मेंथा की खेती करने वाले किसानों को इस समय बहुत ही सावधान होने की जरूरत है. उनकी जरा सी भी लापरवाही पूरी फसल के साथ उनकी लागत और मेहनत को भी बर्बाद कर सकती है. ऐसा इसलिए क्योंकि विशेषज्ञों की मानें, तो बढ़ते तापमान में मेंथा की खेती को सिंचाई की जरूरत ज्यादा होती है. किसानों को समय पर सिंचाई करनी चाहिए, जहां दिन में तेज धूप हो, सुझाव यही है कि किसान शाम के समय खेतों में पानी लगाएं.
आपको बता दें कि किसानों को सिंचाई प्रबंधन (IRRIGATION SYSTEM) के साथ ही फसल प्रबंधन के तहत कीट और रोग से भी फसल को बचाना है. ऐसा इसलिए क्योंकि मेंथा (PEPPERMINT) में कई तरह के कीट और रोग फसल को नुकसान पहुंचाते हैं जिससे किसान को कम उत्पादन के साथ नुकसान हो सकता है. आज हम आपको मेंथा (mentha farming) की खेती में लगने वाले कीट और रोगों के बारे में बताने जा रहे हैं.
दीमक (Termite)
दीमक की वजह से भी मेंथा की फसल खराब हो सकती है. दीमक जमीन से लगे भीतर भाग से घुसकर फसल को नुकसान पहुंचाते हैं. इससे मेंथा के ऊपरी भाग को उचित पोषक तत्वों की पूर्ति नहीं मिल पाती है, जिससे पौधे मुरझा जाते हैं. साथ ही पौधों का विकास भी सही तरह से नहीं हो पाता है.
रोकथाम- फसल को दीमक से बचाने के लिए खेत की सही समय पर सिंचाई करना बहुत जरूरी है. साथ ही किसान खरपतवार को भी खेत से नष्ट कर दें.
माहू (Mahu)
ये कीट पौधों के कोमल अंगों का रस चूसते हैं और इनका प्रकोप फरवरी से मार्च तक रहता है. कीट के शिशु और प्रौढ़, दोनों पौधे को नुकसान पहुंचाते हैं. साथ ही पौधों की बढ़वार भी इनसे रुक जाती है.
रोकथाम- इसकी रोकथाम के लिए किसान मैटासिस्टॉक्स 25 ईसी 1 प्रतिशत का घोल बनाकर खेतों में छिड़क दें.
लालड़ी (Laldi)
ये कीट पत्तियों के हरे पदार्थ को खाकर उसे खोखला कर देते हैं और पत्तियों में पोषक तत्वों की कमी आ जाती है.
रोकथाम- इसकी रोकथाम के लिए कार्बेरिल का 0.2 प्रतिसत घोल बनाकर किसान 15 दिन के अंतराल पर दो-तीन बार छिड़कें.
जालीदार कीट (reticulated insect)
ये कीट लगभग 2 मिमी लम्बे और 1.5 मिमी चौड़े काले रंग के होते हैं. ये मेंथा की पत्तियों पर अपना प्रकोप दिखाते हैं. कीट पत्तियों और तने का रस चूसते हैं. इससे पौधे जले हुए दिखाई देते हैं.
रोकथाम- इस कीट की रोकथाम के लिए किसान डाइमेथोएट का 400 से 500 मिलि प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़कें.
पत्ती धब्बा रोग (leaf spot disease)
यह रोग पत्तियों की ऊपरी सतह पर भूरे रंग के रूप में दिखाई देता है. भूरे धब्बों की वजह से पत्तियों के अंदर भोजन निर्माण क्षमता आसानी से कम हो जाती है जिससे पौधे का विकास रुक जाता है. पुरानी पत्तियां पीली होकर गिरने लगती हैं.
रोकथाम- इस रोग की रोकथाम के लिए किसान कॉपर ऑक्सीक्लोराइड, डाइथेन एम-45 का 0.2 से 0.3 प्रतिशत घोल पानी में मिलाकर 15 दिन के अंतराल पर दो-तीन बार छिड़कें.
रतुआ रोग (Rust disease)
यह रोग पक्सिनिया मेंथाल नामक फफूंदी की वजह से होता है. इस रोग में तने का फूलना, ऐंठना और पत्तियों का मुरझाना शामिल है.
रोकथाम- इसके लिए किसान रोगरोधी किस्मों का ही चुनाव करें और साथ ही समय पर मेंथा की बुवाई करें.
सूंडी (Caterpillar)
इसका प्रकोप अप्रैल-मई की शुरुआत में होता है. इसका प्रकोप आपको अगस्त में भी देखने को मिल सकता है. इसके प्रकोप से पत्तियां गिरने लगती हैं और पत्तियों के हरे ऊतक खाकर सूंडी इन्हें जालीनुमा बना देती हैं. ये पीले-भूरे रंग की रोयेंदार और लगभग 2.5 से 3.0 सेमी लंबी होती हैं. इनसे पौधों का विकास सही तरह से नहीं हो पाता है.
रोकथाम- इसकी रोकथाम के लिए किसान 1.25 लीटर थायोडान 35 ईसी व मैलाथिऑन 50 ईसी को 1000 लीटर पानी में घोलकर प्रति हैक्टेयर की दर से छिड़कें.
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