गुग्गुल या 'गुग्गल' एक ओषधीय पौधा है. भारत में इस जाति के दो प्रकार के पौधे पाए जाते हैं. एक को कॉमिफ़ोरा मुकुल तथा दूसरे को कॉमिफ़ोरा रॉक्सबर्घाई कहते हैं. अफ्रीका में पाई जानेवाली प्रजाति कॉमिफ़ोरा अफ्रिकाना कहलाती है. कॉमिफ़ोरा रॉक्सबर्घाई एक औषधीय रूप से महत्वपूर्ण पौधा है, जिसे अब बर्सेरासी परिवार की गंभीर रूप से लुप्तप्राय प्रजाति माना जाता है, जिसमें गुणसूत्र संख्या 2n = 26 होती है.
कमिफोरा नाम ग्रीक शब्द कोमी (जिसका अर्थ है 'गम') और फेरो (जिसका अर्थ है 'सहन करना') से उत्पन्न हुआ है. भारतीय भाषाओं में, इसे हिंदी में गुग्गुल, तमिल में गुग्कुलु और मैशाक्षी, संस्कृत में गुग्गुलु और अंग्रेजी में भारतीय बेडेलियम जैसे विभिन्न नामों से जाना जाता है. जीनस कमिफोरा अफ्रीका, मेडागास्कर, एशिया, ऑस्ट्रेलिया और प्रशांत द्वीपों के उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में व्यापक रूप से पाया जाता है. भारत में, यह राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र और कर्नाटक के शुष्क, चट्टानी इलाकों में पाया जाता है. राजस्थान में मुख्यत: मारवाड व मेंवाड क्षेत्र :- जैसलमेर, बाड़मेर, जोधपुर, जालोर, सिरोही, अजमेर, सीकर, चुरू, झुंझुनू, पाली, उदयपुर, अलवर (सरिस्का टाइगर रिजर्व), जयपुर (रामगढ़, झालाना क्षेत्र), भीलवाड़ा, धोलपुर और राजसमंद जिलों में पाया जाता है. गुग्गुल को पहली बार 1966 में एक भारतीय चिकित्सा शोधकर्ता, जी.वी. सत्यवती द्वारा वैज्ञानिक दुनिया में पेश किया गया था.
गुग्गुल के उपयोग
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आयुर्वेद में गुग्गुल एक बहुत ही महत्वपूर्ण औषधि के रूप में माना जाता है. भारतीय पारंपरिक चिकित्सा पद्धति में गुग्गुल का उपयोग गठिया, सूजन, गाउट, गठिया, मोटापा और लिपिड चयापचय विकारों के उपचार में हजारों वर्षों से किया जा रहा है.
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गुग्गुल वात, पित, कफ और अर्श नाशक होता है. इसके अलावा इसमें सूजन और जलन को कम करने के गुण भी होते हैं.
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ये एंटी ऑक्सीडेंट,एंटी बैक्टीरियल और एंटी इंफ्लेमेटरी गुणों से भरपूर होता है और यही कारण है कि यहकई गंभीर बीमारियों में एक बेहतर औषधिय साबित होता है.
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पौधे औषधीय रूप से महत्वपूर्ण प्राकृतिक गोंद राल पैदा करता है. गुग्गुल गम 61 प्रतिशत राल, 29.3 प्रतिशत गोंद, 6.1 प्रतिशत पानी, 0.6 प्रतिशत वाष्पशील तेल और 2 प्रतिशत विदेशी पदार्थ का मिश्रण है. हाल ही शोध से पता चला है की ऑलियों –राल ह्रदय रोग और कैंसर के खिलाफ प्रभावी है.
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गोंद का उपयोग परफ्यूमरी, कैलिको-प्रिंटिंग, धूमन, रंगाई रेशम और कपास, सुगंध, इत्र और धूप के रूप में भी किया जाता है.
गुग्गुल को भारत में लुप्तप्राय माना जाता है और आईयूसीएन रेड डेटा सूची (आईयूसीएन, 2010) में 'डेटा की कमी' के रूप में सूचीबद्ध है, क्योंकि इसके संरक्षण की स्थिति के साथ-साथ ओलियो-गम की उपज बढ़ाने के लिए अत्यधिक और अवैज्ञानिक दोहन विधियों के बारे में ज्ञान की कमी है। राल पौधों की मृत्यु का कारण बनता है, जिससे प्रजातियों के विलुप्त होने का खतरा होता है. पिछले 84 वर्षों (तीन पीढ़ी की लंबाई) में जंगली आबादी में 80% से अधिक की गिरावट आई है. इसकी कमी की तुलना में प्राकृतिक पुनर्जनन और खेती लगभग नगण्य है. कम बीज अंकुरण से जुड़ी धीमी गति से बढ़ने वाली प्रकृति भी कमिफोरा वाइटी के खतरे का प्रमुख कारण है.
पादप ऊतक संवर्धन द्वारा गुग्गुल के पौधे तैयार करने की आधुनिक विधि :-
सदियों से हमारी संस्कृति समाज को पेड़ बनाने, लगाने, संरक्षित करने और दान करने आदि को को बढ़ावा देती रही है. वृक्ष की रक्षा करना पुण्य का कार्य है. इसके अलावा अब पृथ्वी पर मानव जाति का अस्तित्व पेड़ और पर्यावरण पर निर्भर करता है. इस प्रजाति को प्रकृति में संरक्षित करने और इसे व्यापक रूप से प्रचारित करने के प्रयासों की आवश्यकता है.
पादप ऊतक संवर्धन
इस तकनीक के उपयोग से पर्यावरण की अनेक ज्वलंत समस्याओं के निराकरण में मदद मिली हैं. एक पौधे या पेड़ के एक छोटे ऊतक या कोशिकाओं से नियंत्रित वातावरण में उपयुक्त कल्चर माध्यम द्वारा पुनर्जीवित किया जाता है. इस प्रकार उत्पन्न होने वाले पौधे को हम टिश्यू-कल्चर से उगाए गए पौधे कहते है. ये नए पोधे लेट्स मदर प्लांट की एक प्रतिलिपि होती हैं साथ ही साथ अपने मदर प्लांट के समान विशेषताओं को भी प्रदर्शित करते हैं. इस प्रक्रिया में संवृद्धि मीडियम या संवर्धन घोल महत्वपूर्ण है. इसका उपयोग पौधों के ऊतकों को बढ़ाने के लिए किया जाता है क्योंकि इसमें 'जेली' के रूप में विभिन्न पौधों के पोषक तत्व शामिल होते हैं जो कि पौधों के विकास के लिए जरूरी है.
ऊतक संवर्धन पौधों के प्रसार का एक प्रक्रिया विधि है जिसमें पौधे के एक उत्तक/कोशिका को पोषक माध्यम में रखा जाता है. जब यह पौधा का रूप ले लेता है यानि इसमें कोमल टहनियां और जड़ें निकल आती है तो उसे उपयुक्त जगह या मिट्टी में रोपण किया जाता हैं.
गुग्गुल प्रजाति को प्रकृति में संरक्षित करने और इसे व्यापक रूप से प्रचारित करने के प्रयासों की आवश्यकता है. इन समस्याओं और सीमाओं को ध्यान में रखते हुए सही प्रकार और वायरस मुक्त पौधों का उत्पादन करने के लिए पादप ऊतक संवर्धन तकनीकी बहुमूल्य कारगर हुए है.
टिशू कल्चर की प्रक्रिया द्वारा गुग्गुल के पौधे कैसे तैयार करें :-
ऊतक संवर्धन के विभिन्न चरण निम्नलिखित हैं-
शून्य चरण—:
इस चरण को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-
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कर्णोतकों का चयन एवं पूर्ण उपचार
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कत्ततकों का सतही निर्जर्मीकरण ।
टिश्यू कल्चर के लिए प्लांट टिश्यू की तैयारी एक लैमिनार फ्लो कैबिनेट द्वारा प्रदान की गई HEPA फ़िल्टर्ड हवा के तहत सड़न रोकनेवाला परिस्थितियों में की जाती है. इसके बाद, ऊतक को नियंत्रित तापमान और प्रकाश की तीव्रता (सभी सवंर्धन 25±2° सेल्सियस तापमान एव 3000-3500 लक्स प्रकास तीव्रता पर 14:10 घंटे दीप्तिकाल ) वाले विकास कक्ष में बाँझ (एक्सप्लांट) कंटेनर, जैसे पेट्री डिश या फ्लास्क (इन्हे आसुत जल से धोकर और ओवन में 160-180 0C पर 3-4 घंटे के लिए रख कर सूक्ष्मजीवों को निष्फल करते है) में उगाया जाता है. पर्यावरण से जीवित पौधों की सामग्री सूक्ष्मजीवों के साथ उनकी सतहों (और कभी-कभी अंदरूनी) पर स्वाभाविक रूप से दूषित होती है, इसलिए उनकी सतहों को रासायनिक समाधान आमतौर पर (शराब, मरक्यूरीक क्लोराइट और सोडियम या कैल्शियम हाइपोक्लोराइट ) से निष्फल कर दिया जाता है.
प्रथम चरण / संवर्धन आरम्भन-:
इस चरण में सतही निर्जर्गीकृत कत्ततकों को संवर्धन माध्यम पर स्थानान्तरित कर संवर्धन कक्ष में रखा जाती है. संवर्धन कक्ष में इनसे कैलस अथवा अंग जनन प्रारम्भ होता है.
पौधे के ऊतकों का एक छोटा सा टुकड़ा उसके बढ़ते हुए उपरी भाग से लिया जाता है ( बड़ी संख्या में समान व्यक्तियों का उत्पादन करने के लिए मेरिस्टेम और शूट कल्चर का उपयोग करते है) और एक जेली (मुराशिगे और स्कोग माध्यम )में रखा जाता है जिसमें पोषक तत्व ( कार्बनिक एवं अकार्बनिक) और पादप हार्मोन (ऑक्सिन एवं साइटोकाइनिन) होते हैं. ये हार्मोन पौधे के ऊतकों में कोशिकाओं को तेजी से विभाजित (ऑक्सिन :-2,4-D, IAA, NAA, IBA और साइटोकाइनिन :- BAP, काइनेटिन ) करते हैं, जो कई कोशिकाओं का निर्माण करते हैं और एक जगह एकत्रित कर देते हैं जिसे “कैलस” कहां जाता है.
द्वितीय चरण–:
प्रथम चरण में स्थापित संवर्धनों को नए पोषण माध्यम पर स्थानान्तरित (4-5 सप्ताह के बाद दोहराई जानी चाहिए) कर उनका गुणन करना. इस “कैलस” को एक अन्य जेली में स्थानांतरित किया जाता है जिसमें उपयुक्त प्लांट हार्मोन होते हैं, जो कि “कैलस” को जड़ों में विकसित करने के लिए उत्तेजित करते है. साइटोकाइनिन कोशिका विभाजन के अतिरिक्त ऊतक विभेदन को प्रेरित करता है. यदि किसी पादप ऊतक का सवर्धन शर्करा एवं खनिज लवण युक्त माध्यम पर कराया जाये, तो कोशिकाए विभाजन होकर समूह कैलस बना लेती है तथा कम साइटोकाइनिन तथा ऑक्सिन अनुपात से कैलस से जड़ों का विकास होता है.
तृतीय चरण–:
सम्पूर्ण पादप का पुनरुद्भवन करना. विकसित जड़ों के साथ “कैलस” को एक और जेली में स्थानांतरित किया जाता है जिसमें विभिन्न हार्मोन होते हैं, जो कि पौधें के तने के विकास को प्रोत्साहित करते हैं. यदि माध्यम मे अधिक सांद्रता मे साइटोकाइनिन तथा ऑक्सिन मिलाया जी तो कैलस से प्ररोंह का विकास हो जाता है.
अब इस “कैलस” को जिसमें जड़ें और तना है को एक छोटे प्लांटलेट के रूप में अलग कर दिया जाता है। इस तरह से कई छोटे-छोटे पौधे केवल कुछ मूल पौधे कोशिकाओं या ऊतक से उत्पन्न हो सकते हैं.
चतुर्थ चरण-:
ऊतक संवर्धन द्वारा विकसित पादपों का दृढ़ीकरण एवं वातानुकूलन. इस प्रकार उत्पादित प्लांटलेट को ग्रीन हाउस/धुंध कक्ष कल्चर माध्यम बनाए मे रखा जाता है. सक्रिय चारकोल को अक्सर जड़-अवरोधक एजेंटों को अवशोषित करने के लिए जोड़ा जाता है. स्वस्थ/कुलीन पौधों को चरणबद्ध तरीके से प्राकृतिक परिस्थितियों से अवगत कराया जाता है. यह इन विट्रो में उगाए गए पौधों का विवो स्थिति में क्रमिक अनुकूलन है. उन पौधों को गमलों/पॉलीथीन बैग में स्थानांतरित कर दिया जाता है और तुरंत अकार्बनिक/पोषक तत्व के घोल से सिंचाई कर दी जाती है। पौधों को सख्त कक्ष में रखा जाता है जहाँ प्रकाश, आर्द्रता और तापमान की नियंत्रित स्थितियाँ बनी रहती हैं. पौधों को उच्च आर्द्रता में 10-20 दिनों तक बनाए रखा जाता है और बाद में उन्हें खेत में स्थानांतरित कर दिया जाता है ताकि प्राकृतिक परिस्थितियों में विकसित हो सकें। ऊतक संवर्धन द्वारा विकसित पादपों की सफलता दर कल्चर से मिट्टी (खेत) में स्थानांतरित होने पर पौधों के जीवित रहने पर निर्भर करती है.
प्लांट टिशू कल्चर मीडिया में आम तौर पर उपयोग होने वाले घटक :-
क्र.सं. |
घटक |
विवरण |
1. |
वृहद पोषक (0.5 mM.l-1 से अधिक सांद्रता)
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आवश्यक तत्वों :-कार्बन, हाइड्रोजन और ऑक्सीजन संतोषजनक वृद्धि और आकारिकी के लिए -: नाइट्रोजन (एन), फास्फोरस (पी), पोटेशियम (के), कैल्शियम (सीए), मैग्नीशियम (एमजी) और सल्फर (एस) |
2. |
सूक्ष्म पोषक (0.5 mM.l-1 से कम सांद्रता) |
पादप कोशिका और ऊतक वृद्धि के लिए आवश्यक -: लोहा, मैंगनीज, जस्ता, बोरॉन, तांबा, और मोलिब्डेनम |
3. |
कार्बन के स्रोत |
सुक्रोज (2-5% सांद्रता), ग्लूकोज और फ्रुक्टोज |
4. |
विटामिन |
थियामिन (बी1) 0.1 to 10 mg.l-1, निकोटिनिक एसिड (0.1-5 mg.l-1) और पाइरिडोक्सिन (बी6) 0.1-10 mg.l- वृद्धि के लिए सभी कोशिकाओं को थियामिन की आवश्यकता होती है तथा निकोटिनिक एसिड और पाइरिडोक्सिन, हालांकि कई प्रजातियों जैसे बायोटिन, फोलिक एसिड, एस्कॉर्बिक एसिड, पैंटोथेनिक एसिड, टोकोफेरोल (विटामिन ई), राइबोफ्लेविन, पी-एमिनो-बेंजोइक एसिड के सेल विकास के लिए आवश्यक नहीं हैं, उन्हें अक्सर कल्चर मीडिया में जोड़ा जाता है |
5. |
अमीनो एसिड |
कैसिइन हाइड्रोलाइज़ेट (0.25-1 g.l-1), एल-ग्लूटामाइन (8 mM), एल-एस्पेरेगिन (100mg.l-1), ग्लाइसिन (2 mg.l-1) और एडेनिन को अक्सर संस्कृति मीडिया में कार्बनिक नाइट्रोजन के स्रोतों के रूप में उपयोग किया जाता है। |
6. |
अपरिभाषित जैविक पूरक |
प्रोटीन हाइड्रोलिसेट्स, नारियल का दूध, खमीर का अर्क, माल्ट का अर्क, पिसा हुआ केला, संतरे का रस, 1% सक्रिय चारकोल और टमाटर का रस, विकास वृद्धि पर उनके प्रभाव का परीक्षण करने के लिए। |
7. |
ठोस एजेंट |
माध्यम की कठोरता सुसंस्कृत ऊतकों की वृद्धि को बहुत प्रभावित करती है। कई गेलिंग एजेंट हैं जैसे अगर, अगारोज और गेलन गम |
8. |
विकास नियामक |
ऑक्सिन :- सांद्रता, 0.1-10 मिलीग्राम / एल (इंडोल-3- एसिटिक एसिड (IAA), इंडोल-3-ब्यूट्रिकसाइड (IBA), 2,4-डाइक्लोरोफेनोक्सी-एसिटिक एसिड (2,4-D) और नेफ़थलीन- एसिटिक एसिड (NAA). IAA पौधों के ऊतकों में होने वाली एकमात्र प्राकृतिक ऑक्सिन है साइटोकिनिन -: बीएपी (6-बेंजाइलोमिनोपुरिन), 2आईपी (6-डाइमिथाइलामिनोप्यूरिन), किनेटिन (एन-2-फुरानिल्मिथाइल-1एच-प्यूरिन-6-एमाइन), ज़ीटिन (6-4-हाइड्रॉक्सी-3-मिथाइल-ट्रांस-2-ब्यूटेनाइलामिनोप्यूरिन) और टीडीजेड (थियाजुरोन-एन-फेनिल-एन-1,2,3 थियाडियाजोल-5यल्युरिया)। ज़ीटिन और 2iP प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले साइटोकिनिन हैं और ज़ीटिन (40-80 मिलीग्राम / एल) अधिक प्रभावी है। जिबरेलिन और एब्सिसिक एसिड। |
8. |
माध्यम |
मूल मीडिया जिनका अक्सर उपयोग किया जाता है उनमें मुराशिगे और स्कोग (एमएस) माध्यम , लिंसमायर और स्कोग (एलएस) माध्यम , गैंबोर्ग (बी५) माध्यम और निट्स्च और निट्सच (एनएन) माध्यम शामिल हैं। |
9. |
अन्य |
एंटीबायोटिक्स: स्टरटोमाइसिन, केनामाइसिन पीएच समायोजक : 5 - 6 इसे इष्टतम (NaOH, KOH या HCL की मदद से) माना जाता है। 5 से नीचे का Ph ठीक से जेल नहीं होगा और 6 से ऊपर का पीएच बहुत कठोर हो सकता है। पानी: डिमिनरलाइज्ड या आसुत जल
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टिशू कल्चर तकनीक से खेती में फ़ायदे :-
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सूक्ष्म प्रवर्धन तकनीक से बहुत ही कम समय व कम स्थान पर अधिक संख्या में पौधों का उत्पादन किया जा सकता है.
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किसानों को मिलते हैं ऐसे छोटे पौधे जो किसी भी तरह के कीट और रोग से मुक्त होते हैं.
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पौधों में किसानों को एक के बाद एक दो अंकुरण मिल सकते हैं और इससे खेती की लागत में भी कमी आती है.
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सभी पौधों में एक ही तरह का विकास होता है. इसका मतलब यह है कि सभी पौधे एक समान होते हैं और यही वजह है कि उत्पादन में भी अच्छी बढ़ोतरी देखने को मिलती है.
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इतना ही नहीं कम समय में फसल भी तैयार हो जाती है लगभग 9 से 10 महीने के बीच
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साल भर छोटे विकसित पौधे उपलब्ध होने की वजह से रोपाई भी साल भर की जा सकती है.
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किसान कम समय में ही इस तकनीक से मिलने वाली नई किस्मों का भी इस्तेमाल कर सकते हैं.
गुग्गुल निकालने की विधि :-
गुग्गुल का पौधा लगभग 8 वर्ष में पूर्ण परिपक्व होकर गोंद सग्रंह योग्य हो जाता है. इन परिपक्व पौधों से दिसबंर-फरवरी में गोंद सग्रंह किया जाता है. जब पौधें का व्यास 7.5 सेमी. का हो जायें, तब गोंद प्राप्त करने हेतु मुख्य तने एवं शाखाओं पर 1.5 सेमी. गहरा वृत्ताकार चीरा 30 सेमी. एवं 60 डिग्री कोण पर सामान अन्तराल पर लगाया जाता है. चीरा वाले स्थानों से सफेद पीला सुगंधित गोंद स्त्रावित होता है, जो कि धीरे-धीरे ठोस होने लगता है, जिसे चाकू की सहायता से एकत्रित कर लिया जाता है। 10-15 दिन के अंतराल पर यह प्रक्रिया दोहराते रहते है। केम्बियम परत पर चीरे नजदीक एवं गहरे लगाने पर गोंद की उपज अधिक प्राप्त की जा सकती है. गोद सग्रंह में रसायनों का उपयोग भी लाभकारी सिद्व हुआ है. तीन साल में एक बार इथेफान (2 क्लोरो -इथॉयल फास्फोरिक एसिड) 400 मिली. प्रति पौधा छिडकनें से गोंद का स्त्राव काफी बढ जाता है. इस विधि से प्रत्येक पौधें से 500 ग्राम से 1500 ग्राम तक गुग्गुल प्राप्त हो जाता है.
श्रेणीकरण :-
अच्छी श्रेणी का गुगल पौधों की मोटी शाखाओं से प्राप्त होता है. ये गोंद के ढेले अर्द्वपारदर्शक होते है. दूसरी श्रेणी के गुगल में छाल, मिट्टी मिली होती है एवं हल्के रंग का होता है. तीसरी श्रेणी का गुगल प्राय: भूमि की सत हसे इकट्ठा किया जाता है. जिसमें मिट्टी, पत्थर के टुकडे एवं अन्य पदार्थ मिले होते है. हल्की श्रेणी के गुगल के ढेर पर अरण्डी के तेल का छिडकाव करके सुधारा जा सकता है, जिससे इसमें चमक आ जाती है.
लेखक
स्वर्णलता कुमावत, डॉ. अनिल कुमार शर्मा, डॉ. एम. एल. जाखड, कोमल शेखावत, अनिल कुमार
1 विद्यावाचस्पति विद्यार्थी, अनुवांशिकी एवं पादप प्रजनन विभाग,कृषि महाविधालय, स्वामी केशवानन्द राजस्थान कृषि विश्वविधालय, बीकानेर,334006
2 प्राध्यापक, अनुवांशिकी एवं पादप प्रजनन विभाग,कृषि महाविधालय, स्वामी केशवानन्द राजस्थान कृषि विश्वविधालय, बीकानेर,334006
3 प्राध्यापक, पादप प्रजननं एव आनुवांशिकी विभाग, श्री कर्ण नरेन्द्र कृषि विश्वविद्यालय, जोबनेर, जयपुर, 303329
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