भारत में अश्वगंधा अथवा असगंध जिसका वानस्पतिक नाम वीथानीयां सोमनीफेरा है, यह एक महत्वपूर्ण औषधीय फसल के साथ-साथ नकदी फसल भी है। अश्वगंधा आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति में प्रयोग किया जाने वाला एक महत्वपूर्ण पौधा है। इसके साथ-साथ इसे नकदी फसल के रूप में भी उगाया जाता है। सभी ग्रथों में अश्वगंधा के महत्ता के वर्णन को दर्शाया गया है। इसकी ताजा पत्तियों तथा जड़ों में घोंड़े की मूत्र की गंध आने के कारण ही इसका नाम अश्वगंधा पड़ा। विदानिया कुल की विश्व में 10 तथा भारत में 2 प्रजातियाँ ही पायी जाती हैं। आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति में अश्वगंधा की माँग इसके अधिक गुणकारी होने के कारण बढ़ती जा रही है। यह पौधा ठंडे प्रदेशो को छोड़कर अन्य सभी भागों में पाया जाता है।
संस्कृत नाम: अश्वगंधा,
हिन्दी नाम : असगंध,
अंग्रेजी : विन्टरचेरी,इंडियनगिनसेंग
भोगौलिक वितरण
अश्वगंधा का वितरण अफ्रीका, भूमध्यसागरीय से भारत एवं श्रीलंका में पहुंचा है। भारत के हिमालय पहाड़ के तटों में 1000 मीटर की उंचाई तक पाई जाती है। भारत मे हिमाचल प्रदेश, पंजाब, राजस्थान, हरयाणा, उत्तरप्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र एवं मध्यप्रदेश आदि क्षेत्रों में पाये जात है।
स्वरूप : यह एक सीधा, रोयेंदार और सदाबहार पौधा है, पौधे के सभी भाग श्वेताभ होते है।
पत्तिंया : पत्तियाँ अण्डाकार, पूर्ण और पतली होती है।
फूल : फूल उभयलिंगी और हरे या अंधकारमय पीले रंग के होते है। फूल जुलाई से सितम्बर माह में आते हैं।
फल : फल बेरी के रूप में, 7 मिमी के, लाल, गोलाकार और चिकने होते है। फल पकने पर नारंगी लाल - रंग के हो जाते है। फल दिसंबर माह में आते है।
बीज : इसके बी़ज पीले रंग के होते है।
जलवायु
यह पछेती खरीफ फसल है। यह उष्णकटिबंधी और समशीतोष्ण जलवायु की फसल है। अशवगंधा को शुष्क मौसम की आवश्यकता होती है। बारिश के महीने के अंतिम दिनों में इसे बोया जाता है। फसल के विकास के लिए शुष्क मौसम अच्छा रहता है। जिन स्थान में वर्षा 660-750 मिमी की होती है वे स्थान फसल के विकास के लिए उपयुक्त होते है। वार्षिक वर्षा 600 से 750 मिलीलीटर में अश्वगंधा की वृद्वि अच्छी से होती है बीच में 1-2 बार ठण्ड में बर्षा होने से अश्वगंधा की जड़ो की पूर्ण विकास होता है।
भूमि
अश्वगंधा की खेती के लिए रेतीली दोमट से हल्की भूमियों में अच्छी मात्रा कार्बनिक पदार्थ एवं मृदा पी एच 7.5 - 8 के बीच होनी चाहिए और अच्छी जल निकास की व्यवस्था होनी चाहिए।
बुवाई का समय एंव बीज की मात्रा
अगस्त और सितम्बर माह में जब वर्षा हो जाऐ उसके बाद जुताई करनी चाहिये। दो बार कल्टीवेटर से जुताई करने के बाद पाटा लगा देना चाहिये। 10-12 कि0ग्रा0 बीज प्रति हेक्टेयर की दर से पर्याप्त होता है। अच्छी पैदावार के लिये पौधे से पौधे की दूरी 5 सेमी0 तथा लाइन से लाइन की दूरी 20 सेमी0 रखना चाहिये।
प्रजातियॉ: पोषिता, जवाहर असगंध-20, जवाहर असगंध-134
बीज प्रवर्धन
अश्वगंधा की पौधा जुलाई-सितम्बर में फूल आता है और नवम्बर-दिसम्बर में फल लगता है। अश्वगंधा की पौधे के फल से बीज निकालकर उसे सूर्य के रोशनी में सूखने दिया जाता है। बुवाई के पहले बीजों को 24 घण्टे के लिये ठण्डे पानी में भिगो दिया जाता है तथा उसे छिड़काव विधि द्वारा तैयार बीजों को सीधे खेत में बो दिया जाता है और हल्के मिट्टी से ढक दिया जाता है। अश्वगंधा को संकन क्यारी में भी बोया जाता है और दूरी 5 सेन्टीमीटर रखा जाता है। अश्वगंधा की बुवाई खरीफ में जुलाई से सितम्बर तथा रबी में अक्टूबर से जनवरी में बोया जाता है। अश्वगंधा का अंकुरण 6 से 7 दिनों में 80 प्रतिशत होताहै।
रोपण एवं रखरखाव
जब पौधा उम्र 6 दिनो का होतो उसे रोपण किया जाता है तथा दूरी कतार की कतार 60 सेन्टीमीटर होनी चाहिए। रोपण के 25 से 30 दिन बाद पौधो की विरलीकरण करके उसे बीस हजार से पच्चीस हजार की संख्या प्रति हेक्टेयर तक रखना चाहिए। खरपतवार के नियंत्रण के लिये तीस दिन के अंतराल में निदाई करना चाहिए।
खाद एवं उर्वरक
अश्वगंधा की फसल को खाद एवं उर्वरक अधिक आवश्यकता नहीं रहती है। पिछले फसल के अवशेष उर्वरकता से खेती किया जाता है।इसके लिए सिर्फ गोबर की सड़ी खाद पर्याप्त होती है
सिंचाई
सिंचित अवस्था में खेती करने पर पहली सिंचाई करने के 15-20 दिन बाद दूसरी सिंचाई करनी चाहिए। उसके बाद अगर नियमित वर्षा होती रहे तो पानी देने की आवश्यकता नही रहती। बाद में महीने में एक बार सिंचाई करते रहना चाहिए। अगर बीच में वर्षा हो जाए तो सिंचाई की आवश्यकता नही पड़ती। वर्षा न होने पर जीवन रक्षक सिंचाई करनी चाहिए। अधिक वर्षा या सिंचाई से फसल को हानि हो सकती है। 4 ई.सी. से 12 ई.सी. तक वाले खारे पानी से सिंचाई करने से इसकी पैदावार पर कोई असर नही पड़ता परन्तु गुणवत्ता 2 से 2.5 गुणा बढ़ जाती है।
फसलसुरक्षा
प्रमुख कीट : तनाछेदक, माइट।
प्रमुख बीमारी : बीजसड़न, पौध अंगमारी एवं झुलसा रोग।
नियंत्रण: माइट के नियंत्रण के लिये नीम के पत्ती का उबला हुआ पानी घोल का छिडकाव करने से यह कीट मर जाता है .
तनाछेदक के नियंत्रण के लिये 25 ग्राम नीम कि पत्ती तोड़कर कुचलकर पीसकर 50 लीटर पानी में पकाए जब पानी 20-25 लीटर रह जाय तब उतार कर ठंडा कर सुरक्षित रख ले आवश्यकता अनुसार किसी भी तरह का - कीट पतंगे मछर , इल्ली या किसी भी तरह का रोग हो किलो 1 लीटर लेकर 15 लीटर पानी में मिलाकर पम्प द्वारा तर बतर कर छिड़काव करे
बीजसड़न एवं पौध अंगमारी के नियंत्रण के लिये बुवाई के पहले बीज उपचार 2 लीटर गोमूत्र प्रति किलोग्राम बीज की दर से किया जाना चाहिए तथा मदार की 5 किलोग्राम पत्ती 15 लीटर गोमूत्र में उबालें। 7.5 लीटर मात्रा शेष रहने पर छान लें फिर फसल में तर-बतर कर छिड़काव करें |
झुलसा रोग के नियंत्रण के नीम के पत्ती का उबला पानी घोल का छिड़काव कर देते है ।
कटाई एवं उपज
अश्वगंधा की कटाई जनवरी से मार्च तक लगातार चलता रहता है। अश्वगंधा पौधे को उखड़ा जाता है उसे जड़ों को पौधे के भागों को काटकर अलग किया जाता है और जड़ों को 7 से 10 सेन्टीमीटर लंबाई तक काटकर छोटे-छोटे टुकड़े किये जाते है जिससे आसानी से उसे सुखाया जा सके। पौधे के पके फल से बीज एवं सुखे पतियॉ प्राप्त किया जाता हैं।
उपज
अश्वगंधा की 600-800 किलोग्राम जड़ तथा 50 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर प्राप्त होता है।
औषधीय उपयोग
अश्वगंधा के जड़ों का उपयोग पाउण्डर बनाकर कमजोरी, दमा, कफ संबंधी बीमारी, अनिद्रा, हृदय रोग एवं दुर्घटना में बने घाव के उपचार में किया जाता है। जड़ों के पाउडर को मधु एवं घी से मिलाकर कमजोरी के लिये प्रांरभिक उपचार किया जाता है। अश्वगंधा जड़ के चूर्ण का सेवन से शरीर में ओज तथा स्फूर्ती आती है तथा रक्त में कोलस्ट्राल की मात्रा को कम करने के लिये उपयोग किया जाता है।
कमर एवं घुटना दर्द में भी उपचार के लिये अश्वगंधा का पाउण्डर को शक्कर का केण्डी एवं घी के साथ मिलाकर सेवन किया जाता है।
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