बॉटल गॉर्ड (लौकी) के नवजात फलों का सड़ना मुख्य रूप से फफूंद जनित रोग और कीट हमलों के कारण होता है. यह समस्या विशेष रूप से नवजात फलों को प्रभावित करती है, जिससे उनकी गुणवत्ता और उत्पादन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है. इस चुनौती से निपटने के लिए रोग के प्रमुख कारणों और प्रबंधन उपायों को समझना महत्वपूर्ण है.
आइये कृषि जागरण के इस आर्टिकल में लौकी के नवजात फलों के सड़ने के प्रमुख कारण और इनके प्रबंधन जानें.
लौकी के नवजात फलों के सड़ने के प्रमुख कारण
1. फफूंद जनित रोग
लौकी के नवजात फलों के सड़ने का मुख्य कारण अक्सर फंगल संक्रमण होता है, जो मुख्य रूप से पाइथियम और फाइटोफ्थोरा एवं एन्थ्रेक्नोज के कारण होता है. ये रोगाणु नमी और गीली परिस्थितियों में पनपते हैं, जिससे फल सड़ जाते हैं, खासकर बरसात के मौसम में या खराब जल निकासी वाली मिट्टी में फाइथोप्थोरा ब्लाइट विशेष रूप से नमी वाले मौसम में सक्रिय होता है. यह पौधे के तने, पत्तियों और फलों पर हमला करके सड़न पैदा करता है. एन्थ्रेक्नोज रोग नवजात फलों पर धब्बे बनाता है, जो धीरे-धीरे बढ़ते हुए पूरी सतह को ढक सकते हैं.
2. जीवाणु जनित रोग
लौकी में जीवाणु जनित सड़न भी एक महत्वपूर्ण समस्या है. विशेषकर बैक्टीरियल वेट रोट का प्रकोप नवजात फलों पर होता है, जिससे फल सड़ने लगते हैं. यह रोग भी अधिक नमी में फैलता है और जल्दी से फलों को नष्ट कर सकता है.
3. कीट आक्रमण
लौकी पर कीटों का हमला भी सड़न का कारण बनता है. उदाहरण के लिए, फ्रूट फ्लाई (फल मक्खी) और रेड पंपकिन बीटल (लाल कद्दू भृंग) के हमले से नवजात फलों में छेद हो जाते हैं, जिससे फफूंद और जीवाणु जनित रोगों का प्रकोप बढ़ता है. ये कीट नवजात फलों को तेजी से नष्ट करते हैं.
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4. जलवायु परिस्थितियां
अत्यधिक नमी और तापमान में उतार-चढ़ाव भी नवजात फलों के सड़ने का कारण बनता है. लगातार बारिश या अत्यधिक सिंचाई से मिट्टी में जलभराव हो जाता है, जिससे जड़ें कमजोर हो जाती हैं और फफूंद का प्रकोप बढ़ जाता है.
5. सामान्य कृषि-प्रबंधन की कमी
फसल प्रबंधन की कमी, जैसे अत्यधिक रसायनों का उपयोग, असंतुलित उर्वरकों का प्रयोग, और पौधों के बीच उचित दूरी न रखने से पौधे की प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है. इससे रोगजनक सूक्ष्मजीव आसानी से फलों पर हमला कर सकते हैं.
लौकी के नवजात फलों के सड़ने की समस्या का कैसे करें प्रबंधन?
1. बीज उपचार
बीज बोने से पहले उन्हें फफूंदनाशकों, जैसे कार्बेन्डाजिम या ट्राइकोडर्मा के साथ उपचारित करना चाहिए. यह उपचार बीजों को फफूंद जनित रोगों से सुरक्षित रखने में सहायक होता है.
2. खेत की सफाई और फसल चक्रीकरण
खेत की सफाई करना और हर फसल चक्र के बाद अवशेषों को हटाना आवश्यक है. यह रोगजनकों के संचरण को रोकता है. फसल चक्रीकरण (Crop rotation) का पालन करने से रोगों का प्रकोप कम होता है.
3. जैविक नियंत्रण
फफूंद और जीवाणु जनित रोगों के लिए जैविक नियंत्रण प्रभावी साबित हो सकता है, जैसे कि ट्राइकोडर्मा और प्स्यूडोमोनास जैसे जैविक एजेंट का प्रयोग किया जा सकता है. यह फफूंद और जीवाणुओं के विरुद्ध प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाते हैं और पौधों को सुरक्षा प्रदान करते हैं.
4. कीट प्रबंधन
फ्रूट फ्लाई और रेड पंपकिन बीटल जैसे कीटों से बचाव के लिए फेरोमोन ट्रैप का उपयोग किया जा सकता है. कीटनाशकों का प्रयोग केवल आवश्यकता अनुसार और निर्देशों के अनुसार करना चाहिए. जैविक कीटनाशकों का उपयोग पर्यावरण के अनुकूल और कीटों के प्रबंधन में सहायक हो सकता है.
5. फसल की दूरी और सिंचाई प्रबंधन
पौधों के बीच उचित दूरी बनाए रखें ताकि हवा का संचार अच्छे से हो सके और रोगजनक फफूंद का संक्रमण न हो. सिंचाई करते समय ध्यान दें कि मिट्टी में जलभराव न हो, विशेषकर नवजात फलों के आसपास की मिट्टी में.
6. तापमान और नमी का नियंत्रण
खेत की नमी को नियंत्रित करने के लिए सिंचाई का प्रबंधन और ड्रिप सिंचाई प्रणाली का उपयोग फायदेमंद होता है. इसके अलावा, अधिक आर्द्रता को नियंत्रित करने के लिए मल्चिंग का प्रयोग कर सकते हैं, जिससे फफूंद जनित रोगों का प्रकोप कम होगा.
7. समय-समय पर रोग नियंत्रण छिड़काव
मिट्टी जनित रोगजनकों को लक्षित करने के लिए पौधों के आधार के चारों ओर मिट्टी में मेटालैक्सिल या फोसेटिल-अल जैसे कवकनाशी का छिड़काव करें. अनुशंसित खुराक का पालन करें और रोग की गंभीरता और पर्यावरणीय परिस्थितियों के आधार पर, यदि आवश्यक हो तो 10 दिन के अंतराल पर दो छिड़काव करें.
रोगजनक संक्रमण की संभावना को कम करने के लिए समय-समय पर फफूंदनाशकों जैसे साफ़ @ 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोलकर पत्तियों पर छिड़काव करना चाहिए.
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