पिछले कुछ वर्षों से सेब की खेती में किसानों के सामने बहुत सारी दिक्कतें आ रही हैं, जैसे- पत्तों का झड़ना, फलों की संख्या और गुणवत्ता में कमी होना. साथ ही साथ यह भी देखा जा रहा है कि हर सीजन में फ्लावरिंग में भी दिक्कतें आ रही हैं जिसकी वजह से बागवानों की आमदनी में नुकसान हो रहा है. दिसंबर-जनवरी की बर्फबारी और मार्च अप्रैल की बारिश से अंदेशा लगाया जा सकता है कि इस वर्ष भी मौसम सामान्य नहीं है और अभी भी हिमाचल प्रदेश के कुछ हिस्सों में बारिश हो रही है जिससे सेब बागवानों को भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है. इन्हीं सभी बातों को ध्यान में रखते हुए बी.ए.एस.एफ इंडिया लिमिटेड के सहयोग से कृषि जागरण द्वारा 18 अप्रैल 2024 को सेब की बागवानी और फसल प्रबंधन से जुड़े विषय पर एक वेबिनार का आयोजन किया गया जो कि देश में हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर तथा उत्तराखंड की पहाड़ियों में सबसे ज्यादा उगाया जाता है.
मालूम हो कि बी.ए.एस.एफ इंडिया लिमिटेड, भारत में पिछले कई दशकों से कार्यरत है और किसानों की जरुरतों को ध्यान में रखते हुए क्रॉप प्रोटेक्शन से संबंधित कई तरह के उत्पाद, जैसे- फफूंदनाशक/ Fungicides, कीटनाशक/ Insecticides, शाकनाशी/ Herbicides, बीज उपचार उत्पाद/ Seed Treatment Products आदि बनाती है. इतना ही नहीं, बी.ए.एस.एफ इंडिया लिमिटेड कंपनी की कृषि विशेषज्ञ टीम देश के लगभग सभी राज्यों में सक्रिय है.
बी.ए.एस.एफ इंडिया लिमिटेड के सहयोग से कृषि जागरण द्वारा आयोजित इस वेबिनार में तीन गेस्ट जुड़ें जिसमें डॉ. यशवंत सिंह परमार, बागवानी एवं वानिकी विश्वविद्यालय, नौणी, सोलन, हिमाचल प्रदेश से डॉ. नवीन सी शर्मा, एसोसिएट प्रोफेसर (फ्रूट साइंस), डिपार्टमेंट ऑफ फ्रूट साइंस और डॉ. शालिनी वर्मा, सीनियर साइंटिस्ट, फ्रूट पैथोलॉजी, डिपार्टमेंट ऑफ प्लांट पैथोलॉजी और तीसरे गेस्ट नीरज नेगी, सीनियर सेल्स एक्जीक्यूटिव, शिमला, बी.ए.एस.एफ इंडिया लिमिटेड से जुड़े. यह वेबिनार काफी प्रभावकारी रहा. इस वेबिनार में हिमाचल प्रदेश के अलग-अलग हिस्सों से काफी सेब उत्पादक किसान हिस्सा लिए और सेब की बागवानी और फसल प्रबंधन से जुड़े विभिन्न सवाल पूछे जिसका जवाब वेबिनार में उपस्थित बी.ए.एस.एफ इंडिया लिमिटेड के प्रतिनिधि नीरज नेगी समेत दोनों एग्रीकल्चर एक्सपर्ट डॉ. नवीन सी शर्मा और डॉ. शालिनी वर्मा के द्वारा दिया गया. ऐसे में आइए जानते हैं इस वेबिनार में क्या कुछ खास रहा-
कृषि विशेषज्ञों से पूछे गए कई महत्वपूर्ण सवाल
इस वेबिनार में कई महत्वपूर्ण सवाल कृषि विशेषज्ञों से पूछे गए जिसका जवाब उनके द्वारा बहुत ही सावधानी पूर्वक दिया गया. वेबिनार में पहला सवाल डॉ. नवीन सी शर्मा से पूछा गया कि सेब की फसल में मृदा पोषण प्रबंधन का क्या महत्व है? साथ ही मृदा स्वास्थ्य प्रबंधन का सबसे अच्छा तरीका क्या है? जिसके जवाब में उन्होंने किसानों को संबोधित करते हुए कहा कि उत्पादन पर कोई नेगेटिव प्रभाव न पड़े उसको हम पोषण प्रबंधन से नियंत्रित कर सकते हैं, क्योंकि पोषण प्रबंधन से मिट्टी और पौधे दोनों का स्वास्थ्य जुड़ा हुआ होता है. वही, जब बात मृदा पोषण की और पोषण प्रबंधन की बात होती है, तो यह जानना जरूरी हो जाता है कि हम पौधों को कौन-कौन सा खाद डाल रहे हैं, पौधों को कौन-सा पोषक तत्व किस समय कितनी मात्रा में दें?
आज के तारीख में हमारे हिमाचल प्रदेश में दो तरह के प्लांटेशन के प्रोग्राम चलते हैं. इसमें पहला है- कन्वेंशनल प्लांटेशन जिसमें लो डेंसिटी प्लांटेशन पर 15 से 20 फीट की दूरी पर हम पौधे लगते हैं. वही, पिछले कुछ वर्षों से हाई डेंसिटी प्लांटेशन यानी सघन बागवानी पर हमारा रिसर्च का कार्य चल रहा है तो उसके बाद राज्य के काफी सारे बागवान इस तरह की बागवानी में प्रवेश कर रहे हैं और उसे तरह की बागवानी उन लोगों के पास है.
जो लो डेंसिटी के पौधे हैं जिनकी दूरी 15 से 20 फिट है उनके लिए पोषक तत्व निर्धारित किया गया है कि फर्टिलाइजर की कितनी मात्रा डालनी है. उसके लिए एक जनरल रिकमेंडेशन हमारे यहां से जाती है. हालांकि, बागवान बंधुओं के लिए यह जरुरी होता है कि मिट्टी और पत्तों का बार-बार विश्लेषण कराएं क्योंकि सही मात्रा का विश्लेषण पत्तों और मिट्टी के विश्लेषण से ही पता चलता है कि उस मिट्टी की स्थिति क्या है? मिट्टी में से पौधा कितने पोषक तत्व ले रहे हैं?
आमतौर पर हम यह मान कर चलें की हमारे मिट्टी में सारे पोषक तत्व उपलब्ध हैं. वह अच्छे से कम कर रहे हैं. सभी पोषक तत्व अच्छे से पौधों को मिल रहा है. ऐसी परिस्थिति में भी हमें पौधे की उम्र के अनुसार बेसिक पोषक तत्व प्रदान करने होते हैं. एक साल के पौधे के लिए नाइट्रोजन की मात्रा 70 ग्राम, फास्फोरस की मात्रा 35 ग्राम और पोटाश की मात्रा 70 ग्राम के अतिरिक्त 10 किलोग्राम गोबर की सड़ी खाद डालनी होती है और इस मात्रा को हम इसी पोषण में 10 सालों तक बढ़ाते रहते हैं, जैसे- दो साल का पौधा हो तो 70 ग्राम की जगह पर 140 ग्राम हो जाएगा, 35 ग्राम का 70 ग्राम हो जाएगा, 10 किलो गोबर की खाद है वह 20 किलो हो जाएगी. इसी तरह से इस मात्रा को हम अगले 10 सालों तक बढ़ते रहते हैं और 10 साल के बाद उसको स्टेबल कर देते हैं फिर चाहे वह 10 साल का पौधा हो या 15 साल का पौधा हो.
इसके अतिरिक्त रिसर्च में पाया गया है कि जो सूक्ष्म पोषक तत्व होते हैं उनकी मात्रा भी मिट्टी में कम होती है जिसमें बोरोन और जिंक प्रमुख है. चाहे फूलों की बात करें या फलों की गुणवत्ता के लिए बात करें. इन दोनों के लिए इन दोनों की आवश्यकता होती है. इसके लिए बोरोन 0.1% और जिंक 0.5% स्प्रे कर सकते हैं तो इससे फलों के गुणवत्ता में भी सुधार होता है.
जब हम पोषक तत्वों की बात करते हैं तो कैल्शियम को लेकर भी एक समस्या है. हमारे यहां जो पुराने बगीचे हैं जो थोड़ा ज्यादा दूरी पर लगे हैं उनकी बागवानी वर्षा आधारित होती है. वहां पर सिंचाई की सुविधा उपलब्ध नहीं है. ऐसे बगीचों में मई-जून माह में क्या होता है जब गर्मी के मौसम में बारिश नहीं होती है, तो कैल्शियम की काफी कमी हो जाती है. जमीन में यदि कैल्शियम की मात्रा होती है तब भी पौधा उसको अवशोषित नहीं कर पाता है. नमी की कमी पड़ने की वजह से फलों में कुछ डिसऑर्डर देखने को मिलते हैं, तो ऐसी स्थिति में किसी भी प्रोडक्ट में यदि कैल्शियम की मात्रा हो तो कृषि वैज्ञानिकों के सुझाव पर उसका पत्तों पर छिड़काव किया जा सकता है. ऐसी स्थति में कैल्शियम की मात्रा 0.4% होती है.
जब हम हाई डेंसिटी बागवानी की बात करते हैं, जो बोरोन, जिंक और कैल्शियम की मात्रा होती है वह उसी तरह से इस्तेमाल की जाती है लेकिन जो नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश है उनकी मात्रा उम्र के हिसाब से आधी हो जाती है, जैसे- एक साल के पौधे के लिए नाइट्रोजन 35 ग्राम, फास्फोरस 17.5 ग्राम और पोटाश 35 ग्राम डालने होती है. उसके साथ ही 10 किलोग्राम गोबर की सड़ी हुई खाद डालनी होती है. दूसरे साल के लिए नाइट्रोजन, पोटाश और फास्फोरस की मात्रा उतनी ही बढ़ा दी जाती है जोकि 5 सालों तक बढ़ाया जाता है. वही जो गोबर खाद होती है उसकी मात्रा को 5 किलोग्राम प्रति वर्ष बढ़ाया जाता है लेकिन जो पौधे 5 साल से बड़े होते हैं उनके लिए 25 किलो गोबर की और नाइट्रोजन 175 ग्राम, फास्फोरस 87.5 ग्राम और पोटाश 175 ग्राम डालते हैं.
डॉ. नवीन सी शर्मा से अगला सवाल पूछा गया- जैसा कि हम देख रहे हैं कि बर्फबारी और बारिश देर से होने के कारण सीजन थोडा लेट चल रहा है. इस स्थिति में अपने बगीचों की सुरक्षा के लिए क्या खास बातें ध्यान में रखनी चाहिए? जिसके जवाब में उन्होंने किसानों को संबोधित करते हुए कहा कि बागों में पोषक तत्व देने के अलावा कुछ और भी विशेष बातें हैं जिनका ध्यान रखने की आवश्यकता होती है. बागों में जब परिस्थितियां विपरीत चल रही हों तो पोषक तत्वों की भूमिका बहुत ज्यादा बढ़ जाती है. इसके लिए जमीन में जिन पोषक तत्वों की मात्रा की जरुरत होती है उसको सामान्य बनाए रखना बेहद जरूरी होता है. यदि परिस्थितियां काफी ज्यादा विपरीत हों और बागवानों को लग रहा हो कि जो जमीन में पोषक तत्व हैं उनकी मात्रा को जो पेड़ हैं वह नहीं ले पा रहे हैं तो ऐसी स्थिति में बोरोन और जिंक के साथ यूरिया की मात्रा प्रयोग कर सकते हैं. स्प्रे के लिए यूरिया की मात्रा 0.5% होती है. जमीन में नमी का असर बना रहे हैं पानी भी खेत में खड़ा नहीं हो पाया यानी ठहर नहीं पाए और सूखे की स्थिति ना हो. इन बातों का भी ध्यान रखना पड़ता है. मौसम जब ज्यादा विपरीत जाता है, तो यही सारी चीजें हैं जिनका हमें ध्यान रखने के लिए जरूरत होती है.
डॉ. नवीन सी शर्मा से अगला सवाल पूछा गया- पिछले सीज़न में जम्मू-कश्मीर और हिमाचल प्रदेश के कुछ हिस्सों में सेब उत्पादकों के सामने फिजियोलॉजिकल डिसऑर्डरस की चुनौती आई थी. यदि ऐसी चुनौती प्रदेश के और भी हिस्सों में दिखाई दे, तो किसान कैसे प्रबंधन करें? जिसके जवाब में उन्होंने किसानों को संबोधित करते हुए कहा कि कुछ परिस्थितियां हमारे पास ऐसी होती हैं. बेशक हमने मिट्टी का परीक्षण कराया होता है, मिट्टी में भले ही पोषक तत्वों की मात्रा दिखाई गई हो. लेकिन खाली हम मिट्टी के परीक्षण के आधार पर नहीं रह सकते हैं. ऐसा होता है कि जहां वर्षा आधारित क्षेत्र होता है वहां पर पोषक तत्वों की जो मोबिलिटी होती है वह जड़ों से होकर पत्तों तक थोड़ी कम पहुंचती है. इस स्थिति में फलों में कई तरह की विकृतियां आ जाती हैं जिनको हम अलग-अलग नाम से जानते हैं. वही सेब में जो विकृतियां हमें देखने को मिलती हैं वह ज्यादातर या तो कैल्शियम की वजह से होती हैं. इसके अलावा, अन्य पोषक तत्वों में यदि नाइट्रोजन की कमी है, तो पौधे के बढवार में पत्तों में उसके लक्षण देखने को मिलते हैं. ऐसे में किसान बागवानी के दौरान अपने बागों के मिट्टी का परीक्षण जरुर करवाएं और यह जान लें कि कौन से पोषक तत्व को कितनी मात्रा में पौधों को देना है और कौन से पोषक तत्व को नहीं देना है तो इस तरह की कुछ लक्षण जो पोषक तत्व की कमी की वजह से देखते हैं इनको फिजियोलॉजिकल डिसऑर्डर कहते हैं.
जिसके बाद डॉ. शालिनी वर्मा से अगला सवाल पूछा गया- हिमाचल प्रदेश में सेब की फसल में आमतौर पर कौन से रोग लगते हैं? जिसके जवाब में उन्होंने किसानों को संबोधित करते हुए कहा कि अगर हम पत्तों की बात करें तो सेब में सीजन की शुरुआत में सबसे पहले स्कैब रोग लगता है. इसके अलावा पाउडरी मिल्ड्यू की भी समस्या देखने को मिलती है. लीफ ब्लाइट की भी समस्या देखने को मिलती है. धब्बा रोग देखने को मिलता है. इसके अलावा, पत्तों की कई अन्य बीमारियां हैं और देखा जाए तो जोड़ों में भी कई बीमारियां लगती हैं. सीजन के अंत में भी कई सारी समस्याएं फलों में देखने को मिलती है.
डॉ. शालिनी वर्मा से अगला सवाल पूछा गया- डिजीज मैनेजमेंट के लिए सेब की फसल में कौन-सी महत्वपूर्ण अवस्थाएं हैं? जिसके जवाब में उन्होंने किसानों को संबोधित करते हुए कहा कि पौधों में ज्यादातर स्कैब रोग और पाउडरी मिल्ड्यू की समस्या देखने को मिलती है. यदि ज्यादा ठंड की समस्या होती है, तो पौधों में स्कैब रोग देखने को मिलता है, यदि मौसम थोड़ा-सा सूखा होता है तो फिर पाउडरी मिल्ड्यू की समस्या देखने को मिलती है. इस दौरान हर्बिसाइड्स का इस्तेमाल विभिन्न स्टेज में किया जाता है.
फिर इस चर्चा को B.A.S.F India Limited के प्रदेश प्रतिनिधि नीरज नेगी ने आगे बढ़ाते हुए B.A.S.F कंपनी के पास सेब उत्पादकों के लिए जो समाधान उपलब्ध है उसके बारे में विस्तार से बताया. इस दौरान उन्होंने किसानों को संबोधित करते हुए कहा कि अगर हम जम्मू-कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक, गुजरात से लेकर वेस्ट बंगाल तक यदि बात करते हैं, तो पूरे हिंदुस्तान में चाहे वह एग्रीकल्चर क्रॉप हो या हॉर्टिकल्चर क्रॉप हो, चाहे वह फिर फ्रूट क्रॉप हो. बी.ए.एस.एफ कंपनी हमेशा नए इनोवेशन के साथ नए-नए प्रोडक्ट लेकर आती रहती है; और कहीं ना कहीं किसानों की जो समस्याएं हैं उसका समाधान करते आ रही है. बी.ए.एस.एफ कंपनी की हमारे देश में कई रिसर्च सेंटर भी हैं.
फिर उन्होंने चर्चा को आगे बढ़ते हुए कहा कि ‘स्वस्थ सेब, खुशहाल खेत’ का सपना तभी साकार हो सकता है जब बागवान बगीचों की रखरखाव अच्छे तरीके से करेंगे. बागों की हम कीटों और रोगों से बचाएंगे तभी हम प्रीमियम क्वालिटी का उत्पादन प्राप्त कर सकते हैं. यदि प्रीमियम क्वालिटी का उत्पादन होगा तो कीमत भी अच्छी मिलेगी; और कीमत भी अच्छी मिलेगी तो जाहिर सी बात है कि किसानों के आमदनी में बढ़ोतरी भी होगी. यदि बागवान किसी कारणवश बागों का प्रबंधन नहीं कर पाते हैं तो वर्तमान फसल के अलावा आने वाले सीजन पर भी इसका प्रभाव पड़ता है.
इस दौरान नीरज नेगी ने सेब के फसल की समृद्धि को कौन रोक रहा है? इस विषय पर भी विस्तार से चर्चा की. इस दौरान उन्होंने बताया कि सेब के फसल की समृद्धि को रोकने में मौसम की मार भी एक प्रमुख समस्या है. मौसम की बदलती स्थिति जैसे- पाला या बेमौसम बारिश भी प्रभावित कर रहा है. इसके अलावा, कमजोर संरचना भी एक समस्या है. पर्याप्त भंडारण और ट्रांसपोर्ट सुविधा नहीं होने के कारण गुणवत्तापूर्ण सेब के निर्यात में बाधा आती है. साथ ही कुछ बीमारियां भी हैं जो लगातार फसल की मात्रा और गुणवत्ता दोनों को प्रभावित करती रहती है.
उन्होंने आगे बताया कि जब बगीचों में स्ट्रेस आती है तो पत्ते काफी झड़ जाते हैं और सिर्फ फल ही फल देखते हैं. ऐसी परिस्थितयां तब होती हैं जब जो खूब ज्यादा बारिश होती है या फिर बारिश बहुत कम होती है. आगे उन्होंने नेक्रोटिक लीफ ब्लॉच और अल्टरनेरिया लीफ ब्लाइट के बीच अंतर को बताया. इस दौरान उन्होंने बताया कि नेक्रोटिक लीफ ब्लॉच में जो धब्बा होता है वह काफी लंबा होता है लेकिन अल्टरनेरिया लीफ ब्लाइट में जो पत्ते पर धब्बा होता है वह बहुत छोटा-छोटा होता है. अल्टरनेरिया लीफ ब्लाइट एक बीमारी है जिस पर फफूंदनाशक अच्छे से काम करता है, जबकि नेक्रोटिक लीफ ब्लॉच एक डिसऑर्डर है. इसके लिए पोषण प्रबंधन पर काम करना पड़ता है. उन्होंने आगे बताया कि यदि आप फंगीसाइड का इस्तेमाल करते हैं, तो ईवीडीसी ग्रुप फंगीसाइड का इस्तेमाल कर सकते हैं. ईवीडीसी ग्रुप जो भी फंगीसाइड हैं उसमें जिंक न्यूट्रिएंट पाया जाता है जो कि फलों के लिए सही होता है.
आगे उन्होंने बताया कि सेब रोग प्रबंधन किसानों के लिए थोड़ा मुश्किल क्यों है? इस पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने बताया कि फसल के विभिन्न चरणों में अनेक रोग लगते हैं. वही किसान फफूंदनाशकों का गलत समय पर किसान प्रयोग कर देते हैं. इसके अलावा, एक मौसम में एक ही फफूंदनाशक का बार-बार प्रयोग करते हैं. इस तरह से खराब रोग प्रबंधन से 70 से 80% उत्पादन की हानि होती है. ऐसे में यह जानना जरुरी हो जाता है कि सेब में बेहतर रोग प्रबंधन के लिए किन-किन बातों का ध्यान रखना चाहिए? वही सेब की फसल में आमतौर पर स्कैब, अल्टरनेरिया, पाउडरी मिल्ड्यू, मार्सोनिना, एन्थ्रोक्नोज बीमारियां लगती हैं. इन बीमारियों को नियंत्रित करने के लिए फंगीसाइड का बीमारी आने से पहले इस्तेमाल करना चाहिए. दूसरा बात जो भी एक से अधिक कॉन्बिनेशन के जो भी फंगीसाइड हैं उनका इस्तेमाल करना चाहिए ना कि जो सिंगल फंगीसाइड है उनका इस्तेमाल करना चाहिए. इसके अलावा, एक ही क्रियाविधि वाली फफूंदनाशक के अधिकतम तीन बार स्प्रे करना चाहिए. उसे ज्यादा बार इस्तेमाल नहीं करना चाहिए. बरसात या सूखे की स्थिति में रसायनों को छिड़काव नहीं करना चाहिए, क्योंकि ऐसी स्थिति में जो रसायन होते हैं वह पत्तों से नीचे आ जाते हैं. साथ ही फसल की अवस्था और रोग की तीव्रता के अनुसार रसायनों का चुनाव करें. इसके अलावा शारीरिक तनाव को कम करने के लिए ईवीडीसी ग्रुप के फंगीसाइड का उपयोग करें.
उन्होंने आगे बताया कि अन्य सभी बातों को ध्यान में रखते हुए बी.ए.एस.एफ की तरफ से स्प्रे के लिए कुछ शेड्यूल निर्धारित किया गया है जिसे बी.ए.एस.एफ स्मार्ट स्प्रे कार्यक्रम के तौर पर जाना जाता है. यह हमारे बगीचे की सुरक्षा भी करता है. इसके अलावा, बगीचे में जो समस्या होती है उसका निवारण भी करता है. एक्सपोर्ट के तौर पर माना जाता है. फिर उन्होंने बीएसएफ के स्प्रे शेड्यूल के बारे में विस्तार से बताया. इस दौरान उन्होंने बताया कि ग्रीन टिप और पिंक बड के स्टेज में हमें पॉलीराम का इस्तेमाल करना होता है. पेटल फॉल की अवस्था में हमें सेर्काडिस प्लस का इस्तेमाल करना होता है. पीनट की अवस्था में हमें कैब्रियो टॉप का इस्तेमाल करना होता है और वॉलनट की अवस्था में हमें मेरीवोन का इस्तेमाल करना होता है. जब भी फ्रूट डेवलपमेंट स्टेज हो या फिर फसल तुड़ाई से पहले वाला स्टेज हो उस समय जो स्प्रे किया है उस दौरान वहां पर हमें सिग्रम का इस्तेमाल करना होता है.
ग्रीन टिप और पिंक बड की अवस्था में पॉलीराम उत्पाद का इस्तेमाल क्यों करना चाहिए? इस सवाल के जवाब में उन्होंने बताया कि विभिन्न प्रकार की बीमारियों का इससे नियंत्रण होता है. इसके अलावा, इसके इस्तेमाल से फसल हरी दिखती है. इसमें अतिरिक्त जिंक की मात्रा 14% है. यह शररिक तनाव प्रबंधन में मदद करता है. इसका इस्तेमाल करने का सबसे बड़ा फायदा यह है कि यह डब्लूजी की फॉर्मूलेशन है यानी पानी में यह आसानी से फैल जाता है और फलों पर कोई दाग नहीं लगता है. आमतौर पर क्या होता है कि जब किसी दवा का हम छिड़काव करते हैं तो कुछ दाग सा दिखता है लेकिन के इस्तेमाल से कोई दाग नहीं दिखता. अगर डोज की बात करें तो 200 लीटर पानी में 600 ग्राम का इस्तेमाल होता है.
पेटल फॉल की अवस्था में सेर्काडिस प्लस उत्पाद का इस्तेमाल क्यों करना चाहिए? इस सवाल के जवाब में उन्होंने बताया कि यह स्कैब और पाउडरी मिल्ड्यू पर उत्कृष्ट प्रभाव करता है यानी इसके इस्तेमाल से बेहतरीन नियंत्रण होता है. इसके इस्तेमाल से नए पत्तों की उत्कृष्ट सुरक्षा होती है. साथ ही बारिश में भी उत्तम स्थिरता होती है यानी छिड़काव के कुछ घंटों बाद बारिश आ भी जाए तब भी यह काम करता है. अगर डोज की बात करें, तो 200 लीटर पानी में 80 मिली इस्तेमाल किया जाता है.
पीनट स्टेज की अवस्था में कैब्रियो टॉप उत्पाद का इस्तेमाल क्यों करना चाहिए? इस सवाल के जवाब में उन्होंने बताया कि कैब्रियो टॉप उत्पाद पर सेब उत्पादकों का 10 सालों से भरोसा है. यह उत्पाद अल्टरनेरिया लीफ स्पॉट का उत्कृष्ट नियंत्रण करता है. फल की वृद्धि और गुणवत्ता में भी यह सहायक होता है. वहीं अगर डोज की बात करें तो 200 लीटर पानी में इसका 200 ग्राम इस्तेमाल किया जाता है.
वॉलनेट स्टेज की अवस्था में मेरिवोन उत्पाद का इस्तेमाल क्यों करना चाहिए? इस सवाल के जवाब में उन्होंने बताया कि यह अवस्था जून अंत में मई में आती है. इस दौरान भारी बारिश हो रही होती है. इस दौरान सबसे ज्यादा मार्सोनिना बीमारी परेशान करती है. साथ ही साथ अल्टरनेरिया लीफ ब्लाइट की समस्या भी देख जाती है. इन दोनों बीमारियों पर मेरिवोन काफी अच्छे तरीके से तेज और लंबी अवधि तक नियंत्रण करता है. उन्होंने आगे बताया कि यह जो है प्रोडक्ट बहु आयामी रोग नियंत्रण करता है. इसके इस्तेमाल से पत्तियां हरी और स्वस्थ रहती हैं जो फल के गुणवत्ता को सुधारती हैं. वही अगर डोज की बात करें तो 200 लीटर पानी में 50 मिली का इस्तेमाल किया जाता है. डॉ. यशवंत सिंह परमार, बागवानी एवं वानिकी विश्वविद्यालय और हिमाचल प्रदेश सरकार की जो एप्पल एडवाइजरी है उसके द्वारा भी यही डोज अनुशंसित किया गया है.
फ्रूट डेवलपमेंट स्टेज हो या फिर फसल तुड़ाई से पहले वाले स्टेज में सिग्नम उत्पाद का इस्तेमाल क्यों करना चाहिए? इस सवाल के जवाब में उन्होंने बताया कि सिग्नम उत्पाद. रोगों पर दोहरा असर और उत्कृष नियंत्रण करता है. इसके इस्तेमाल से जो फल का आकार होता है वह बेहतर होता है. इसके अलावा यह कटाई के बाद पत्तियों का बेहतर संरक्षण करता है. अगर डोज की बात करें, तो 200 लीटर पानी में 120 ग्राम का इस्तेमाल किया जाता है. कुल मिलाकर यह चर्चा काफी प्रभावकारी रही.
वीडियो देखने के लिए लिंक - https://t.ly/1haaS
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