
Pandharpuri Buffalo Breed: भारत में दूध उत्पादन का एक बड़ा हिस्सा भैंसों से प्राप्त होता है, और इस क्षेत्र में महाराष्ट्र की पंढरपुरी भैंस (Pandharpuri Buffalo Breed) का नाम प्रमुखता से लिया जाता है. यह नस्ल अपनी विशिष्टता, दूध उत्पादन क्षमता और स्थानीय अनुकूलन शक्ति के कारण जानी जाती है. पंढरपुरी भैंस मुख्य रूप से महाराष्ट्र के सांगली, सोलापुर और कोल्हापुर जिलों के विशिष्ट क्षेत्रों जैसे पंढरपुर, अक्कलकोट, सांगोला, मंगळवेढा, मिरज, करवीर, शिरोल, पन्हाला और राधानगरी तहसीलों में पाई जाती है. इन भैंसों की सबसे खास विशेषता उनकी लंबी, घूमी हुई और पीछे की ओर मुड़ी सींगें होती हैं जो इन्हें अन्य नस्लों से अलग पहचान देती हैं.
इन भैंसों का दूध दुहने की प्रक्रिया भी विशेष है. सामान्यतः किसान इन भैंसों को घर-घर ले जाकर ग्राहकों के सामने दूध निकालते हैं और पूरी मात्रा एक बार में नहीं दुहते. इस वजह से दुग्धन में लगभग 30-40 मिनट का समय लगता है. यह प्रणाली किसानों को प्रत्यक्ष ग्राहक से जुड़ने का अवसर देती है और ताजे दूध के लिए एक खास भरोसा भी बनाती है. ऐसे में आइए भैंस की देसी नस्ल पंढरपुरी (Pandharpuri Buffalo Breed) की पहचान और अन्य विशेषताओं के बारे में विस्तार से जानते हैं-
पंढरपुरी नस्ल की भैंस (Pandharpuri Buffalo Breed) कहां पाई जाती है?
पंढरपुरी भैंसों का नाम उनके मूल स्थान "पंढरपुर" से लिया गया है, जो महाराष्ट्र के सोलापुर जिले में स्थित है. भले ही यह नस्ल अभी तक किसी राष्ट्रीय नस्ल रजिस्टर में आधिकारिक रूप से दर्ज नहीं की गई हो, लेकिन यह क्षेत्रीय स्तर पर अच्छी तरह से पहचानी जाती है और बहुत से किसान इसके पालन-पोषण में रुचि रखते हैं. इन भैंसों को विशेष रूप से गर्म और शुष्क जलवायु के अनुकूल माना जाता है, जिससे यह महाराष्ट्र के पश्चिमी क्षेत्रों में सहज रूप से पाई जाती हैं.
पंढरपुरी भैंस की शारीरिक बनावट
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रंग: सामान्यतः काले रंग की होती हैं लेकिन हल्के काले से लेकर गहरे काले तक रंगों में पाई जाती हैं. कुछ भैंसों में माथे, पैरों और पूंछ पर सफेद निशान भी पाए जाते हैं.
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सींग: यह भैंस लंबी और घुमावदार सींगों के लिए प्रसिद्ध हैं. सींगों के तीन प्रमुख प्रकार हैं:
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भक्करड - पीछे की ओर और ऊपर की तरफ घुमी हुई.
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टोकी- ऊपर की ओर मुड़ी और बाहर की ओर घूमी हुई.
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मेरी - सिर से नीचे की ओर सीधी चलती हुई.
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नाक की हड्डी सीधी, लंबी और उभरी हुई होती है.
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मादा का औसत कद 130 सेमी होता है, जबकि शरीर की लंबाई 133 सेमी होता है.
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मादा का औसतन वजन 416 किलोग्राम होता है.
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बछड़े का जन्म के समय औसतन वजन 25.6 किलोग्राम होता है.
प्रजनन क्षमता और दूध उत्पादन
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पहली बार औसतन 43.8 महीने की उम्र में बछड़ा को जन्म देती है.
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प्रजनन चक्र का अंतराल लगभग 13.6 महीने होता है.
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एक ब्यांत में दूध उत्पादन औसतन 1790.6 लीटर होता है.
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दूध में वसा की मात्रा लगभग 8.01% होती है जोकि बाजार में दूध के अच्छे मूल्य निर्धारण में सहायक होती है.
यह भैंस नस्ल मध्यम दूध उत्पादन क्षमता वाली है, लेकिन इसके दूध में वसा प्रतिशत बहुत अधिक होता है, जिससे यह डेयरी उद्योग में उपयोगी बनती है.
पंढरपुरी भैंस का पालन-पोषण और देखभाल
पंढरपुरी भैंसों का पालन आमतौर पर स्थानीय स्तर पर जोशी, गवली और अन्य परंपरागत पशुपालकों द्वारा किया जाता है. ये भैंसें अधिकतर:
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इंटेंसिव सिस्टम में पाली जाती हैं, यानी इन्हें नियंत्रित रूप से रखा और खिलाया जाता है.
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इन्हें फसल अवशेष, सूखा चारा, हरा चारा, गेहूं की भूसी, मक्का, ज्वार, सरसों की खली, सूरजमुखी खली और मिक्स चारा (Concentrate Mixture) खिलाया जाता है.
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अधिकतर भैंसों को दूध देने से पहले अच्छे से चारा दिया जाता है ताकि दुहाई के समय वे शांति से रहें.
दूध निकालने की अनोखी पद्धति
पंढरपुरी भैंसों की दुहाई प्रक्रिया अनूठी होती है. किसान इन भैंसों को ग्राहकों के घर ले जाते हैं, जहां पर प्रत्यक्ष रूप से दूध निकाला जाता है. यह न केवल ताजे दूध की उपलब्धता सुनिश्चित करता है, बल्कि ग्राहक के साथ विश्वास भी बनाता है.
भैंस एक ग्राहक के यहां थोड़ी मात्रा में दूध देती है, फिर उसे दूसरे ग्राहक के यहां ले जाकर दुहाई की जाती है. यह प्रक्रिया 30-40 मिनट तक चल सकती है. यह प्रणाली कई दशकों से चली आ रही है और इसे किसान आज भी पारंपरिक रूप से अपनाते हैं.
पंढरपुरी भैंस के प्रमुख लाभ
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बहुउपयोगी नस्ल: दूध, खेती में काम, और बोझ ढोने जैसे कार्यों में सहायक.
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कम रखरखाव: सीमित संसाधनों में भी पालन संभव.
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वातावरण के अनुसार ढलने की क्षमता: शुष्क व गर्म वातावरण में जीवित रहने की अच्छी क्षमता.
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अच्छी गुणवत्ता वाला दूध: उच्च वसा वाला दूध, जिससे डेयरी उत्पादों जैसे घी, मावा, मक्खन आदि बनाना आसान होता है.
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प्राकृतिक रोग प्रतिरोधकता: यह भैंस सामान्य मौसमी बीमारियों से लड़ने में सक्षम होती है.
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स्थानीय बाजार में मांग: क्षेत्रीय स्तर पर दूध की गुणवत्ता के कारण अधिक मांग रहती है.
आज जब भारत में विदेशी नस्लों को बढ़ावा दिया जा रहा है, तब स्थानीय नस्लों का संरक्षण और प्रोत्साहन बहुत जरूरी है. पंढरपुरी जैसी नस्लें जो कि कम लागत में बेहतर परिणाम देती हैं, ग्रामीण अर्थव्यवस्था में स्थायित्व ला सकती हैं.
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