
किसानों द्वारा लगभग 65 - 70% क्षेत्र में खुर्रा (सुखा बुवाई) बुवाई की जाती है, जिसके लिए खेतों को पहले से तैयार रखना पड़ता है. ऐसी स्थिति में ग्रीष्मकालीन जुताई सबसे अच्छा विकल्प मानी जाती है, क्योंकि यह किसानों के लिए दोहरे फायदे का कारण बनती है. ग्रीष्मकालीन भूमि की जुताई करना फसल की उपज में सुधार करने के साथ-साथ पर्यावरणीय प्रभाव को भी कम करता है. रिपोर्ट के अनुसार, भारत में लगभग 20% कृषि भूमि ग्रीष्मकालीन जुताई से लाभान्वित होती है. शोध में यह पाया गया है कि ग्रीष्मकालीन जुताई से भूमि की उर्वरता 15-20% तक बढ़ सकती है, और इसके कारण खरपतवारों और कीटों के प्रभाव में भी कमी आती है. खरीफ मौसम की फसल की कटाई के बाद, यदि रबी मौसम की बुवाई नहीं करनी हो, तो खेतों की जुताई करके छोड़ देना चाहिए, और रबी की फसल की कटाई के बाद भी भूमि की जुताई करके छोड़ देनी चाहिए.
रिसर्च के अनुसार यह पाया गया है कि ग्रीष्मकालीन जुताई करने से खरपतवार और कीटों का फैलाव तथा फसल अवशेष और मिट्टी में नीचे रहने वाले कीटों के कारण होने वाली क्षति से फसलों को बचाया जा सकता है.
1. खरपतवार प्रबंधन
ग्रीष्मकालीन भूमि की जुताई का सबसे महत्वपूर्ण लाभ खरपतवार नियंत्रण है. खेत की फसल कटने के बाद यदि भूमि में नमी उपलब्ध हो तो एक या दो बार खेत की जुताई करके छोड़ देना चाहिए. इससे खरपतवार की जड़ें मिट्टी में दब जाती हैं और वह सड़कर नष्ट हो जाती हैं. साथ ही, अगर खरपतवार के बीज मिट्टी में पड़े होते हैं तो उनकी कुछ मात्रा दबने से सड़ जाती है और बाकी की बीज सूर्य की गर्मी से नष्ट हो जाते हैं. इस प्रकार खरपतवारों का नियंत्रण आसानी से किया जा सकता है.
खरपतवार प्रबंधन और प्रभाव:
प्रक्रिया |
प्रभाव |
अध्ययन द्वारा प्राप्त परिणाम |
ग्रीष्मकालीन जुताई |
खरपतवारों का नियंत्रण |
खरपतवारों की जड़ें दबकर सड़ जाती हैं और बीज सूर्य की गर्मी से नष्ट हो जाते हैं. |
मिट्टी में नमी की उपस्थिति |
खरपतवारों की अधिक संख्या में कमी |
खरपतवारों की मात्रा में 30-40% तक कमी दर्ज की गई. |
जुताई की संख्या |
खरपतवार नष्ट होने का समय |
एक या दो बार जुताई करने से 20-25% खरपतवार नष्ट होते हैं. |

2. कीट और रोग प्रबंधन
खेत में फसल अवशेष के साथ जीवन चक्र पूरा करने वाले कीट और रोग का प्रबंधन ग्रीष्मकालीन जुताई से संभव हो सकता है. कई कीट और रोग फसल की कटाई के बाद भी फसल के अवशेष पर बने रहते हैं, और वहां पर अंडे और लार्वा देते हैं. ग्रीष्मकालीन जुताई से कुछ कीट फसल अवशेष के साथ मिट्टी में दब जाते हैं, और कुछ बचने वाले कीट बढ़ते हुए उच्च तापमान से नष्ट हो जाते हैं. इससे खेत में कीटों और रोगों की संख्या में महत्वपूर्ण कमी होती है.
कीट और रोग प्रबंधन और प्रभाव:
प्रक्रिया |
प्रभाव |
अध्ययन द्वारा प्राप्त परिणाम |
ग्रीष्मकालीन जुताई |
कीटों का नष्ट होना |
कीटों का 40-50% तक नियंत्रण पाया गया. |
फसल अवशेष का नष्ट होना |
कीटों के जीवन चक्र का अंत |
जुताई के 15-20 दिन बाद अधिकांश कीट नष्ट हो गए. |
उच्च तापमान का प्रभाव |
कीटों और रोगों का नाश |
ग्रीष्मकालीन तापमान से 30-40% कीट नष्ट हो गए. |
3. मृदा में पानी की धारण क्षमता में वृद्धि
ग्रीष्मकालीन जुताई से मिट्टी की संरचना में सुधार होता है, जिससे वह अधिक भुरभुरी हो जाती है. जब वर्षा होती है, तो भुरभुरी मिट्टी पानी को अधिक प्रभावी ढंग से संचित करती है, जिससे पानी का वाष्पन और निक्षालन कम हो जाता है. इससे पानी का संरक्षण बढ़ता है और भूमि की जलधारण क्षमता में सुधार होता है.
मृदा जलधारण क्षमता और प्रभाव:
प्रक्रिया |
प्रभाव |
अध्ययन द्वारा प्राप्त परिणाम |
ग्रीष्मकालीन जुताई |
जलधारण क्षमता में वृद्धि |
जलधारण क्षमता में 10-15% तक वृद्धि पाई गई. |
मिट्टी का भुरभुरा होना |
जलसंचयन में सुधार |
पानी की निक्षालन दर में 20-30% तक कमी आई. |
जुताई के बाद नमी का संरक्षण |
वर्षा के पानी का संरक्षण |
वर्षा के पानी का 15-20% अधिक संचित होना पाया गया. |
4. मृदा स्वास्थ्य और सूक्ष्मजीवों की वृद्धि
मिट्टी का भुरभुरा होना सूक्ष्मजीवों के लिए अनुकूल वातावरण उत्पन्न करता है. सूक्ष्मजीव मिट्टी की उर्वरता में महत्वपूर्ण योगदान करते हैं और उनके द्वारा किए गए जैविक विघटन से मिट्टी की गुणवत्ता और स्वास्थ्य में सुधार होता है. इससे रासायनिक उर्वरकों की आवश्यकता कम हो जाती है और फसल की गुणवत्ता में भी वृद्धि होती है.
मृदा सूक्ष्मजीवों पर प्रभाव:
प्रक्रिया |
प्रभाव |
अध्ययन द्वारा प्राप्त परिणाम |
भुरभुरी मिट्टी |
सूक्ष्मजीवों की वृद्धि |
सूक्ष्मजीवों की क्रियावली में 30-40% की वृद्धि हुई. |
ग्रीष्मकालीन जुताई |
मिट्टी की उर्वरता में वृद्धि |
उर्वरता में 10-15% का सुधार हुआ. |
मिट्टी में ऑक्सीजन की उपलब्धता |
सूक्ष्मजीवों का सक्रिय होना |
सूक्ष्मजीवों की संख्या में 20-25% की वृद्धि पाई गई. |
5. जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से बचाव
ग्रीष्मकालीन जुताई जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने में सहायक हो सकती है. उच्च तापमान और सूखे की स्थिति में, ग्रीष्मकालीन जुताई मिट्टी में नमी को बनाए रखने और तापमान को नियंत्रित करने में मदद करती है. इससे फसलों के विकास में स्थिरता बनी रहती है और सूखा सहनशीलता में वृद्धि होती है. इसके परिणामस्वरूप किसान अपनी फसल की उपज में स्थिरता बनाए रख सकते हैं, भले ही जलवायु में परिवर्तन हो.
जलवायु परिवर्तन पर प्रभाव:
प्रक्रिया |
प्रभाव |
अध्ययन द्वारा प्राप्त परिणाम |
ग्रीष्मकालीन जुताई |
सूखा सहनशीलता में वृद्धि |
सूखा सहनशीलता में 20-30% तक वृद्धि हुई. |
मिट्टी की संरचना में सुधार |
तापमान का नियंत्रित होना |
मिट्टी का तापमान 5-8°C तक कम हुआ. |
पानी का संरक्षण |
जलवायु परिवर्तन से बचाव |
जलवायु परिवर्तन से पानी की उपलब्धता में 10-15% की वृद्धि पाई गई. |
निष्कर्ष
ग्रीष्मकालीन जुताई किसानों के लिए एक लाभकारी और प्रभावी तकनीक है, जो न केवल भूमि की उर्वरता को बढ़ाती है, बल्कि फसलों के लिए एक स्वस्थ और सुरक्षित वातावरण भी तैयार करती है. इस प्रक्रिया से खरपतवार, कीट और रोगों का नियंत्रण संभव होता है, जो कृषि उत्पादन को प्रभावित करते हैं. साथ ही, यह मृदा की जलधारण क्षमता को बढ़ाता है, जिससे जलवायु परिवर्तन और सूखा सहनशीलता में मदद मिलती है. ग्रीष्मकालीन जुताई से सूक्ष्मजीवों की संख्या में वृद्धि होती है, जो मिट्टी के स्वास्थ्य को सुधारने में सहायक होते हैं.
इस प्रक्रिया के माध्यम से किसान फसल की उपज में स्थिरता बनाए रखते हुए अपनी खेती को पर्यावरणीय दृष्टिकोण से भी सशक्त बना सकते हैं.
सुझाव:
- किसानों को ग्रीष्मकालीन जुताई को नियमित रूप से अपनी कृषि पद्धतियों में शामिल करना चाहिए, ताकि इन लाभों का अधिकतम लाभ उठाया जा सके.
- क्षेत्रीय जलवायु, मिट्टी की संरचना और फसल की आवश्यकता के आधार पर जुताई की विधि और समय का चयन किया जाना चाहिए.
इस प्रकार, ग्रीष्मकालीन जुताई कृषि में एक महत्वपूर्ण कदम है, जो खेती को न केवल आर्थिक दृष्टिकोण से लाभकारी बनाता है, बल्कि पर्यावरणीय दृष्टिकोण से भी एक स्थिर और टिकाऊ खेती के रास्ते पर मार्गदर्शन करता है.
लेखक:
अमित गुप्ता1, अभिषेक पाण्डेय1, उत्कर्ष द्विवेदी1, शम्भू सिंह1, धीरज कुमार2
1कृषि अभियांत्रिकी संभाग, भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली
2मृदा एवं जल संरक्षण अभियांत्रिकी विभाग, जूनागढ़ कृषि विश्वविद्यालय, जूनागढ़, गुजरात
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