कपास व्यावसायिक जगत में सफ़ेद स्वर्ण के नाम से जानी जाने वाली मालवेसी कुल की एक महत्वपूर्ण नकदी फसल है. यह फसल कृषि और औद्योगिक अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है. वर्तमान समय में कपास की खेती देश के सिंचित और असिंचित चैत्र में बड़े पैमाने पर की जाती है.
भारत में कपास की खेती मुख्यत: तीन भागों में विभाजित है, उत्तरी क्षेत्र, मध्य क्षेत्र और दक्षिणी क्षेत्र. उत्तरी क्षेत्र में पंजाब, हरियाणा और राजस्थान, मध्य क्षेत्र में मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात व दक्षिणी क्षेत्र में, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और कर्नाटक शामिल हैं. पंजाब और हरियाणा में उगाई जाने वाली कपास में गॉसिपियम हिर्सुटम (अमेरिकी कपास) और गॉसिपियम अर्बोरियम (देसी कपास) सबसे अधिक प्रचलित है. विभिन्न जैविक और अजैविक कारक कपास के उत्पादन को प्रभावित करते हैं, विभिन्न जैविक कारकों में से सूत्रकृमि की महत्वपूर्ण भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता है.
उत्तरी भारत में जड़ गाँठ सूत्रकृमि, मेलॉइडोगाइनी इनकॉग्निटा खरीफ मौसम में बोई जाने वाली कपास की फसल का एक महत्वपूर्ण सूत्रकृमि है. यह सूत्रकृमि पौधों की जड़ों में घुसकर उनसे अपना भोजन प्राप्त करते हैं, जिसके कारण पौधों की वृद्धि रुक जाती है. फसल में जड़ों पर गांठों का होना जड़ गांठ सूत्रकृमि का एक प्रमुख लक्षण है. सर्वेक्षण से पता चला है कि इस सूत्रकृमि की समस्या लगातार कपास की फसल में बढ़ती जा रही है. यह सूत्रकृमि कपास फसल की उपज में 20.5 प्रतिशत हानि व् 4717.05 मिलियन मौद्रिक नुकसान पहुंचाता है, जिसकी दृष्टि से कपास का आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण और सबसे हानिकारक शत्रु है.
सूत्रकृमि का जीवन चक्र
कपास की बुवाई का समय अलग-अलग क्षेत्रों में काफी भिन्न होता है जैसे उत्तरी भारत में आम तौर पर अप्रैल-मई में कपास की बिजाई की जाती है. जिस मौसम के दौरान कपास बोई जाती है, उस दौरान इस सूत्रकृमि की आबादी तेजी से बढ़ती है और फसल में पीले रंग के धब्बे कहीं-कहीं दिखाई पड़ने लगते हैं, क्योंकि सूत्रकृमि के विकास के लिए अनुकूल परिस्थितियां कपास की फसल के लिए पर्यावरण की आवश्यकता के साथ मेल खाती है, जिससे सूत्रकृमि की जनसंख्या में तीव्र गति से वृद्धि होती है.
जड़ों पर गाँठ क्रमश: हाइपरट्रॉफी (पादप कोशिका के आकार में वृद्धि) व हाइपरप्लासिया (पादप कोशिकाओं के विभाजन में वृद्धि) के कारण होती है. द्वितीय डिम्भक अवस्था और नर को छोड़कर, जीवन के अन्य सभी चरण जड़ में रहते हैं व जड़ों पर गांठे बनाते हैं. कपास पर इसका जीवन काल (अंडे से वयस्क ) 25 से 30 दिन में पूरा होता है. प्रत्येक मादा लगभग 300-400 अंडे देती है, जिसे एग मास कहा जाता है.
सूत्रकृमि से प्रभावित फसल के लक्षण
जड़ों पर गांठें बनना ही इस सूत्रकृमि का मुख्य लक्षण है. ग्रस्त पौधे की जड़ों पर छोटी-छोटी गांठें बन जाती हैं, जिनके कारण पौधे में भोजन व जल सुचारु रूप से नहीं पहुंच पाते व पौधा बौना रह जाता है.
पत्तियां पीली पड़ जाती है. पौधे पर फल व टिंडे बहुत कम मात्रा में लगते हैं. सूत्रकृमि के द्वारा पौधे की आंतरिक संरचना में बदलाव के कारण अन्य रोगाणु भी जड़ पर आसानी से आक्रमण कर देते हैं, जिसके कारण जड़ें गल जाती हैं. फलस्वरूप पौधा सूख जाता है और पैदावार कम हो जाती है.
सूत्रकृमि का प्रबंधन
फसल की उपज व गुणवत्ता में हानि को रोकने और सूत्रकृमियों की आबादी को आर्थिक सीमा स्तर से नीचे रखने के लिए कपास की फसल में निम्नलिखित उपाय अपनाने चाहिए.
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कपास की फसल में इस सूत्रकृमि को नियंत्रित करने का अच्छा तरीका है -जून जुलाई में गहरी जुताई करना चाहिए, क्योंकि इन महीनों में तापमान अधिक होता है, जो सूत्रकृमि को मारने में सहायक है.
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फसल चक्र में ऐसी फसलें उगायें, जो इस सूत्रकृमि की मेजबानी न करें अर्थात सूत्रकृमि से ग्रस्त खेत में ऐसी फसल उगायें, जिन पर यह सूत्रकृमि आक्रमण नहीं कर सकता उदाहरणतया: ज्वार, बाजरा और मक्का.
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खेत को खरपतवार रहित रखें, क्योंकि यह सूत्रकृमि बहुत सी खरपतवार पर भी पनपता है.
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ग्लुकोनोएसिटोबैक्टर डाई एजोटो ट्रॉफिक्स स्ट्रेन 35-47 (बायोटिका) @ 50 मि.ली./5 किग्रा के साथ कपास के बीज का उपचार करें.
लेखक
सुजाता, श्वेता व बबिता कुमारी
सूत्रकृमि विज्ञान विभाग
चौ. चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय, हिसार
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