, यह पौष्टिकता समेत औषधीय गुणों से लबरेज होते है.
कई तरह के अनाज होते शामिल
स्वस्थ जीवन को जीने के लिए मनुष्य को अलग-अलग पोषक तत्वों की जरूरत होती है, जोकि इस पद्धति में मौजूद होते है. उत्तराखंड में करीब 13 प्रतिशत सिंचित और 87 प्रतिशत असिंचित भूमि है. सिंचित में विविधता नहीं है जबकि असिंचित खेती पूरी विविधता से भरी हुई है. यह खेती जैविक होने के साथ ही पूरी तरह से बारिश पर निर्भर है. इसी को ध्यान में रखते हुए पहाड़ में किसान ऐसा फसल चक्र को अपनाते है, जो संपूर्ण जीव-जगत के पालन का विचार भी समेटे हुए हो. इसमें दलहन, तिलहन, अनाज, मसाले, रेशा, हरी सब्जियां समेत विभिन्न तरह के फल और फूल आदि शामिल होते है.
यह है बारहनाजा पद्धति
उत्तराखंड की जलवायु और भौगोलिक परिस्थितियों को देखकर पहाड़ी क्षेत्र के लोगों ने सदियों पहले गेहूं एवं धान की मुख्य फसल के संग ही विविधता भरी बारहनाजा पद्धति को महत्व दिया है. मंडुवा-झंगोरा बारहनाजा परिवार के मुख्य सदस्य है. ज्वार, चौलाई, भट्ट, तिल, राजमा, उड़द, ग्हथ, कुट्टू, लोबिया, तोर इसकी कई सहायक फसलें है. बारहनाजा मिश्रित खेती का श्रेष्ठ उदाहरण होता है. साथ ही यह फसलें पूरी तरह से जैविक होती है. इसमें एक साथ बारह फसलों को उगाकर पौष्टिक भोजन की जरूरत पूरी करने के साथ ही भूमि की उर्वरा शक्ति को मजबूत बनाए रखना है.
पेश करती है मजबूत विकल्प
बारहनाजा पद्धति को आगे बढ़ाने के लिए नवदान्या संस्था ने बारहनाजा उगाओं और जीवन बचाओ मुहिम को छेड़ रखा है. संस्था का मानना है कि यह सदियों से किसानों के द्वारा जांचा और परखा जा रहा है. यह प्राकृतिक संतुलन के साथ ही गरीब के घर में भी संतुलित आहार का उदाहरण होता है. कम जगह में ज्यादा एवं विविधतापूर्ण पैदावार लेने के लिए यह एक सक्षम पद्धति है. बारहनाजा की फसलों में सूखा और कीट व्याधि से लड़ने के लिए भी काफी क्षमता है जोकि आज के बदलते मौसम के हिसाब से काफी मजबूत विकल्प को पेश करती है.
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