भारत में खेती के साथ-साथ पशुपालन पर भी जोर दिया जाता है. खेती के साथ पशुपालन से किसानों को अतिरिक्त आय का स्रोत मिलता है. ऐसे में पशुओं को स्वस्थ रखने के लिए उनका नियमित तौर पर टीकाकरण कराते रहना चाहिए. पशुओं को अन्य रोगों से रक्षा करने के अलावा उनका संक्रामक रोगों से बचाव भी बहुत अनिवार्य है. देश के कई राज्यों में भी एक पशु से दूसरे पशु को लगने वाली इन बीमारियों को रोकने के लिए पशुपालन विभाग द्वारा भी समय-समय पर टीकाकरण कार्यक्रम आयोजित किया जाता है. जिसका लाभ किसान भाई उठा सकते हैं.
पशुओं को होने वाले रोग
खुरपका मुंहपका रोग
यह बिमारी गाय, भैंस, बकरी, भेड़ एवं सूअर जैसे पशुओं में होती है. यह विषाणुजनित अत्यंत संक्रामक, छुतदार एवं अतिव्यापी रोग है. पशुओं में छोटी उम्र मे यह रोग होना काफी जानलेवा भी हो सकता है. संकर नस्ल के पशुओं में यह रोग तीव्रता से फैलता है. इस रोग से पशुओं को बुखार होने के बाद उनके मुँह व जीभ पर छाले पड़ जाते हैं, जिसके कारण पशुओं के मुँह से लार टपकता है. इससे बचाव के लिए पशुओं को टेटरावालेंट के टीके लगाए जाते हैं. यह पशुओं में 3 माह या उससे पहले लगाया जाता है. हालांकि इस रोग से पशु की मृत्यु तो नहीं होती, पंरतु दूध उत्पादन व पशु स्वास्थ्य पर काफी बुरा असर होता है. इससे बचाव के लिए वर्ष में एक बार टीका जरुर लगवाना चाहिए.
गलाघोंटू
इस रोग को घुड़का, नाविक बुखार, घोंटूआ, गरगति आदि नामे से भी जाना जाता है. गलाघोंटू रोग पश्चुरेला नामक जीवाणु से फैलता है और यह एक प्राणघातक संक्रमण है. इस रोग का अधिक प्रकोप गाय और भैंसों में होता है. इसके अलावा यह कभी-कभी ऊंट, बकरी और भेड़ में भी होता है. इस रोग के होने से ज्यादातर पशुओं की मृत्यु हो जाती है. मौसम में बदलाव और थकान से उत्पन्न तनाव के कारण पशुओं की प्रतिरोधक क्षमता में कमी आने से इस रोग की आशंका बढ़ जाती है.
इस रोग से बचाव के लिए एलम नाम के टीके का इस्तेमाल किया जाता है. जिसे 6 महीने के अंतराल पर लगाया जाता है. यह टीका अप्रैल-मई एवं अक्तूबर-नवम्बर के महीने में लगवाना जरुरी होता है, जो पशुओं की चमड़ी के नीचे लगाया जाता है.
संक्रमक गर्भपात
गाय और भैंस में ब्रूसेलोसिस नामक जीवाणु से होने वाला यह रोग मनुष्यों को भी हो सकता है. इसका संक्रमण मनुष्यों में दूध के द्वारा होता है. इस रोग से पशु की प्रजनन क्षमता समाप्त हो जाती है तथा गर्भित पशुओं को 6 से 9 महीने के बीच गर्भपात हो सकता है. इस रोग के कारण पशु स्वस्थ बच्चा नहीं कर पाता है. इस रोग से बचाव के लिए कोटन -19 स्ट्रेन नामक टीके को 4 से 8 महीने तक के पशुओं को लगाया जाता है.
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लंगड़ा बुखार
इस रोग को जहरवाद और काला बुखार के नाम से भी जाना जाता है. यह मुख्यतः गाय भैसों में पाया जाने वाला जिवाणु विष जनित रोग है, इस रोग में पशु के कंधे या पुट्ठे की मांसपेशियों में गैस भरी सुजन हो जाती है, जिसके कारण पशु लंगड़ाने लगते हैं. इसमें बुखार होने से पशुओं की मौत भी हो जाती है. यह रोग क्लोस्ट्रीडियम सेवियाई नमक जीवाणु से होता है. लंगड़ा बुखार समान्यतः कम आयु के गोवंशीय पशुओं का रोग है. इस रोग में पशुओं की मृत्यु दर बहुत अधिक होती है. इस रोग से बचाव के लिए साल में एक बार बरसात से पहले छोटे व बड़े पशुओं को चमड़ी के नीचे टीकाकरण अवश्य करवा लेना चाहिए.
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