केला दुनिया के सबसे पुराने और लोकप्रिय फलों में से एक है. यह विश्व का दूसरा ऐसा फल है जिसकी खेती सबसे ज्यादा की जाती है. इसकी खेती भारत में सबसे ज्यादा की जाती है. भारत में यह धान, गेंहू एवं दुग्ध उत्पादों के बाद कुल उत्पादन की दृष्टि से चौथी महत्वपूर्ण खाद्य सामग्री है जिसका उत्पादन सबसे ज्यादा किया जाता है. इसकी गिनती हमारे देश के उत्तम फलों में होती है. इसको हिन्दू धर्म के मांगलिक कार्यों में भी विशेष दर्जा दिया गया है. गौरतलब है कि इसको अलग-अलग स्थान पर अलग-अलग नामों से जाना जाता है जैसे-असमिया में कोल, बंगला में काला, गुजराती में केला, कन्नड़ में बाले गिड़ा या बालेहन्नु, कोंकणी में केल, मलयालम में वझा, मराठी में कदलीद्व या केल, उड़िया में कोडोली या रोम्भा, तमिल में वझाई, तेलुगु में आसी, अंग्रेज़ी में बनाना (Banana) या प्लेण्टेन (Plantain) और लैटिन में म्यूसा पैराडाइजिएका (Musa paradisica) / म्यूजा सेपीएन्टम नाम से जाता है. देश के कुल फल उत्पादन में केला का हिस्सा 31.72 प्रतिशत है. इसकी खेती सम्पूर्ण उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में की जाती है.
भारत के मुख्य केला उत्पादक राज्य
भारत के मुख्य केला उत्पादक राज्यों में बिहार, तमिलनाडु, गुजरात और केरल है. जिनमे उत्पादन की दृष्टि से सबसे अव्वल राज्य तमिलनाडु है. एक अनुमान के मुताबिक भारत के बाद सबसे ज्यादा केला उत्पादक देश चीन और फिलीपींस है. जिनमे चीन दूसरे नंबर पर और फिलीपींस तीसरे नंबर पर है.
केला की किस्में (प्रजातियां)
मुख्य रूप से अच्छी पैदावार वाली केले की दो प्रकार की प्रजातियां पाई जाती है. जिसमे एक फल खाने वाली और दूसरा सब्जी बनाने वाली. जहां फल खाने वाली किस्मों में गूदा मुलायम, मीठा तथा स्टार्च रहित सुगंधित होता है जैसे कि हरी छाल, बसराई, रोवस्ट, ड्वार्फ,सालभोग,अल्पान तथा पुवन तो वहीं सब्जी बनाने वाली किस्मों में खाने वाले केले के अपेक्षा गुदा थोड़ा कड़ा स्टार्च युक्त तथा फल मोटे होते है जैसे कोठिया, बत्तीसा, मुनथन एवं कैम्पिरगंज, रोवेस्टा, ड्वार्फ कैवेंडिश, मालभोग.
केला की अनेक प्रजातियां है जिनकी अलग-अलग क्षेत्रों में खेती की जाती है. जिनमें मुख्यरूप से रोवस्टा, बत्तीसा, चिनिया, चम्पा, अल्पान, ड्वार्फ कैवेंडिश, मुठिया/कुठिया, G-9, विलियम्स तथा मालभोग है. केले की इन प्रजातियों के बारे में संक्षेप में जानकारी नीचे दी जा रही है.
ड्वार्फ कैवेंडिश
केले की यह सबसे प्रचलित एवं ज़्यादा पैदावार देने वाली किस्म है. केले में लगने वाला पनामा उकठा नामक रोग का भी इस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है. इस प्रजाति के पौधे अन्य प्रजातियों के अपेक्षा थोड़ा बौने होते हैं. इसके एक घौंद (गहर) का वजन औसतन 22-25 कि.ग्रा. का होता है जिसमें 160-170 फलियाँ (छीमी) होती हैं। इसके एक फली का वजन औसतन 150-200 ग्रा. होता है. यह पकने पर पीला हो जाता हैं.
रोवेस्टा
केले की इस प्रजाति का पौधा लम्बाई के मामले में ड्वार्फ कैवेंडिश से बड़ा होता है और इसकी घौंद का वजन ड्वार्फ कैवेंडिश के अपेक्षाकृत थोड़ा अधिक और सुडौल होता है. केले की यह किस्म पर्ण चित्ती रोग से अधिक प्रभावित होती है लेकिन पनामा उकठा रोग के प्रति पूर्णतया प्रतिरोधी है.
मालभोग
केले की यह किस्म अपने लुभावने रंग, सुगंध एवं स्वाद के लिए लोगों में सबसे ज़्यादा लोकप्रिय हैं लेकिन केले की इस किस्म पर पनामा उकठा नामक रोग का प्रभाव ज़्यादा पड़ता है. जिस वजह से फसल को हानि होती है। इसके पौधे थोड़े बड़े होते हैं। फल का आकार मध्यम और पैदावार औसतन होती है.
चिनिया चम्पा
केले के इस किस्म के फल खाने में स्वादिष्ट लेकिन केले के अन्य प्रजातियों के अपेक्षा इनके पौधे बड़े और फल छोटे होते हैं. इस किस्म के केले को वर्षभर उगाया जाता है.
बत्तीसा
केले का यह किस्म सब्जी के लिये काफी मशहूर है. इसकी घौंद काफी लम्बी होती है. इसके एक घौंद में औसतन 250-300 फलियाँ होती हैं.
अल्पान
केले की इस किस्म की खेती वैशाली क्षेत्र में मुख्य रूप से की जाती है. इस किस्म के पौधे लम्बाई में बड़े होते हैं. जिस पर लम्बी घौंद लगती है लेकिन फल का आकार छोटा होता है. फल पकने पर पीले एवं स्वादिष्ट होते हैं जिसे केले के अन्य किस्मों के अपेक्षा थोड़ा ज़्यादा समय के लिए बिना खराब हुए रखा जा सकता है.
मुठिया / कुठिया
केले का यह किस्म काफी उपजाऊ होता है. इसकी उपज पानी के अभाव में भी औसतन अच्छी हो जाती है. इसके फल मध्यम आकार के होते है. जिनका उपयोग कच्ची अवस्था में सब्जी के लिए एवं पकने पर खाने के लिये किया जाता है. इसका स्वाद सिंपल होता है.
खेती की जमीन
केले की की खेती के लिए ऐसी जगह चुने जहां जल निकासी हों क्योंकि वैसे तो केले को बहुत अधिक पानी की आवश्यकता होती है, लेकिन अगर जल निकासी सही न हो तो केले की जड़े सड़ने लगती हैं और पौधे सूखकर जमीन पर गिरने लगते है.
खेती की तैयारी
केले की खेती करने से पहले खेती करने वाले जमीन पर मई के महीने में गहरी जुताई वाले हल से 3 से 4 बार गहरी जुताई करके जमीन को फसल लगाने लायक तैयार कर लिया जाता हैं. उसके बाद से खेत को समतल कर लिया जाता हैं ताकि खेत के किसी भी हिस्से में अधिक पानी का जमाव न हों क्योंकि केले की फसल को बहुत अधिक पानी की आवश्यकता होती है, लेकिन अगर जल निकासी सही से न हो तो केले की जड़े सड़ने लगती हैं
पौधों की रोपाई
केला के खेती के दौरान केले की बड़े पौधे की रोपाई नहीं करके केले के पुत्तियों की रोपाई की जाती है. पुत्तियो का रोपण जून माह तक किया जाता है. इन पुत्तियों की पत्तियां काटकर रोपाई तैयार गढ़ढो में की जाती हैं. पुत्तियों की रोपाई के बाद खेत में पानी छोड़ा जाता है ताकि सभी पुत्तियों की जड़े जमीन को सही ढंग से पकड़ ले और उखड़े नहीं.
सिंचाई
केले की फसल की सिंचाई जिस जगह पर खेती की गई है उस पर और मौसम पर निर्भर करती हैं. अगर वर्षा 3-4 दिन में नहीं हो रही है तो फसल की सिंचाई कर देनी चाहिए. ठंडी में सिचाई 10-12 दिन और गर्मी में 6-7 दिन पर करनी चाहिए.
निराई - गुड़ाई
केले के खेत के आवश्यकता मुताबिक उसमें से जो बेकार या हानिकारक पौधे है उन्हें खेत से बाहर निकल देना चाहिए जिससे पौधे को हवा और धूप मिले सके और पौधा हरा-भरा रहे.
केले में लगने वाले रोग
केले की फसल में कई तरह के रोग लगते है जिनमें से जड़ गलन, पर्ण चित्ती या लीफ स्पॉट, पत्ती गुच्छा रोग, एन्थ्रक्नोज एवं तनागलन हर्टराट आदि प्रमुख रोग है.
गुजरात के वडोदरा जिले के नंदेरीया नामक गांव में रहने वाले 'योगेश नरेन्द्रभाई पुरोहित' वहां के केला की खेती करने वाले किसानों में से एक जाने जाते है. जिनकी कुलभूमि 20 एकड़ हैं. जिसमे से वो 16 एकड़ जमीन पर केला समेत अन्य फसलों की खेती करते है और अन्य 4 एकड़ जमीन पर पेड़ों की बागानी के साथ-साथ पशुओं के लिए चारा की खेती करते है. 'योगेश नरेन्द्रभाई पुरोहित' के मुताबिक पहले वह नौकरी करते थे लेकिन अच्छी सैलरी न होने के वजह से वो नौकरी को छोड़कर खेती को ही रोजगार को साधन बना लिये जिसमें उनको अब भारी मुनाफ़ा भी हो रहा हैं. 'योगेश नरेन्द्रभाई पुरोहित' के मुताबिक, उन्होंने साल 2008 से ही जैविक खेती को अपनाया है. उन्होंने सिर्फ 2 बीघे से खेती की शुरुआत किया. आज वो पूरी तरह से अपने सभी जमीनों पर जैविक खेती करते है.
उन्नत किस्म की बीज
किसान 'योगेश नरेन्द्रभाई पुरोहित' के मुताबिक, इस समय G-9 और विलियम्स केले की उन्नत किस्म का पौधा है. उनके साथ-साथ वडोदरा जिले के ज़्यादातर किसान केले की इन्हीं किस्मों की खेती कर रहे है.
खेती करने का समय
आमतौर पर केले की खेती दो सीजन मई-जून, अगस्त-सितंबर में किया जाता है. जिसमे किसान 'योगेश नरेन्द्रभाई पुरोहित' अगस्त-सितंबर वाले सीजन में खेती करते हैं.
1 एकड़ खेती में लागत
किसान 'योगेश नरेन्द्रभाई पुरोहित' के मुताबिक, G-9 या विलियम्स केले की एक एकड़ में 1400 पौधों की बुआई होती है. जिनमे से एक पौधे की कीमत नर्सरी से लेने पर 14 रुपए पड़ता है. ऐसे में 1 एकड़ जमीन पर केले की खेती करने पर पौधों की कीमत में लागत औसतन 20000 रूपये आता है. किसान 'योगेश नरेन्द्रभाई पुरोहित' के मुताबिक, केले कि केमिकल विधि से खेती करने पर एक एकड़ में बीज के अलावा 90000 से 1000 00 रुपये लागत आता है तो वहीं जैविक विधि से खेती करने पर 50000 से 60000 तक औसतन लागत आता हैं.
मुनाफ़ा
किसान 'योगेश नरेन्द्रभाई पुरोहित' के मुताबिक, केले के एक पौधें से औसतन 1.5 (30 किलों) कैरेट फल मिल जाता है. जिसकी बाजार में औसतन कीमत 250 से 300 रुपये कैरट होता हैं. कभी-कभी बाजार में मंदी के वजह से इसकी कीमत 100 रुपये कैरेट भी हो जाता है.
विवेक कुमार राय, कृषि जागरण
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