नीम कोटेड यूरिया की वजह से अब देश के किसानों को सहज और पर्याप्त मात्रा में यूरिया की उपलब्धी हो रही है. इस उर्वरक के उपयोग से मिट्टी की परख में सुधार होकर फसल की उपज पर भी अच्छे परिणाम देखने को मिल रहे है. यूरिया का काला बाजार, भ्रष्टाचार खत्म हुआ यह अलग-सी उपलब्धी है.
यूरिया उर्वरक की किल्लत
21 जून 2008 : मराठवाडा के लातूर जिले के एक गांव चाकूर में खरीफ फसलों के उर्वरकों की खरीदारी केलिए तड़के सुबह से किसानों ने दुकानों के सामने लाईन लगाई थी. सूरज सिर पे चढता गया वैसे भीड भी बढती गई. लाईन में होने के बावजूद हमें यूरिया या डिएपी की बोरी मिलेगी या नही? इसे लेकर किसानों के मन में शंकाएं थी. ऐसे में बढते भीड़ के कारण हंगामा हो गया और भीड़ को काबू करने केलिए पुलिस ने किसानों पर लाठी चार्ज कर दिया उसमें एक किसान घायल हो गया.
25 जुलाई 2009 : सोलापूर जिले के कुर्डूवाडी गांव में उर्वरक लेने के लिए लाईन में खडे किसानों पर पुलिस ने लाठीचार्ज किया, जिसमें 3 किसान बुरी तरह से घायल हो गए. खरीफ का मौसम शुरू हो जाने के बाद यहां के किसानों को पर्याप्त मात्रा में खाद या उर्वरक नहीं मिल सका. और जिस दिन खाद दुकानों में आया तो वह लेने के लिए बड़ी मात्रा में भीड़ इकठ्ठा हुई. यहां की लाईन तो 3 कि०मी० से भी लंबी हो गई थी. देर तक लाईन में खडे होकर भी खाद नहीं मिली, तो किसानों के सब्र का बांध टूट गया और थोडी ही देर में यहां शोर-शराबा शुरू हो गया. उसके बाद वहां तैनात पुलिस हरकत में आ गयी और किसानों पर लाठीचार्ज कर दी. तड़के सुबह से आकर घंटों लाईन में खड़े होने के बावजूद उर्वरक तो नही मिले, पर लाठी की जख़्म किसानों को मिल ही गयी.
14 सितंबर 2010 : मराठवाड़ा के जिले परभणी में भी 14 सितंबर 2010 कुछ ऐसा ही हुआ जैसा की विगत वर्षों में कुछ जगहों पर उर्वरक लेने के दौरान किसान के साथ हुआ था. उर्वरक लेने के लिए लाईन में खड़े लोगों में हलचल मची तो पुलिस ने किसानों को बुरी तरह से पीटा. इस लाठीचार्ज में 11 किसान गंभीर रूप से घायल हुए. इनका जुर्म यही था की उन्हें फसल के लिए खाद की आवश्यकता थी, और उसके लिए वह सभी पैसे लेकर लाईन में खडे हो गये थे.
यह कुछ प्रातिनिधीक घटनाएं है. उर्वरकों के लिए लाईन लगाने की और लाईन में गड़बड़ी होने पर किसानों पर लाठीचार्ज करने की सैकड़ों घटनाएं 2014 तक घटती रही और हजारों किसान लाठीचार्ज में घायल हो चुके थे. एक समय ऐसाआया की 2007 के बाद तो खरीफ के समय बहुत से जिलो में उर्वरकों को पुलिस के निगरानी में वितरण और बेचना पड़ा. इसका प्रमुख कारण था, पर्याप्त मात्रा में किसानों के लिए उर्वरकों की उपलब्धी न होना. दुसरी ओर यूरिया जैसे खादों की काला बाजारी भी बढ गई थी. यूरिया यह सबसे जरूरी, सस्ता और आसानीसे उपलब्ध होने वाला रासायनिक खाद है, फसलों की बढ़त कायम रखने के लिए उसकी जरूरी होती है, पर यही यूरिया लाईन में लगकर, पुलिस के डंडे खाकर या फिर ज्यादा पैसे देकर ब्लैक में खरीदना पडता था. उन दिनों के अखबार, पत्रिकाएं और न्यूज चैनलों में भी किसानों के इसी हाल का प्रतिबिंब नजर आता है. किसानों से लेकर सरकार तक सभी इस समस्या को लेकर परेशान थे. इस पर शाश्वत रूप में उत्तर चाहते थे. पर समस्या तो खत्म होने का नाम ही नही लेती थी.
सिंथेटिक दूध की समस्या
उसी दौरान न्यूज चैनलों और अखबारों में एक और खबर की आबोंहवा चल रही थी, वो थी सिंथेटिक दूध की समस्या. 2008-09 से मिलावट वाली दूध की समस्या महाराष्ट्र समेत पूरे देश में व्यापक रूप अख्तियार कर चुकी थी. दूध में पानी डालने की बात तो आए दिन होती थी, पर उससे स्वास्थ्य को कुछ ज्यादा नुकसान नहीं पहुंचती थी, पर यहां तो पूरा दूध ही सिंथेटिक मटेरियल (कृत्रिम पदार्थ- synthetic material ) से बनाया जा रहा था.डिटर्जेंट, स्टार्च, यूरिया, तेल, शक्कर इन चीजों से बना यह सिंथेटिक मिल्क, कंपनियों की दूध की थैली में से थोड़ा-सा दूध निकालकर मिलावट कर दिया जाता था. महाराष्ट्र का नगर जिला, ज्योति मिल्क हब के नाम से पूरे राज्य में मशहूर है, इसी मिलावट वाली सिंथेटिक दूध की बजह से 2010 के समय बदनाम हुआ था. यहां की कई दूध डेयरी औरपॅकेजिंग युनिट्स को मिलावट के कारण अन्न और औषधी प्रशासनने सील करवा दिया था. 2013 की जुलाई में जलगांव जिले में अन्न और औषधी प्रशासन द्वारा दूध के मिलावट को उजागर करने की मुहिम चलाई गई. उस दौरान जलगांव के शहर और ग्रामीण इलाकों में से, दूध के कई नमूनों की जांच की गई. फूड सेफ्टी स्टैंडर्ड अथॉरिटी ऑफ इंडिया ( Food Safety and Standards Authority of India ) इस संस्था ने भी दूध की मिलावट के बारे में एक सर्व किया. उसमें एक गंभीर बात सामने आयी. शहरी इलाके में 68% और ग्रामीण इलाकों में 31 % मात्रा में दूध में मिलावट होती है. अक्सर दूध में फैट की मात्रा बढाने के लिए यूरिया का इस्तेमाल होता था. केवल दूध ही नही बाकी और इंडस्ट्रियल उपयोग हेतू गैरकानूनी तरीके से यूरिया का इस्तेमाल किया जाता था. जिसके परिणामस्वरूप बाजार में यूरिया की कमी होना लाजमी होता था.
किसानों का खाद के लिए लाइनों में घंटों खड़ा रहना और देशभर में सिंथेटिक दूध की लहर आना, यह दोनो घटनाएं वैसे देखने में अलग-अलग दिखती है. पर इन दोनो घटनाओं में एक चीज कॉमन है, और वो है यूरिया. एक तरफ किसानों को यूरिया नही मिल रहा था जिस वजह से ब्लैक में खरीदना पड रहा था, तो दूसरी ओर उसी यूरिया का इस्तेमाल कर मिलावटी दूध बनाकर देश के लोगों की जिंदगियों से खिलवाड़ किया जा था.
नीम कोटेड यूरिया ब्रिकेट
आज 2019 में ना आप को सिंथेटिक दूध की खबर सुननें को मिलती है, ना किसानों पर यूरिया या खाद के लिए लाठी चार्ज की मनहूस बातें. आज की तारिख में यह चित्र 180 डिग्री में बदल चुका है. एक छोटे से तरीके से इन समस्याओं का आसान हल निकाला गया है. और वह तरीका है नीम कोटेड यूरिया का. इस उपाय के मूल कारण को जानने के लिए पहले तो हमें पुणे और सातारा में जाना होगा. महाराष्ट्र के पुणे से लेकर महाबलेश्वर कोल्हापूर तक की सह्याद्री पर्वत की पश्चिम घाटी के प्रदेशों की पहचान अच्छे बारिश वाले प्रदेशों में है. यही वजह है यहां खरीफ के सीजन में धान की खेती होती है. जुलाई-अगस्त माह में अगर आप पुणे के मावल, सिंहगढ, भोर जैसे इलाकों में जाएंगे तो हवा की लहरों के साथ फैलती हुई चावल की खुशबू आप को भावविभोर कर देगी. लगभग 2002 में महाराष्ट्र के धान अनुसंधान केंद्र, इगतपुरी द्वारा धान की खुशबूदार जाति इंद्रायणी का आविष्कार किया गया. साथ ही में इसे उगाने की आधुनिक तरीका भी तय किया गया. जिसे चार सूत्री या चार सूत्र तरीके के नाम सें भी जाना जाता है. इस चार सूत्र या चार फॉर्म्युला में से एक था नीम कोटेड यूरिया ब्रिकेट. अगर यूरिया की एक छोटी सी गोली बनाकर उसे नीम का कोटींग किया जाता है, तो पानी से भरे धान के खेत में हर पौधे को अच्छी तरह से यूरिया खाद की पर्याप्त मात्रा मिल सकती है. इससे पहले किसान दानेदार यूरिया का धान की खेतों में प्रयोग करते थे. धान की खेतों में पानी भरा होता था जिस वजह से उर्वरक पानी में जाते ही बहुत जल्दी पानी में घुल जाता थाऔर बहते पानी के साथ खेतों में से बह भी जाता था. और फसलों पर उसका कोई लाभ नही होता था. लेकिन नीम कोटींग वाला यूरिया ब्रिकेट अगर धान के पौधों के मूल तक जमीन में डाला जाए तो नीम की कोटींग की वहज से पानी में रहने के बावजूद वो पानी में तुरंत घुलमिल नही पाता है. परिणामस्वरूप फसल को पुरी मात्रा में यूरिया या नाईट्रोजन की मात्रा मिल जाती है.
कृषि विभाग पुणे (महाराष्ट्र ) के एक अफसर वैभव पवार बताते है कि हमनें 2003-04 सें पुणे जिले के मावल प्रांत, जहां खरीफ के सीजन में धान की खेती की जाती है. उस गांव में धान की नई तकनीक हमलोगों के द्वारा पहुंचाई गई. कुछ गांव गोद भी लिए गए. पुणे के जाने माने पानशेत डैम के पास वाला कादवा नामक गांव कृषि विभाग ने ऐसे ही गोद लिया. चावल की आधुनिक खेती के तरीके और यूरिया ब्रिकेट के उपयोग से पहले ही साल याने 2004 में इस गांव के 15 किसानों की धान की उपज बढ गई. जहां पुराने तरीके सें किसान 1 एकड़ में महज 2 या 3 क्विंटल चावल उपजा पाते थे, वही नये तरीकें सें चावल की खेती करने पर उपज एकड़ में 10 से 15 क्विंटल तक बढ गई. इसका कारण था नीम कोटेड यूरिया ब्रिकेट. यह तकनीक इतना लोकप्रिय हुआ कि कुछ एनजीओ ने महिलाओं के सेल्फ हेल्प ग्रुप द्वारा नीम कोटेडे यूरिया बिक्रेट बनाने का व्यापक काम शुरू कर दिया.
पुणे की ज्ञानप्रबोधिनी संस्था से जुडे विवेक गिरधारी बताते है कि हमारी संस्था ने पुणे जिले के दुर्गम गावों में महिलाओं के समुहों को यूरिया नीम कोटेड ब्रिकेट बनानें का काम दिया था. नीम कोटेड ब्रिकेट से इन महिलाओं को रोजगार तो मिला ही साथ में यहां के धान के किसानों को पर्याप्त मात्रा में यूरिया ब्रिकेट की उपलब्धी होने लगी. उसके बाद मानों इस पूरे धान फसल क्षेत्र के भाग ही खुल गए. अब लगभग 15 सालों से यह प्रयोग चावल की खेती मे होता है, जिससे इस पूरे क्षेत्र के किसानों की आय में काफी बढोत्तरी हुई है. गत तीन-चार सालों में महाराष्ट्र में लगभग सभी जगह केवल नीम कोटेड यूरिया ही मिलता है. जब से यह नीम कोटेड यूरिया आया, तब से ना किसानों को लाईनों मे खडे होने की जरूरत पड़ती है और ना ही यूरिया में किसी और चीज की मिलावट का डर होता है. किसानों को पर्याप्त मात्रा में यूरिया मिलने लगा है.
महाराष्ट्र के नासिक शहर से लगभग 30 किलोमीटर की दूरी पर कोटमगांव नाम का 2 हजार जनसंख्या का छोटा-सा गांव है. गांव में 10 प्रतिशत किसान है. गेहूं और मक्का के साथ यहां ज्यादातर सब्जियों की फसल किसान लेते है. बैगन, टमाटर, गोभी, फूल और साथ मे गन्ने की खेती भी यहां पर की जाती है. पोपटरावो म्हस्के इसी गाव के किसान है. वे बताते है, ‘मै 35 साल से खेती करता आ रहा हूं. इन सालों में उर्वरकों की चिंता रहती थी. इनमें सबसे ज्यादा यूरिया की चिंता सताती थी. बहुत बार ब्लैक मार्केट से यूरिया खरीदना पडता था. मैने खुद 350 में यूरिया की बोरी खरीदी थी. अब तीन चार सालों से हमें आसानीसे यूरिया मिल रहा है और वो भी सस्ते दाम पर. नीम कोटेड यूरिया के आ जाने से कृषि क्षेत्र में मानों एक चमत्कार ही हुआ है.
बालासाहब म्हस्के इसी कोटमगाव के युवा किसान और ग्रामपंचायत के विदयमान सरपंच भी है. वे बताते है की हमारे गांव में लगभग 500 किसान है. तीन-चार सालों से यहां सब नीम कोटेड यूरिया का इस्तेमाल कर रहे है. आमतौर पर यूरिया और पानी इनका गहरा नाता होता है. जैसे ही आप फसलो में यूरिया की मात्रा दे दे, तो उसके तुरंत बाद आपको फसलों में पानी भरना पडता था. ऐसा ना करने पर उडनशील होने की वजह से खेतों में डाला हुआ यूरिया बाष्पीभूत होके आधे से भी कम रह जाता है. जिसका कुछ खास लाभ फसलों को नही मिल पाता. दुसरी बात यह है की हमारे गांव में बिजली की लोड शेडिंग होती है, जिसके कारण कभी कभार बिजली रात को आ जाती है. ऐसे में अगर दिन में यूरिया डाले तो रात में पानी भरना पडे, यह बड़ी दिक्कत की बात होती थी. पर नीम कोटेड यूरिया ने हमारे यहां के किसानों की समस्या ही खत्म कर दी. नीम की परख होनेकी वजह से इसका बाष्पीभवन नही होता है. तो खेतों में डालने के बाद पांच-छः घंटो के बाद आराम से फसल को पानी दिया तो भी चलता है. अब किसानों का पूरा फायदा ही हो रहा है.’’
इसी गांव के किसान शिवराम मस्के ने बताया की हमारे गांव में अब किसान नीम कोटेड यूरिया ही खरीदते है, पहले जैसा यूरिया मिल भी जाए तो भी कोई किसान अब उसे नही खरीदेगा’.
अंबादास घुगे ने हाल ही में एक ट्रैक्टर खरीदा है. नीम कोटेड यूरिया से पैसों की बचत तो हुई साथ में उपज में बढोत्तरी भी हुई यही. अब वह नये कृषि यंत्र का उपयोग करके अपने परिवार को अधिक संपन्न बना रहे है.
नाशिक से 25 किलोमीटर पूर्व की ओर मोहाडी नाम का एक गांव है. हाल ही में कार्यान्वित हुए नासिक एअरपोर्ट से बिल्कुल 4 किलोमीटर की दूरी पर यह गांव है. यहां के किसान काफी आधुनिक तकनीक का उपयोग खेती में करते है. टपक् सिंचाई तंत्र का उपयोग करके पानी का सही मात्रा में उपयोग करना इस गव के किसानों की खासियत है. और एक खासियत यह भी है कि गांव में अंगूर के अलावा शेडनैट और पॉलीहाऊस में खेती की जाती है. यहां किसानों के पास खुद का पैक हाऊस भी है. पास ही में एअरपोर्ट और कार्गो हब होने की वजह यहां किसानों ने एक्सपोर्ट क्वालिटी की कृषि उपज, जैसे की अंगूर, सब्जियां, फूल लेनी शुरू की है. इस गांव में ज्यादातर किसान खेतों में रहते है, ताकि अच्छी तरह से खेतीबाड़ी कर सके. यहां पॉलीहाऊस या अंगूर के खेतों के पास किसानों के बडे-बडे बंगले नजर आते है और एसयुव्ही जैसी गाड़ियां भी.
इस गांव के विलास मौले ऐसे ही नए विचार और कृषि यंत्र का उपयोग करने वाले युवा किसान है. अंगूर, सब्जियां और पॉलीहाऊस में गुलाब की खेती वह करते है. उनके गुलाब फूल एक्सपोर्ट भी होते है. खेती के बारे में उन्हें अच्छी जानकारी है. विलास मौले बताते है कि, ‘तीन सालों से उन्हे नीम कोटेड यूरिया मिल रहा है. गेहूँ, धनिया और अंगूर की खेती में मैं इसका इस्तेमाल करता आ रहा हूं. देखिए अंगूर हो या गुलाब के फूल, हर फसलों के जड़ों पर छोटे-छोटे निमॅटोडस् होते है. उनका काम ही है कि वो उपरी खाद में से नाइट्रोजन को खिंचकर नाइट्रेट्स में बदल देना. पौधे केलिए यह बडे उपयुक्त प्रक्रिया है. यूरिया पर नीम की परख होने से मिट्टी के बैक्टीरिया या पौधे पर जमा होने वाले बैक्टीरिया या वायरस की समस्या अब लगभग खत्म हो गई है. इनसे छुटकारा पाने के लिए किसानों को स्वतंत्र रूप में औषधीयों का प्रयोग करना पडता था. अब उसकी जरूरत नही. मेरी बात करे तो हमारी खेती को, फसलों को इस नीम कोटेड यूरिया से काफी फायदा हुआ है.’
नाशिक या पुणे जैसे पानी वाले जिलों की तरह ही मराठवाड़ा जैसे कम बारीश वाले जिलों के किसानों को भी नीम कोटेड यूरिया से काफी राहत मिली है. फसलों मे, उपज में फायदा भी बहुत हुआ है. मराठवाड़ा के एक मुख्य जिला औरंगाबाद से लगभग 50 किलोमीटर की दूरी पर देवगाव रंगारी नाम का एक छोटा सा गांव बसा हुआ है. औरंगाबाद से लातूर जाने वाले हाइवे से बस कुछ ही दूरी पर गांवों की खेती है. कुछ 10 साल पहले गांव के 20-25 युवा किसान इकठ्ठा हुए और उन्होंने ग्रूप फार्मिंग करने का संकल्प किया. उसके लिए महाराष्ट्र सरकार की आत्मा जैसी योजनाओं की तथा नाबार्ड की ग्रुप फार्मिंग जैसी योजनाओं का लाभ उन्होने लिया. यहां की मुख्य फसल है. खरीफ में कपास और रबी में जवार, मक्का. 2012 में जब मराठवाड़ा में भीषण अकाल पड़ा. तो इसी गांव के इस जय जवान, जय किसान नामक किसान के गुट ने 55 मायक्रान के पॉली मल्चींग पेपर के इस्तेमाल का अनोखा प्रयोग किया था. इस प्रयोग से उन्होने अपनी मौसंबीयों के बागिचों को अकाल में भी जीवित रखा. इस अनूठे और सस्ते प्रयोग की बहुत चर्चा हुई थी. और नेशनल हॉर्टिकल्चर बोर्ड के तब के डायरेक्टर ने खुद देवगांव में आकार इस प्रयोग की जानकारी ली. साथ ही में ऐसे प्रयोगों के लिए सब्सिडी की योजना भी बनाई.
इस योजना को आकार देने वाले और गांव के समूह खेती के प्रवर्तक किसान दीपक जोशी बताते है नीम कोटेड यूरिया के फायदे ‘ यहां की प्रमुख खरीफ फसल है कपास. पहले किसान जो यूरिया का प्रयोग करते थे, उसके उड़नशील गुण के कारण फसलों में डाले हुए 50 % यूरिया हवा के साथ संपर्क आने से वाष्परूप होता था. जरुरी मात्रा में फसलों को यूरिया ना मिलने के कारण फसल कमजोर हो जाती थी. और फिर दुबारा किसान यूरिया देने चल पड़ता था. इससे दोगुना खर्चा होता था. मिट्टी का और जमीन का जो नुकसान होता था वह अलग. पर अब नीम कोटेड यूरिया से बाष्परूपन की प्रक्रिया नही होती है और किसानों के आधे पैसे बच जाते है. मराठवाड़ा जैसे ड्रॉट प्रोन एरिया में जहां किसान की आय बहुत ही कम हो, वहां उर्वरकों पर आधा पैसा बच जाना यह बहुत बड़ी उपलब्धि है.’
दीपक जोशी के समूह में शहादेव ढाकणे, अशोक बारहाते, विजय ढगे ऐसे और भी 100 किसान है. यह सभी किसान अब समूह में रहकर खेती करते है और नीम कोटेड यूरिया का उपयोग भी. इस वर्ष में यहां बारिश ने फिर अपना मुँह मराठवाड़े से फेर लिया तो पानी का संकट फिर से पैदा हो गया. ऐसे मे यह किसान मायूस ना होकर सेरीकल्चर जैसे नये तकनीक का फसल पर प्रयोग कर रहे है. शहादेव ढाकणे की रेशम खेती की पहली बॅच अब तैयार हो चुकी है. रेशम खेती में नीम कोटेड यूरिया के प्रयोग से उन्हे काफी अच्छे परिणाम मिले है. ‘जब तक किसान में लड़ने की और कुछ नया करने की हिम्मत है, तब तक उसे कोई परिस्थिति हरा नही सकती, अकाल भी नहीं, किसान को चाहिए की उर्वरकों का प्रयोग आवश्यकता अनुसार ही करे, नीम कोटेड यूरिया के कारण यह संभव हुआ है.’
आलेख : पंकज जोशी, नाशिक. (लेखक वरिष्ठ कृषि पत्रकार है.)
एडिटर : विवेक राय, कृषि जागरण
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