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रेशम कीट पालन आय का एक अतिरिक्त स्रोत

हमारा देश रेशम उत्पादन में दूसरे स्थान पर है. जैसा कि आप जानते हैं कि रेशम विश्व में सबसे अधिक सुदंर रेशा होता है. जिसके चलते किसान इसकी खेती से अधिक से अधिक लाभ प्राप्त करते हैं.

KJ Staff
Sericulture as an additional source of income
Sericulture as an additional source of income

रेशम कीट पालन के वैज्ञानिक अध्ययन को सेरीकल्चर के नाम से जाना जाता है। इस प्रक्रिया के अंतर्गत रेशम के कीट का प्रजनन, विकास, प्रबंधन एवं विपणन आदि सम्मलित है। विभिन्न शोध ग्रंथो के अनुसार विश्व में सर्वप्रथम रेशम कीट पालन 118 ई० पू० (नवपाषाण काल) में चीन देश ने शुरुआत की, इसके तत्पश्चात् यह अन्य देशों के प्रचलन में आया। 

हमारा भारतवर्ष रेशम उत्पादन में चीन के पश्चात् दूसरे स्थान पर आता है एवं कच्चे रेशम के उत्पादन में भारत का कर्नाटक (मैसूर) राज्य अग्रणी है। प्रायः भारत रेशम का प्रमुख उपभोक्ता देश है। रेशम दुनिया का सबसे सुंदर रेशा है। इसके द्वारा बनाए गए वस्त्र काफी मूल्यवान होते हैं, क्योंकि इसके रेशे में अद्वितीय भव्यता, प्राकृतिक चमक और रंगों के लिए अंतर्निहित आकर्षण, उच्च अवशोषण, हल्का वजन, कोमल स्पर्श और उच्च स्थायित्व होता है। इसे विश्व में “वस्त्रों की रानी” के रूप में भी जाना जाता है। दूसरी ओर, यह उच्च रोजगार उन्मुख, कम पूंजी गहन और इसके उत्पादन की पारिश्रमिक प्रकृति के कारण लाखों लोगों के लिए आजीविका का अवसर है। ग्रामीण आधारित ऑन-फार्म और ऑफ-फार्म गतिविधियों और वृहद रोजगार सृजन क्षमता के साथ इस उद्योग की प्रकृति ने योजनाकारों और नीति निर्माताओं का ध्यान आकर्षित किया है, ताकि उद्योग को सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए सबसे उपयुक्त तरीकों में से एक के रूप में पहचाना जा सके।

रेशम भारतीयों के जीवन और संस्कृति से जुड़ा हुआ है। रेशम उत्पादन और इसके रेशम व्यापार में भारत का एक जटिल और समृद्ध इतिहास रहा है, जोकि, 15वीं शताब्दी का है। रेशम पालन उद्योग भारत के ग्रामीण और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में लगभग 8.7 मिलियन लोगों को रोजगार प्रदान करता है। इसमें श्रमिकों के रूप में महिलाओं का भी प्रमुख योगदान रहता है, जिससे आर्थिक रूप से कमजोर परिवारों के जीवन यापन में राहत मिलती है। 

भारत की परम्परा और संस्कृति से बंधे घरेलू बाजार और भौगोलिक विशिष्टता को दर्शाने वाले रेशमी कपड़ों की अद्भुत विविधता ने देश को रेशम उद्योग में अग्रणी स्थिति हासिल करने में मदद की है। भारत को एकमात्र ऐसा देश होने का अनूठा गौरव प्राप्त है, जो सभी पांच ज्ञात वाणिज्यिक रेशम, अर्थात्, शहतूत रेशम, उष्णकटिबंधीय टसर, ओक टसर, एरी और मूंगा का उत्पादन करता है, जिनमें से सुनहरे पीले रंग की चमक वाला मूंगा अद्वितीय और भारत का एकाधिकार (मोनोपॉली) है।

शहतूत रेशम उत्पादन मुख्य रूप से कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, असम और बोडोलैंड (असम के कोकराझार, चिरांग, बक्सा और उदलगुरी जिले), पश्चिम बंगाल, झारखंड और तमिलनाडु जैसे राज्यों में किया जाता है, जो देश के प्रमुख रेशम उत्पादक राज्य हैं। भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र में रेशम की चार किस्मों यथा शहतूत रेशम, ओक टसर, मूंगा और एरी का उत्पादन करने वाला एकमात्र क्षेत्र होने का अनूठा गौरव प्राप्त है। कुल मिलाकर पूर्वोत्तर क्षेत्र भारत के कुल रेशम उत्पादन में 18% का योगदान देता है।

भारत दुनिया में रेशम का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है। 2020-21 में उत्पादित रेशम की चार किस्मों में, शहतूत रेशम कुल कच्चे रेशम का 70.72% (23,860 मीट्रिक टन), टसर 8.02% (2,705 मीट्रिक टन), एरी 20.55% (6,935 मीट्रिक टन) और मूंगा 0.71% (239 मीट्रिक टन) है।

वर्ष 2020-21 के दौरान देश में कुल कच्चे रेशम का उत्पादन 33,739 मीट्रिक टन था, जो पिछले वर्ष 2019-20 के दौरान प्राप्त उत्पादन से 5.8% कम था और वर्ष 2020 के वार्षिक रेशम उत्पादन लक्ष्य के मुकाबले लगभग 86.5% उपलब्धि दर्ज की गई थी। बाइवोल्टाइन कच्चे रेशम का उत्पादन 2019-20 के दौरान 7,009 मीट्रिक टन से 2020-21 के दौरान 3.4% घटकर 6,772 मीट्रिक टन हो गया। इसी तरह, वन्य रेशम, जिसमें टसर, एरी और मूंगा रेशम शामिल हैं, 2019-20 के मुकाबले 2020-21 के दौरान क्रमशः 13.8%, 3.7% और 0.8% कम हो गए हैं। शहतूत रेशम का क्षेत्रफल पिछले वर्ष की तुलना में 2020-21 में 0.8% (2.38 लाख हेक्टेयर) कम हो गया है। 2020-21 के दौरान निर्यात आय 1418.97 करोड़ रु0 था। 2019-20 में 9.4 मिलियन व्यक्तियों की तुलना में 2020-21 के दौरान देश में रेशम उत्पादन के तहत अनुमानित रोजगार सृजन 8.7 मिलियन व्यक्ति था।

घरेलू खपत के साथ-साथ निर्यात बाजार के लिए मूल्य वर्धित रेशम उत्पादों के लिए भारत में बेहतर गुणवत्ता वाले बाइवोल्टाइन रेशम की मांग बढ़ रही है। भारत सरकार का कपड़ा मंत्रालय और विभिन्न राज्यों में रेशम उत्पादन विभाग द्विपक्षीय रेशम उत्पादन को बढ़ाने के लिए तकनीकी और वित्तीय सहायता प्रदान करते हैं।

भारतीय रेशम के भौगोलिक संकेत:

बालूचरी साड़ी– पश्चिम बंगाल, सलेम रेशम– तमिलनाडु, अरण्डी रेशम – तमिलनाडु, मोलकलमुरु साड़ी– कर्नाटक, इल्कल साड़ी – कर्नाटक, मूंगारेशम– असम, उड़ीसा इकत – ओडिशा, कांचीपुरम रेशम– तमिलनाडु, मैसूर रेशम – कर्नाटक, चंदेरी कपड़ा– मध्य प्रदेश

रेशम कीट के प्रकार:

रेशम-कीट की कई प्रजातियाँ हैं जो वाणिज्यक दृष्टिकोण से रेशम का उत्पादन कर सकती हैं, लेकिन केवल कुछ का ही मनुष्य द्वारा इस उद्देश्य के लिए उपयोग किया गया है। मुख्य रूप से चार प्रकार के रेशम की पहचान की गई है।

1.बाह्य (आउटडोर) रेशम:

(i) टसर रेशम (एंथीरिया मिलिट्टा):

गण: लेपिडोप्टेरा

कुल: सैटरनिडी

पोषक पौधे: साल (शोरिया रोबस्टा), असान (टर्मिनालिया टोमेंटोसा), बेर (जिजीफस जुजुबे), अर्जुन(टर्मिनालिया अर्जुना)

टसर रेशम कीट आमतौर पर बंगाल के जंगलों में पाए जाते हैं। इसे असम और उत्तर प्रदेश में नहीं पाला जाता है। इसके कोकून कठोर हल्के भूरे से गहरे रंग के होते हैं और इन्हें जंगल से एकत्र किया जाता है। उन्हें रील किया जाता है। रेशम के कीड़े की एक अन्य प्रजाति (एंथेरा प्रोयली) हिमालय के तराई क्षेत्र में ओक पर पाई जाती है, जिसके कोकून सख्त और सफेद रंग के होते हैं। उष्णकटिबंधीय टसर रेशम उत्पादन भारत में एक पुराना उद्योग है और आज भी, यह प्रति वर्ष कुल गैर शहतूत रेशम उत्पादन का लगभग 90.95% योगदान देता है।

(ii) मूंगा रेशम (एंथीरिया एस्सामेंसिस):

गण: लेपिडोप्टेरा

कुल: सैटरनिडी

पोषक पौधे: सोम (मेंचिलस बॉम्बिसिना), सोलू (लिट्सिया पोलीऐंथा)

यह रेशम कीट बिहार, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा और असम में पाया जाता है और इसे पाला नहीं जा सकता है। इसके कोकून को रील किया जाता है और यह चमकीले पीले रंग का होता है, जिससे सुनहरे पीले रंग का रेशम प्राप्त होता है।

(i) एरी रेशम (फिलोसामिया रिसिनी):

गण: लेपिडोप्टेरा

कुल: सैटरनिडी

पोषक पौधे: अरंडी (रिसिनस कम्यूनिस), कशेरू (हेटेरोपैनेक्स फ्रेगरेंस)

यह रेशम का कीड़ा मुख्य रूप से असम के जंगलों में पाया जाता था, लेकिन अब यह बंगाल, बिहार, यूपी, उड़ीसा और मद्रास में भी पाया जाता है। जैसा कि इसके वैज्ञानिक नाम से संकेत मिलता है, यह अरंडी के पत्तों को खाता है और पूरे देश में जहां अरंडी उगाई जाती है, वहां इस प्रजाति को पाला जाता है। इसके कोकून को रील नहीं किया जा सकता है, इसलिए, काता जाना पड़ता है।

(ii) शहतूत रेशम (बॉम्बिक्स मोराई):

गण: लेपिडोप्टेरा

कुल: बॉम्बिसिडी

पोषक पौधे: शहतूत (बॉम्बिक्स मोराई)

यह सबसे महत्वपूर्ण रेशम कीट है और भारत के विभिन्न भागों में बड़े पैमाने पर पाला जाता है। शहतूत रेशम भारत में उत्पादित कुल रेशम का 95% हिस्सा है। इसका कैटरपिलर शहतूत की पत्तियों को खाता है। इसका कोकून सफेद क्रीमी रंग के होते हैं जिससे उत्तम किस्म का रेशम प्राप्त होता है। शहतूत रेशम कीट की कई नस्लें हैं जिन्हें दो श्रेणियों में बांटा जा सकता है, जैसे कि एकलप्रज और बहुप्रज। एकलप्रज का एक वार्षिक जीवन-चक्र होता है, जबकि बहुप्रज प्रजाति एक वर्ष में कई पीढ़ियों से गुजरती है। बहुप्रज प्रजाति रेशम की निम्न गुणवत्ता का उत्पादन करती है और बंगाल, असम और मैसूर में पाली जाती है।

शहतूत के रेशम  कीट का जीवन चक्र:

शहतूत रेशम का कैटरपिलर मलाईदार सफेद रंग का होता है, जिसकी लंबाई लगभग 30 मिमी और इसके पंख का फैलाव 40-50 मिमी होता है। इसका नर मादा से छोटा होता है। इसका सिर छोटा होता है और एक जोड़ी काली आंखें और द्विभाजित एंटीना होता है। शलभ का मुख अल्पविसित होता है, इसलिए भोजन नहीं करपाता तथा 2 से 3 दिन ही जीवित रहता है। वक्ष का अग्र भाग पश्च भाग की तुलना में संकरा होता है। अगले पंखों पर भद्दे गहरे रंग की धारियाँ होती हैं और शरीर बालों से ढका होता है। शहतूत रेशम के कीड़े की मादाओं में 8 और 9 उदर खंड पर दूधिया सफेद धब्बों की एक जोड़ी होती है जिसे इशिवाता की ग्रंथि कहा जाता है। शहतूत रेशम के कीड़े के नर में 8 और 9 खण्डों के केंद्र में हेरोल्ड ग्रंथि होती है  मादा प्यूपा बड़ी होता है और 8 उदर खण्डों के अधर भाग पर ‘x’ का निशान होता है, बॉम्बेक्स मोरी के विकास के लिए इष्टतम स्थिति 20-28 डिग्री सेल्सियस, 70-85% सापेक्षिक आर्द्रता है।

अण्डा अवस्था:

रेशम कीट की मादा रात में अंडे शहतूत की पत्तियों की निचली सतह पर गुच्छों में लगभग 300-400 देती है। जिसे रेशम के बीज कहा जाता है। अंडे छोटे, हल्के सफेद और दिखने में बीज के आकार जैसे होते हैं। फूटने के समय ये काले हो जाते हैं और गर्मियों में 10-12 दिनों में और सर्दियों में 30 दिनों में फूट जाते हैं। बहुप्रजीय जाति में 2-7 पीढि़यां पाई जाती हैं।

लार्वा (कैटरपिलर अवस्था):

अण्डे से निकलने के बाद कैटरपिलर, सफेद से गहरे रंग का और लगभग 3 मिमी लंबाई का होता है। 3 जोड़ी वक्षीय टांगें और 5 जोड़ी उदरीय टांगें होती हैं, जो कि 3, 4, 5, 6 और 10वें उदर खंडों पर जुड़ी होती हैं। पृष्ठीय रीढ़ के रूप में जाना जाने वाला एक सींगदार उपांग आठ उदर खंडों की पृष्ठीय सतह पर पाया जाता है। युवा कैटरपिलर को 25-27 डिग्री सेल्सियस पर शहतूत की कोमल पत्तियों पर ट्रे में पाला जाता है। प्रतिदिन 3-4 बार थोड़ी-थोड़ी पत्तियों के साथ दाना देना चाहिए। 5वें दिन के बाद जब वे बड़े हो जाते हैं, तो उनके ऊपर छोटी जाली  लगा दी जाती है और रसीले पत्तों को जाल के ऊपर चढ़ा दिया जाता है। भोजन प्राप्त करने पर लार्वा जाल की जाली के माध्यम से ऊपर रेंगते हैं। लगभग 2 घंटे के बाद, जाल को उठाकर दूसरी ट्रे पर रख दिया जाता है। अनुपयोगी शहतूत के पत्तों के साथ इल्लियों को निकाल कर फेंक दिया जाता है। लार्वा प्रत्येक 6-7 दिनों के बाद 4-5 बार निर्मोचन करता है और 30-35 दिनों में परिपक्व हो जाता है। ठंडे देशों में इसे पूर्ण विकसित होने में कई महीने लग जाते हैं। पूर्ण विकसित कैटरपिलर क्रीमी सफेद रंग का और लगभग 75 मिमी लंबा होता है। परिपक्व कृमियों को उठाकर कोकूनिंग टोकरियों में रखा जाता है। वे आम तौर पर 25 घंटे के भीतर कोकून बना लेते हैं।

कोकून (कोषावस्था):

कोकून लंबाई में 38 मिमी और चौड़ाई में 19 मिमी, आकार में अंडाकार और सफेद या पीले रंग का होता है। लार्वा कोकून के अंदर कोषावस्था बनाता है जो एक ही धागे से बना होता है। यह एक घंटे में करीब 15 सेमी धागा बनाता है। कोकून के अंदर प्यूपा लाल-भूरे रंग का होता है और 25 मिमी × 7 मिमी लंबा होता है। प्यूपा काल 10-15 दिनों तक रहता है। व्यस्क के निकलने के समय यह एक क्षारीय द्रव का स्राव करता है जो कोकून को भेदकर बाहर निकल आता है। रेशम की अच्छी गुणवत्ता प्राप्त करने के लिए पतंगों को बाहर नहीं निकलने दिया जाता है, लेकिन कोकून के अंदर प्यूपे को धूप में गर्म करके या कोकून बनने के 10 दिनों के बाद उबलते पानी में डालकर मार दिया जाता है। इस प्रक्रिया को स्टिफिंग के नाम से जाना जाता है। गर्म पानी में डुबाने से कोकून नरम हो जाता है और इसलिए रेशम के धागे का एक सिरा आसानी से निकाला जा सकता है। वे कोकून जो आगे पालने के लिए होते हैं उन्हें ठंडे स्थान पर अलग से रखा जाता है। कुछ शलभों को अंडे देने के लिए बाहर निकाला जाता जिससे की द्वारा रेशम प्राप्त किया जा सके। यह अनुमान लगाया गया है कि 28 ग्राम रेशम बीज में से लगभग 40-50 हजार कैटरपिलर निकलते हैं, उन्हें अपने विकास के दौरान लगभग 337 से 406 किलोग्राम पत्तियों की आवश्यकता होती है।

एक रेशमकीट का लार्वा 650-1300 मीटर रेशम के धागे का उत्पादन कर सकता है। डेनियर ‘रेशम के धागे की मोटाई या महीनता को मापने की इकाई है। 9000 मीटर धागे का वजन ग्राम में एक डेनियर होता है।  डेनियर की वैल्यू 1.7 से 2.8 ग्राम के बीच होती है। 2500 कोकून से 1 पौंड (पाउंड)/0.45 किलोग्राम रेशम प्राप्त होता है। 7-8 किलो कोकून से 1 किलो कच्चा रेशम प्राप्त होता है।

रेशम कीट से संबंधित प्रमुख संस्थान: 

  • केंद्रीय रेशम बोर्ड,बैंगलोर- 1948

  • केंद्रीयरेशम प्रौद्योगिकी अनुसंधान संस्थान, बैंगलोर

  • केंद्रीयरेशम अनुसंधान एवं प्रशिक्षण संस्थान, मैसूर

  • केंद्रीयरेशम अनुसंधान एवं प्रशिक्षण संस्थान (CSIR), बेरहामपुर (उड़ीसा)

  • केंद्रीयटसर अनुसंधान एवं प्रशिक्षण संस्थान, रांची (झारखंड)- 1964

  • केंद्रीय मूंगा,एरी अनुसंधान एवं प्रशिक्षण संस्थान, तीतीबार (असम)- 1972

  • केंद्रीय रेशम जननद्रव्य संसाधन केंद्र, होसुर (तमिलनाडु)- 1990

लेखक- अरुण कुमार1*, राम सिंह उमराव2, आशुतोष सिंह अमन3, मदन मोहन बाजपेयी4 एवं माधुरी वर्मा5

1,3,4शोध छात्र (पी०एच०डी०), कीट विज्ञान विभाग, चंद्रशेखर आजाद कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय, कानपुर (उ० प्र०) 208002

2सहायक प्राध्यापक, कीट विज्ञान विभाग, चंद्रशेखर आजाद कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय, कानपुर (उ० प्र०) 208002

5स्नातकोत्तर छात्रा (एम०एस०सी०), कीट विज्ञान विभाग, बुंदेलखंड विश्वविद्यालय, झांसी (उ० प्र०) 284128

संवादी लेखक- अरुण कुमार 
-मेल आई०डी०- arunkumarbujhansi@gmail.com

English Summary: Sericulture as an additional source of income Published on: 21 May 2023, 12:20 PM IST

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