पपीता फल में घुलनशील रेशा काफी मात्रा में होता है जोकि शरीर के कोलेस्ट्रोल और चर्बी की मात्रा को कम करता है। पपीते में विटामिन ए काफी मात्रा में पाई जाती है। लाल गूदे वाले पपीते में लाइकोपीन नामक पदार्थ काफी मात्रा में पाया जाता है जोकि लगभग 1350-3674 माइक्रोग्राम/100 ग्राम तक होता है और दुसरे पौष्टिक तत्व जैसे कार्बोहाइड्रेट्स, प्रोटीन विटामिन सी तथा खनिज लवण से अच्छी मात्रा में होते है। इसके सेवन करने से पाचन क्रिया ठीक रहती है तथा आंतों, तपेदिक, दमा, निमोनिया और नेत्र रोगों से राह मिलती है। इसमें पाए जाने वाले विटामिन ए और सी के अलावा पोटेशियम कैल्शियम और आयरन प्रचुर मात्रा में पाए जाते है। जिसके कारण शरीर में कई रोगों के कीटाणु नहीं पनपते हैं।
पपीता कैरीकेसी परिवार का फल है और पैसीफ्लौरा परिवार से मिलता-जुलता है। पपीते का पौधा बहुत जल्दी बढ़ कर एक साल में ही फल देने लगता है, पपीता विटामिन ए व सी का अच्छा स्त्रोत है। यह फल संसार के सभी देशों के उष्ण और उपोष्ण कटिबंधी क्षेत्रों में आसानी से उगाया जाता है।
पपीते की पैदावार शरत के विभिन्न राज्यों जैसे आंध्र प्रदेश, गुजरात, पश्चिम बंगाल, असम, केरल, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र आदि में होती है। यदि पपीते की पैदावार की तुलना दूसरे देशों से करें तो शरत इसकी पैदावार में आगे है और शरत में इस फल की पैदावार लगभग 41.96 लाख टन के करीब है (एन एच बी 2011)। इस फल का शर लगभग 1 पौंड तथा उससे अधिक होता है। यह लगभग 6-20 इंच तक लम्बा एंव इसका व्यास 12 इंच तक होता है। फल पकने की पहचान का अन्दाजा हम अंगूठे से दबाकर लगा सकते है। अगर अंगूठे से नरम लगे तब इसे पका हुआ समझें और अगर बाहर के छिलके में संतरी रंग आ जाएं तो ये पका हुआ माना जाता है। फल की परिपक्कवता को यंत्र द्वारा ही मापा जा सकता है।
पौष्टिक तत्व :
एक अनुसंधान के दौरान विभिन्न समयावधि में परिपक्व होने वाले पपीता फल के लिए गए जैसे जल्दी परिपक्व होने वाला, मध्य में और देर से परिपक्व होने वाला वाला, जो देर में परिपक्व होने वाले थे उनके परिणाम ज्यादा अच्छे रहे। इन्हें तुडाई के बाद पकाया गया और उन फलो के रासायनिक एंव शैतिक गुणों को मापा गया और यह ज्ञात हुआ कि उन फलों में नमी <85.5 प्रतिशत, खटास 0.18 प्रतिशत, रेशा 1.45 मि. ग्राम/100 ग्राम तथा कुल चीनी की मात्रा 13.0 प्रतिशत पाई जाती है।
भण्डारण में फलों को पकाने के दौरान एंजाइम, पॉलीफिनोल ऑक्सीडेज की क्रिया थी और पोटैशियम की मात्रा लगभग 420 मि. ग्राम/100 ग्राम पाई गई। फल पित्तनाशक तथा स्वादिष्ट होता है। पेड़ पर पका हुआ पपीता अधिक गुणकारी है। पेट के रोगों में पपीते का सेवन बहुत लाभदायक होता है। पपीता ऐसा फल है जिसके प्रत्येक भाग में कुछ न कुछ औषधीय गुण पाये जाते है। पपीता जल्दी तैयार होने वाले पौष्टिक, स्वादिष्ट तथा अधिक आमदनी देने वाला एक लोकप्रिय फल है। पके फलों के अलावा हरे फलों को खरोंचने से प्राप्त दूध को सूखाकर पपेन प्राप्त होता है।
पपीता गुणों की खान :
महावारी के दर्द से छुटकाराः पपीते में पैपेन नामक एंजाइम महावारी के दौरान रक्त के प्रवाह को ठीक कर दर्द को दूर करने में मदद करता है। इसलिए माहवारी के दर्द से गुजर रही महीलाओं को अपने आहार में पपीता को शामिल करना चाहिए।
कोलेस्टॉल कम करें : पपीते में फाइबर, विटामिन सी और एंटी- ऑसीडेंट्स प्रचुर मात्रा में होते है, जो आपकी रक्त वाहिनियों में कोलेस्टॉल के थक्कों को बनाने नहीं देता है। कोलेस्टॉल के थक्के दिल का दौरा पड़ने और उच्च रक्तचाप समेत कई हृदय रोगों का कारण बन सकते हैं।
प्रतिरोधक क्षमता में मजबूतीः आपकी इम्युनिटी विभिन्न संक्रमणों के विरूध ढाल का काम करती है। केवल एक पपीते में इतना विटामिन सी होता है, जो आपके प्रतिदिन की विटामिन सी की आवश्यकता का लगभग 200 प्रतिशत है। इस तरह से ये आपकी रोग-प्रतिरोधक क्षमता का मजबुत करता है।
कैसंर को रोकने में मददगारः पपीता कोलन कैंसर के खतरे को कम करता है। पपीते में एंटी ऑक्सीडेंट्स प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। इसके अलावा इसमें मौजूद विटामिन सी, बीटा कैरोटीन और विटामिन ई शरीर में कैंसर सेल को बनने से रोकते है। इसलिए अपने आहार में पपीता शामिल करें।
आंखो के लिए फायदेमंदः पपीता नेत्र रोगों के लिए बहुत फायदेमंद है। इसमें विटामिन ए की मौजूदगी आंखों की रोशनी को कम होने से बचाती है। इसके सेवन से रतौंधी रोग का निवारण होता है और आंखों की ज्योति बढ़ती है।
पपेन प्रोटियोलिटिक एंजाइम है जो मांस नरम करने तथा शेजन को पचाने में मदद करता है और इससे बहुत सी दवाइयां तैयार की जाती हैं। इसलिए इसकी अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में शरी मांग है। इस कारण यह फल औषधीय और व्यावसायिक क्षेत्र में अधिक महत्तव रखता हैं। इस फल को कुछ लोग इसकी बहुत अच्छी खुशबू न होने की वजह से पसन्द नहीं करते खास कर बच्चे। धीरे-धीरे लोगों में इस फल की गुणवत्ता का पता लग रहा है लेकिन इस फल का खाद्य उद्योग में अभी तक इतना प्रयोग नहीं हो पाया है।
किस्में: पपीते की बढ़िया किस्में पूसा डेलिशियस, पूसा मेजेस्टी, पूसा, जांइट, पूसा ड्वार्फ, पूसा नन्हा, पंत पपीता, हनीड्यू, कुर्ग हनीड्यू, कोयम्बटूर-1, कोयम्बटूर-2, कोयम्बटूर-3, कोयम्बटूर-4, कोयम्बटूर-5, कोयम्बटूर-6, पेन-1, ताईवानी वगैरह हैं।
मिट्टी: यह ऊष्ण जलवायु का पौधा है, जो खुले धूप व पानी की सुविधा वाले इलाके में उपजाया जा सकता है, पपीते की उत्तम पैदावार में लिए गरम और नरम आबोहवा अच्छी होती है, इसके लिए ज्यादा पानी, पाला और तेज गरम हवा नुकसानदायक होती है। पपीते की खेती वैसे तो सभी प्रकार की मिट्टीयों में की जा सकती है, लेकिन हल्की, उपजाऊ, कार्बनिक पदार्थो से भरपूर अच्छे जल निकास वाली और 6.5 से 7.0 पीएच मान वाली मिट्टी सबसे अच्छी मानी जाती है।
पौध तैयार करने की विधि: आमतौर पर पपीते की पौध बीज द्वारा तैयार की जाती है, इस के लिए ऊंची उठी हुई क्यारियां तैयार कर ली जाती हैं, जो 3 मीटर लंबी, 1 मीटर चैडाई की व जमीन से 20-25 सेंटीमीटर उठी हुई होती है, बीजों को इन क्यारियों में कतार में 10-10 सेंटीमीटर की दूरी में रोपाई के लिए काफी रहता है। बोआई से पहले बीज को एग्रोसान जीएन या सेरेसान से उपचारित कर लेना चाहिए, बीज बाने के बाद पुआल से क्यारी को ढक देना चाहिए व हजारे से जरूरत के मुताबिक सींचते रहना चाहिए। बीजों के जमने के बाद पुआल हटा देना चाहिए, बीज की बोआई पालीथिन की थैलियों में ही की जाती है।
नर्सरी में पौधो का खास खयाल रखना चाहिए और पौध गलन या डैंपिंग आफ सीडलिंग से बचने के लिए बोर्डो मिश्रण (5:5:5) का छिड़काव करना चाहिए, बीजों को 2 सेंटीमीटर की दूरी पर 10 सेंटीमीटर की कतारो में तकरीबन 1 से 1.5 सेंटीमीटर की गहराई में अप्रैल से जून महीने में बोना चाहिए, जब पौधे 5 से 7 सेंटीमीटर के हो जाए, तो उन्हें गमलों में लगाना चाहिए या पालीथिन की थैलीयों में रखना चाहिए, तब पौधे 15 से 20 सेंटीमीटर के हो जाए तो उन्हें दिन में निश्चित स्थान पर लगा देना चाहिए।
पौध रोपाई का समय: पपीते के पौधे साल में तीन बार जुलाई अगस्त,सिंतम्बर अक्तुबर, व फरवरी मार्च महीनों में लगाए जा सकते हैं।
पौधरोपण: तैयार खेत में 45X45X45 सेंटीमीटर आकार के 2X1 मीटर की दूरी पर गड्ढे खोद कर डेढ हफ्ते के लिए खुला छोड देना चाहिए, फिर गड्ढो में तकरीबन 15 सेंटीमीटर की ऊंचाई तक 3: 1 के अनुपात मे मिट्टी व खाद का मिश्रण देना चाहिए, 2-3 दिन बाद इन में 15 से 20 सेंटीमीटर ऊंचे पौधों की रोपाई कर के फौरन सिंचाई कर देते है। पौधे अगर द्विलिंगी किस्म के हो, तो हरेक गड्ढे में 3 पौधे लगाने चाहिए फूल आने पर नर पौधों की संख्या 10 फीसदी ही रखनी चाहिए, जबकि उभयलिंगी किस्म के पौधों को उगाना हो, तो प्रत्येक गड्ढे में सिर्फ एक पौधा ही लगाना चाहिए, क्योंकि इन किस्मों के सभी पौधे या तो मादा होगें या उभयलिंगी।
पौधे रोपने का काम शाम के समय ही करना चाहिए, पौधे लगाने के बाद हल्की सिंचाई जरूर करें, पौधो का बढ़ना शुरू होते ही पौधों के अगल बगल से मिट्टी चढ़ा कर रिंग बना कर सिंचाई की जा सकती है, पौधों पर पहले फूल के आते ही निश्चित अनुपात में नर व मादा पौधों को छोडकर ? अतिरिक्त पर पौधों का काट देना चाहिए।
खाद व उर्वरक: पपीते के पेड़ में तकरीबन 12 से 15 महीने में फल आने लगते है, पपीते के पौधों को बाग में लगाने के चार महीने के बाद 15 से 20 किलों प्रति पौधा सड़ी हुई गोबर की खाद देना जरूरी होता है, पैदावार बढाने के मकसद से उर्वरक का मिश्रण बहुत उपयोगी पाया गया है, यह उर्वरक मिश्रण अमोनिया सल्फेट: सुपर फास्फेट: पोटैशियम सल्फेट के 1:3:15 के अनुपात वाला 750 से 1 हजार ग्राम प्रति पौधा देना चाहिए। इस मिश्रण को आधे-आधे हिस्से में जुलाई अगस्त व फरवरी मार्च महीने में डाला जाना चाहिए और पौधों के चारो ओर गुडाई कर मिट्टी में अच्छी तरह मिला देना चाहिए, इसके अलावा प्रति पौधा लगभग 2 सौ ग्राम नाईट्रोजन, 2 सौ से ढाई सौ ग्राम फास्फेट व ढाई से 5 सौ ग्राम पोटाश देना चाहिए।
सिंचाई: पौधे लगाने के बाद हल्की सिंचाई जरूर कर देनी चाहिए, गर्मियों के दिनों में 6-7 दिन के अन्तर पर और सर्दी में 10-15 दिनों के अंतर पर हल्की सिंचाई करनी चाहिए, सिंचाई करते समय इस बात का जरूर ध्यान रखें कि पानी को अधिक मात्रा में न दिया जाए व पानी पौधे के सीधे संपर्क में न आने पाए, जलश्राव से बचे, नही तो पौधों में गलन बीमारी लगती है और फल कम लगता है, इसके लिए सिंचाई से पहले प्रत्येक पेड़ के चारों तरफ 30 सेंटीमीटर गोलाई में 15 सेंटीमीटर ऊंचाई की मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए, उथली व रेतीली मिट्टी में लगे बागों में कम समय के अंतराल पर हल्की सिंचाई करनी जरूरी होती है, पपीते में अब टपक सिंचाई यानी ड्रिप इरीगेशन की जाने लगी है, क्योंकि इससे पौधों में तनागलन बीमारी का खतरा कम हो जाता है।
खरपतवार: निराई गुडाई करते वक्त पौधों के बीच में उगने वाले खरपतवारों को निकालतें रहना चाहिए, तनों के चारों तरफ मिट्टी की छोटी मेंड़ चढ़ा देनी चाहिए।
लिंग भेद : पपीते के 3 तरह के पौधे आते है, नर, मादा व उभयलिंगी. खेत में 10 फीसदी नर पौधों को छोड़कर, अनावश्यक पौधों को काट कर हटा देना चाहिए. बीमारी लगे पौधों को हटा देना चाहिए व उस खाली जगह पर स्वस्थ पौधें लगा देना चाहिए।
पौधो की पाले से सुरक्षा: नवम्बर महीनें में इन पौधों को सूखे घासफूस या खरपतवार से ढक दें. हलकी सिंचाई की व्यवस्था कर पाले से पौधों को बचाया जा सकता है।
फलों की छंटाई: उत्तम गुणों वाले बड़े फल हासिल करने के लिए अवांछित और छोटे-छोटे फलों को निकाल देना चाहिए. स्वस्थ पेड़ों वाले पपीते की एक हेक्टेयर फसल से 250-400 क्विंटल तक पैदावार मिल जाती है। स्वस्थ पेड़ों पर 25 से 80 फल तक लगते है. फल बनने के तकरीबन एक महीने बाद तनों पर कुछ फलों को बीच-बीच से निकाल कर प्रति गांठ औसतन दो फल छोडना जरूरी होता है. ऐसा करने से बचे हुए फलों के आकार में अच्छा विकास हो पाता है।
कीट एंव रोग नियंत्रण
लाल मक्खी: इस कीडे के आक्रमण से फल खुरदरे व काले रंग के हो जाते है. पत्तियों पीली पड कर गिर जाती है. इस कीडे की रोकथाम के लिए मोनोक्रोटोफास या मेटासिस्टाक्स के 0.03 फीसदी का छिड़काव करना चाहिए।
माहू: यह कीडा पत्तियां का रस चूसता है. इस की रोकथाम के लिए शुरूआत अवस्था में ही 0.03 फीसदी मोनोक्रोटोफास या फास्फेमिडान का छिड़काव करना चाहिए.
आर्द्रगलन: इस बीमारी से पौधशाला में छोटे पौधों का तना जमीन के पास से सड़ जाता है और वे मुरझा कर गिर जाते है. इस बीमारी की रोकथाम के लिए बोर्डो मिश्रण 3 फीसदी या जिनेब 0.3 फीसदी का छिड़काव करें. साथ ही मिट्टी को फार्मेल्डिहाइड के 2.5 फीसदी घोल से उपचारित करें व बीजों को थाइरम दवा की 2 ग्राम मात्रा प्रति किलो बीज की दर से उपचारित कर बोएं.
वाइरस बीमारियां: सभी प्रकार की वाइरस बीमारियां पत्ती का रस चूसने वाले कीड़ों द्वारा फैलाई जाती है। पपीते में प्रमुख रूप से 3 वायरस बीमारियां मोजैक, डिस्टारसन रिंग स्पाट वायरस और लीफ कर्ल वाइरस लगती है। मोजैक बीमारी से पत्तियों का हरापन कम हो जाता है व पत्तियां छोटी होकर सिकुड़ जाती है।
रोगग्रस्त पत्तियों में फैले हुए दाग पड़ जाते है। कुछ दिनों बाद पौधा मर जाता हैं। डिस्टारसन रिंग स्पाट वाइरस से पपीते का सब से ज्यादा नुकसान होता है। प्रभावित पौधें की पत्तियां कटी फटी सी दिखाई देती हैं और पौधों की बढ़वार रूक जाती हैं। लीफ कर्ल वाइरस से पत्तियां पूरी तरह से मुड जाती हैं और न तो पौधे बढ़ पाते हैं और न ही फल लगते है। रोकथाम के लिए बीमारीग्रस्त पौधों को खत्म कर दें।
कीड़ों की रोकथाम के लिए मेटासिस्टाक्स या मेलाथियान के 0.05 फीसदी घोल का 16 दिन के अंतर पर छिड़काव करना चाहिए। ऐसे इलाकों में, जहां वाइरस बीमारियों का डर रहता है, वहां पौधशाला या नर्सरी सिंतबर अक्तूबर के महीनों में लगाएं। नर्सरी में पौधों पर दो चार पत्तियां आते ही उन पर नियमित कीटनाशक दवाओं का छिड़काव करते रहें। बीमार पौधों को निकाल कर गड्ढें में दबा दें या जला दें। बागों के नजदीक पुराने विषाणुग्रसित पौधों को नष्ट कर दें, क्योंकि इन पौधों में वाइरस कई सालों तक बने रहते है और नए बागों में रोग फैलने का स्त्रोत बन जाता हैं। बागों के नजदीक ऐसी सब्जियां न लगाएं, जिनमें तेला, चेंपा या सफेद मक्खी का प्रकोप होता हो, क्योंकि ये कीट ही मुख्य रूप से वाइरस एक पौधें से दूसरे पौधें तक ले जाते हैं।
तना या पद विगलन रोग यानी स्टेम या फुट राट: यह एक मिट्टी जनित बीमारी है, जिससे फफूंद मिट्टी में पैदा होते हैं। इस बीमारी के असर से मिट्टी की सतह से तनों में सड़न शुरू हो जाती है व छाल पीली पड जाती हैं और मुरझा कर गिर जाती हैं। तना सड़ जाता है और आखिर में पौधा गिर जाता हैं। इस बीमारी का प्रकोप बारिश के मौसम में या नमी ज्यादा होने पर ज्यादा होता हैं। खासकर ऐसे खेतों में, जिन में जल निकास का इंतजाम ठीक नहीं होता। इस बीमारी की रोकथाम के लिए जमीन से 60 सेंटीमीटर की ऊंचाई तक तनों पर बोर्डोपेस्ट की पुताई करना चाहिए। बीमार पौधों का फौरन उखाड़कर दबा या जला देना चाहिए। बारिश या सिंचाई का पानी तने के सीधे संपर्क में नहीं आना चाहिए। इस के लिए पौधों के तनों के चारों ओर मिट्टी चढ़ा देना चाहिए। कॉपर आक्सीक्लोराइड 2 ग्राम एक लिटर पानी में घोल कर छिड़काव करना चाहिए। इस से बीमारी दूसरे पौधों पर नहीं फैलती।
डॉ. आर.एस.सेंगर, आलोक कुमार सिंह एंव डॉ. डी.के. श्रीवास्तव
सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एंव प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, मोदीपुरम, मेरठ
विज्ञान एंव प्रौद्योगिकी परिषद उत्तर प्रदेश, लखनऊ
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