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धान की फसल में रोग व कीट प्रबंधन

धान पादप समूहों (जाती) का एक प्रमुख्य खाद्य फसल है, जो घास की प्रजाति ओरिजा सैटाइवा (एशियाई चावल) या ओरीजा ग्लोबेरिमा (अफ्रीकी चावल) का बीज है. अनाज के रूप में यह दुनिया की मानव आबादी के एक बड़े हिस्से के लिए सबसे व्यापक रूप से खाया जाने वाला मुख्य भोजन है.

KJ Staff
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Paddy Diseases

धान पादप समूहों (जाती) का एक प्रमुख्य खाद्य फसल है, जो घास की प्रजाति ओरिजा सैटाइवा (एशियाई चावल) या ओरीजा ग्लोबेरिमा (अफ्रीकी चावल) का बीज है. अनाज के रूप में यह दुनिया की मानव आबादी के एक बड़े हिस्से के लिए सबसे व्यापक रूप से खाया जाने वाला मुख्य भोजन है. यह पूरेे संसार की आधा प्रतिशत आबादी का मूल भोजन श्रोत है जो कुल फसलों के क्षेत्रफल का एक चैथाई क्षेत्र में लगाया जाता है.

धान के कुल उत्पादन में ९० प्रतिशत योगदान केवल एशिया महाद्वीप करता है. वर्तमान परिवेश में भारत धान की पैदावार में चाइना के बाद दूसरे स्थान पर सुशोभित है. भारत में धान को ४३८५५ हजार हेक्टेयर में लगाया जाता है, जिसके फलस्वरूप  १०४७९८ हजार टन उत्पादन होता है. गन्ने (१.९ बिलियन टन) और मक्का (१.0 बिलियन टन) के बाद यह दुनिया भर में तीसरी सबसे ज्यादा उत्पादन वाली कृषि वस्तु है. मानव पोषण और कैलोरी सेवन के संबंध में चावल सबसे महत्वपूर्ण अनाज है, जो मनुष्यों द्वारा दुनिया भर में खपत कैलोरी का पांचवां हिस्सा प्रदान करता है. धान भारतवर्ष में मुख्यतः उत्तर प्रदेश , पश्चिम बंगाल , आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़ और बिहार राज्यों में लगाया जाता है. बिहार धान का उत्पादन करने वाले राज्यों में पांचवें स्थान पर आता है., यहाँ धान को मुख्यतः वर्ष में एक बार ही लगाया जाता है.

चावल की खेती के लिए मानसून आने से पहले खेत को तैयार कर लेना चाहिए. सबसे पहले चावल के अंकुर को नर्सरी में तैयार करना चाहिए और इसके बाद लगभग ४०   दिनों के पश्चात उसे खेत में प्रत्यारोपण कर देना चाहिए. भारत तथा विश्व के कुछ हिस्सों में चावल के बीज को सीधे खेत में भी बोया जाता है परंतु नर्सरी द्वारा किए जाने वाले चावल की खेती में ज्यादा उपज होती है.

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चावल को पहले नर्सरी में इसलिए उगाया जाता है ताकि केवल अंकुरित बीज ही खेत में स्थापित हो सके और अधिक संख्या में पौधे उग सके. नर्सरी से केवल स्वस्थ पौधों के स्थानांतरण में मदद मिलती है. नर्सरी के लिए कम क्षेत्र की आवश्यकता होती है इसलिए इसमें मानसून आने से पहले बीज बो दिए जाते हैं और मुख्य मानसून के समय उसे खेत में प्रत्यारोपण कर दिया जाता है. खेत में धान की बुवाई से ठीक पहले पानी जमा कर दिया जाता है और सभी खरपतवार को निकाल दिया जाता है. जब नर्सरी से निकाल कर धान के पौधों की बुवाई की जाती है तो खरपतवार उसकी प्रतिस्पर्धा नहीं कर पाते क्योंकि उन्हें प्रारम्भ से अंकुरित होना पड़ेगा और धान पहले से नर्सरी में अंकुरित हो चुका होता है. रोपाई के बाद पानी भर दिया जाता है और इस तरह खेत के अधिकांश हिस्से में खरपतवार नहीं उगते हैं.

पारंपरिक प्रणाली में, अधिकतम उपज प्राप्त करने के लिए चावल की नर्सरी जुटाना और उचित समय पर रोपाई करना बहुत महत्वपूर्ण है. उत्तर भारत में मई के अंत से पहले चावल की नर्सरी लगाने की सिफारिश की जाती है, क्योंकि फिर जल्दी या देर से रोपाई से अधिक जीवाणु जैसे की झुलसा या बकेनिया रोग का खतरा होता है और कीटों के हमले में वृद्धि होती है. देरी से नर्सरी लगाने के कारण उत्पादित कर्नेल धान की कटाई के दौरान टूट जाता है. देरी से तैयार नर्सरी की रोपाई अंतिम उपज को कम करके पैदावार को कम करती है.

धान की फसल पर लगभग १४०० कीट ब्याधि का प्रकोप होता है, और संज्ञानतः १०० से ज्यादा कीट की प्रजातियाँ धान की अलग - अलग अवस्था पर आक्रमण करती है, जिनमे लगभग २० प्रजतियाँ धान को आर्थिक रूप से नुकसान पहुँचाती है.

शोध से यह पता चला है की धान की कुल उत्पादन का २०.७ प्रतिशत छति केवल कीड़ो के कारण होती है. धान में कीड़ो का प्रकोप नर्सरी अवस्था से हीं शुरू हो जाता है और धान के कटने तक विद्यमान रहता है.

धान की फसल पर मुख्यतः निम्न कीटों का आतंक रहता है

क) धान का तना बेधक कीट

यह कीट केवल धान के फसलों को ही क्षति पहुँचाता है. इस कीट की प्रौढ़ मादा पत्तियों के ऊपरी सिरे पर एक समूह में ५०-८० अंडे देती है, जो की हलके पीले रंग लिए हुए, अंडाकार या चपटी तथा बादामी रंग के बालों से ढकी होती है. इन अंडो से ५-१० दिनों में हलके पीले रंग की नई सुँढ़ियाँ बाहर निकलती है, जिसका शिर्ष गहरे भूरा रंग की होती है. इनके प्रौढ़ पतंगों के अगली पृष्ठों पर एक काला धब्बा प्रतीत होते है. इस कीट का कीटडिंभ अवस्था ही क्षतिकर होता है. इस कीट की सुँढ़ियाँ अंडो से बाहर निकलकर धान के नए पौधों के मध्य कलिकाओं की पत्तियों में अंदर घुस जाती है तथा अंदर हीं अंदर तने के पोषवाह को खाती है, जिसके परिणामस्वरूप पौधा सूख जाता है. जिसे वैज्ञानिक भाषा में डेड हार्ट कहा जाता है. इस कीट का प्रकोप बाली वाली अवस्था में हो तो बालियाँ सूख कर सफेद हो जाती है, तथा दाने नहीं बन पाते हैं.

प्रबंधनः 

१) धान की कटाई के बाद खेत में बचे हुए अवशेषों को नष्ट कर देना चाहिए।

२) इस कीट के प्रबंधन हेतु पौधों के ऊपरी भाग की पत्तियों को काट देना चाहिए जिससे अंडे नष्ट हो जाते है.

३) पौधों की रोपाई से पहले इसकी जड़ों को ४ से ५ घंटों के लिए १ मि ली क्लोरपाइरीफॉस २० इ सी नामक दवा को १ लीटर पानी में मिलकर डुबो कर रखें.

४) इस कीट से बचने के लिए प्रपंच (२० ट्रैप) प्रति हेक्टेयर की दर से व्यवहार किया जा सकता है.

५ ) अंडा परजीवी ट्राइकोग्रामा जैपोनिकम ५०,००० अंडे प्रति हेक्टेयर की दर से व्यवहार करना लाभकारी होता है.

६) अगर खेतों में ५ या उससे ज्यादा डेड हार्ट दिखाई दे तो रसायनिक प्रबंधन उपयोग में लाना चाहिए, जैसे ट्राइएजोफॉस ४० इ सी नामक दवा की १५० मि ली मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से ५० लीटर पानी के साथ मिलाकर छीड़काव करना चाहिए, अथवा कार्टप हाइड्रोक्लोराइड ४ जी २५ की ग्रा प्रति हेक्टेयर की दर से छीड़काव करना चाहिए.

ख) धान का पत्तर कटी कीट (स्वार्मिंग पिल्लू)

इस कीट के व्यसक गहरे भूरे रंग के होते है जबकि व्यसक नर कीट के पहले पैरों पर भूरे रंग की बाल होती है। इसकी प्रौढ़ मादा निशाचर होती है और सम्भोग के लगभग २४ घंटे बाद, धान या घास की पत्तियों पर २००- ३०० अंडे एक समूह में देती है. इस कीट के अधिक प्रकोप से ऐसा लगता है जैसे कोई मवेशी ने पूरे खेत को चर लिया हो। इस कीट के आक्रमण से धान की पैदावार में १० -२० प्रतिशत का नुकसान होता है.

प्रबंधनः

१) इस कीट के प्रबंधन हेतु प्रकोप की शुरूआती अवस्था में गुच्छेदार अण्डों व सुँढ़ियों को हाथ से नष्ट कर देना चाहिए।

२) नर्सरी में अंकुर अवस्था में पानी डाले ताकि इनकी सुँढ़ियाँ पानी में गिर जाये तथा शिकारी चिड़ियों द्वारा इनका शिकार कर लिया जाये।

३) छोटे क्षेत्रो में बतखों को उस खेत में छोड़ा जा सकता है क्यूंकि बतख इनकी सुँढ़ियों को खा जाता है।

४) रसायनिक प्रबंधन हेतु क्लोरपैरिफॉस २० इ० सी० नामक दवा का १२५० मि० ली० लेकर ५०० से १००० लीटर पानी में प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए।

ग) हरी पत्ती फुदक

इस कीट का प्रकोप भारत के उन सभी प्रांतो में जहाँ धान की खेती होती है, रहता ही है. उष्णकटिबंधीय  प्रदेशों में इस कीट का प्रजनन पूरे वर्ष होता है, और अनुकूल वातावरण मिलने पर अक्टूबर - फरवरी तक इसकी संख्या में वृद्धि के साथ - साथ इसका प्रकोप भी बढ़ जाता है. जबकि उत्तर भारत में इसका प्रकोप अक्टूबर - सितम्बर के मध्य तक देखा जाता है. इस कीट का शिशु अथवा प्रौढ़ दोनों ही धान के पत्तियों एवं तनाओं का रस चूसकर क्षति पहुंचाते है, जिससे पत्तियों के ऊपरी सिरे पिली पड़ जाती है और पौधों की बढ़वार भी रुक जाती है। यह कीट धान में होने वाली कई भयावह रोगों का वाहक भी है जैसे धान का टुंग्रो विषाणु रोग तथा धान का पीलापन

प्रबंधनः

१) इस कीट के प्रबंधन हेतु धान लगी खेतों को एकान्तर सूखा और गीला करना चाहिए ताकी इसकी बढ़ती हुई संख्या को रोका जाये.

२) सघन खेती में इस कीट का प्रकोप ज्यादा होता है इसलिए धान की दो मोरियों के बीच २०×१५ से० मी० दुरी रखनी चाहिए.

३) कीट का प्रकोप शुरू होने पर १० दिन के अंतराल पर अंडा परजीवी क्रिप्टोरिनस लिविडिपेनिस का ५०-७५ अंडे प्रति मीटर क्षेत्रफल में प्रयोग करना चाहिए.

४) रसायनिक प्रबंधन  हेतु इमिडाक्लोप्रिड २०० एस० एल० नामक दवा का १०० मि० ली० मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से या क्वीनलफास २५ इ० सी० नामक दवा की २ ली० मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से पानी में मिला कर छिड़काव करना चाहिए.

धान का केसवर्म

यह कीट सर्वव्यापी है और धान उगने वाली सभी क्षेत्रों में पाया जाता है. यह कीट ज्यादातर तराई वाले हिस्से में पाया जाता है, जहा पानी स्थिर अवस्था में रहता है. सामान्यतः इस कीट के द्वारा धान की पैदवार में ५-२० प्रतिशत तक नुकसान होता  है. इस कीट की प्रौढ़ मादा धान की पत्तियों के निचली सतह पर लगभग ५० अंडे अकेले या ४ के समूह में देती है. इस कीट की नवजात सूंढ़ियाँ पत्तियों को मोड़कर एक बेलनाकार आवृति बनाकर रहती है, और २३-२८ दिनों में पूर्ण विकसित होकर व्यसक कीट निकलता है. यह कीट पत्तियों की ऊपरी सतह के उत्तको को खुरचकर खाता है, जिसके परिणामस्वरूप पत्तियों पर सफेद धब्बे बन जाते है. यह कीट अपनी बेलनाकार आकृति में पानी के उपर तैरती रहती है. इस कीट की सूंढ़ियाँ हीं मुख्य रूप से फसल को नुकसान पहुँचाती है. यह पत्तियों को किनारे से खाना शुरू करती है, और केवल मुख्य तने को छोड देती है. इस कीट के अधिक प्रकोप से पौधों का बढ़ना रूक जाता है और कभी-कभी पौधे सुख भी जाते है.

प्रबंधन

१) इस कीट के प्रबंधन हेतु खेतों से पानी को निकाल दे ताकि तैरती हुए सूंढ़ियाँ मर जाए.

२) खेतों के पानी में मिट्टी का तेल डालकर एक रस्सी के दोनों छोरों को पकड़ कर धान के पौधों को जोर से हिलाएं ताकि इस कीट की सूंढ़ियाँ नीचे गिरकर मर जाए.

३) रसायनिक नियंत्रण हेतु क्वीनलफॉस २५ इ० सी० नामक दवा की १.४ ली० मात्रा २५० ली० पानी में मिलकर एक हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए. धान में प्रायः कुछ रोग भी लगते है, जिनका प्रबन्धन किफायती उपज प्राप्त करने के लिए आवशयक है.

धान का झोंका रोग

यह रोग धान के सभी चरणों और पौधों के सभी भाग जो की मिटटी की सतह से ऊपर है उनको संक्रमित करता है. इस बीमारी के संक्रमण से पत्तियों पर छोटे छोटे धब्बे उत्पन हो जाते है और बाद में इन धब्बो का आकार बढ़ जाता है तथा धब्बो के मध्य में राख के रंग जैसा प्रतीत होता है. कभी कभी कुछ छोटे धब्बे मिल कर एक बड़े अनियमित आकार का धब्बा बना लेते है. यह धब्बे अक्सर आँखों के आकार के होते है.

प्रबंधनः

सबसे पहले कैप्टान या कार्बेन्डाजिम या थिराम या ट्राईसाइक्लोजोल के साथ 2.0 ग्राम प्रति कि ग्रा बीज लेकर बीज उपचार करें. धान के पौधे को नर्सरी से मुख्य खेत में लगाने से पहले उसके जड़ को लगभग ३० मिनट तक २.५ किग्रा स्यूडोमोनास फ्लुओरोसेंट १०० लीटर  पानी में डुबा कर रखें. मुख्य खेत में नाइट्रोजन उर्वरक का निर्धारित दर से ज्यादा उपयोग न करें. यदि संभव हो तो सहनशील किस्मो का ही उपयोग करें. बीमारी के लक्षण दिखाई देने पर ट्राईसाइक्लोजोल (१ ग्राम प्रति लीटर पानी के साथ) या कार्बेन्डाजिम (१ ग्राम प्रति लीटर पानी के साथ) या एडिफेनफोस ( १ मिलीलीटर प्रति १ लीटर पानी के साथ ) का छिड़काव करें.

धान का भूरी चित्ती रोग

धान की फसल में यह रोग नर्सरी तथा मुख्य खेत दोनों में ही लगता है. पत्तिओं पर बहुत छोटे भूरे रंग के धब्बे दिखाई पड़ते है जो बाद में लाल और भूरे रंग के गोलाकार तथा अंडाकार धब्बे बन जाते है. बहुत सारे धब्बे एक साथ संगठित होने लगते है और पत्तियाँ सूखने लगती है. यह रोग बीज से भी संक्रमित होते है तथा उनके ऊपर एक मखमली कवक की चादर दिखने लगती है. रोग से संक्रमित हुए बहुत सारे पौधों के समूह को उनके अलग रंग के कारण दूर से ही बड़ी सरलता से पहचाना जा सकता है. यह रोग फसल में ५० प्रतिशत से भी ज्यादा का नुकसान करने में सक्षम है.

प्रबंधन

बीज बोने से पहले उसे थिराम या कैप्टान (२ ग्राम प्रति १ किलोग्राम बीज के साथ) से उपचारित कर लें. यदि संभव हो तो सहनशील किस्मो का ही उपयोग करें. मुख्य खेत में मैंकोजेब (२ ग्राम प्रति लीटर पानी के साथ) का छिड़काव करें.

धान का टुंग्रो विषाणु रोग

धान का टुंग्रो विषाणु से संक्रमित पौधों का आकार बहुत ही छोटा हो जाता है तथा पत्तो की चैड़ाई भी कम हो जाती है. पत्तियों का रंग पीला या संतरी हो जाता है तथा जंग लगे प्रतीत होते है. इस प्रकार की विषमताए विषाणु से संक्रमित पोधो में प्रायः पत्तियों के बाहरी हिस्से से प्रारम्भ होकर अंदर की ओर होता है. यह विषाणु हरी पत्ती फुदक नामक कीट से फैलता है.

प्रबंधन

यदि संभव हो तो सहनशील किस्मो का ही उपयोग करें. पौधाशाला (नर्सरी) को दानेदार कीटनाशक से छिड़काव करना चाहिए. कीटो के निगरानी तथा नियंत्रण क लिए प्रकाश जाल लगाएं. पत्तिओ का पीलापन कम करने हेतु यूरिया ( २ प्रतिशत)  का छिड़काव करें। संक्रमण दिखाई पड़ने पर कार्बोफुराण ( १ किलोग्राम प्रति हेक्टेयर ) का छिड़काव करें. कोई भी दानेदार दवाई के प्रयोग से मुख्य फसल में टुंग्रो विषाणु को फैलने से रोका जा सकता है.

धान का झुलसा रोग 

इस रोग का प्रारम्भ में ही संक्रमण हो जाने से १०० प्रतिशत तक उपज में गिरावट हो जाती है. रोगजनक पौधों की जड़ तथा तने के पास घास के द्वारा पत्तियों में रंध्रो द्वारा प्रविष्ट होता है और संवहन तंत्र के भीतर बढ़ता है, इसलिए रोग के लक्षण प्रायः पत्तियों के ऊपरी भाग से आरम्भ होते हैं, जिसमें पीले या पुआल के रंग के लहरदार क्षतिग्रस्त स्थल पत्तियों के एक या दोनों किनारों के सिरे से प्रारम्भ होकर नीचे की ओर बढ़ते हैं और अन्त में पत्तियाँ सूख जाती हैं. यह रोग तेज वर्षा, सिंचाई के पानी तथा कीटों द्वारा तेजी से फैलता है. मृदा में नाइट्रोजन की अधिक मात्रा होने से रोग की उग्रता बढ़ती है. रोग के जीवाणु फसल के अवशेषों तथा खरपतवारों पर आश्रय लिए रहते हैं.

प्रबंधन

रोग रोधी किस्में ही उगाएं. संतुलित उर्वरकों का उपयोग करें तथा समय≤ पर पानी निकालते रहें. रोग के लक्षण प्रकट होने पर ७५ ग्राम एग्रीमाइसीन-१०० और ५०० ग्राम ब्लाइटाक्स का ५०० लीटर पानी में घोल बनाकर प्रति हैक्टर छिड़काव करें, १० से १२ दिन के अंतर पर आवश्यकतानुसार दूसरा एवं तीसरा छिड़काव करें.

धान का पर्णच्छद अंगमारी

अक्सर बारिश के मौसम में धान के पौधे इस रोग की चपेट में आ जाते हैं. अधिक बुवाई की दर या घनिष्ठ पौधे की दूरी, मिट्टी में रोग, और उच्च उपज वाली उन्नत किस्मों का उपयोग भी रोग के विकास का पक्षधर है. रोग के प्रारम्भ में अंडाकार या दीर्घवृत्तीय हरे रंग के घाव जैसे प्रतीत होने वाले निशान, आमतौर पर पत्ती के म्यान पर १-३ सेंटीमीटर लंबे होते हैं, जो शुरू में मिट्टी या पानी के स्तर से ऊपर होते हैं. अनुकूल परिस्थितियों में, ये प्रारंभिक घाव कई बार शीथ, पत्तियों के ऊपरी हिस्से तक भी फैल जाते हैं.

प्रबंधनः

उर्वरक को उचित दर में ही उपयोग करें. बुवाई से पहले २ ग्राम प्रति किलोग्राम के दर से बीज को कार्बेन्डाजिम से उपचारित कर लें. १ ग्राम कार्बेन्डाजिम ५० डब्लूपी (५४० ग्राम प्रति एकड़) या २ ग्राम मैन्कोजेब ७५ डब्लूपी १ लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें.

रितेश कुमार, गौतम कुणाल, अभिजीत घटक तथा अरुण पी. भगत 

पौधा रोग विभाग, सेंचुरियन प्रौद्योगिकी एवं प्रबंधन विश्वविद्यालय, ओडिशा

कीट विभाग, बिधान चंद्र कृषि विश्वविद्यालय, मोहनपुर, नदिया, पश्चिम बंगाल

पौधा रोग विभाग, बिहार कृषि विश्वविद्यालय, सबौर, भागलपुर, बिहार

English Summary: Disease and pest management in paddy crop Published on: 03 January 2022, 05:51 PM IST

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