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नई तकनीक बनाम परंपरागत ज्ञान: संतुलित कृषि ही भविष्य का समाधान!

30 मार्च 2025 से विक्रम संवत 2082 की शुरुआत होगी, जो केवल नया वर्ष नहीं बल्कि भारतीय कृषि प्रणाली के पुनरुत्थान का अवसर है. जानिए कैसे प्राचीन संवत्सर आधारित खेती, आधुनिक विज्ञान से अधिक टिकाऊ और जलवायु-अनुकूल थी, और कैसे इसे पुनर्जीवित कर कृषि संकट से उबरा जा सकता है.

Time to revive Indian agriculture tradition
भारतीय कृषि परंपरा की पुनर्स्थापना का समय (Image Source: Freepik)

30 मार्च 2025 से विक्रम संवत 2082 की शुरुआत होगी. परंतु अंग्रेजीपरस्त तथा अंग्रेजी कैलेंडर के आदी हो चुके भारतीय समाज के एक बड़े हिस्से को नववर्ष के इस महापर्व की खबर तक नहीं होगी. आधुनिकता के नाम पर हमने पश्चिमी कालगणना को अपनाकर अपने संवत्सर को भुला दिया. यही कारण है कि हमारी कृषि, जो कभी प्राकृतिक चक्रों और मौसम की सटीक समझ पर आधारित थी, अब बाजार केंद्रित तकनीकों की प्रयोगशाला बनकर जलवायु संकट, घटती उर्वरता और किसान आत्महत्याओं की त्रासदी झेल रही है.

संवत्सर मात्र तिथियों का क्रम नहीं, बल्कि भारतीय कृषि प्रणाली का वैज्ञानिक दिशासूचक था. यह प्रकृति, ऋतु परिवर्तन और कृषि कार्यों के बीच के संतुलन का अद्भुत उदाहरण था.

संवत्सर और भारतीय कृषि का गहरा संबंध : विक्रम संवत का हर वर्ष खगोलीय गणनाओं और कृषि चक्रों पर आधारित था. नवसंवत्सर का प्रारंभ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को होता है, जब वसंत ऋतु अपने चरम पर होती है और खेतों में गेहूं, चना, सरसों, मसूर जैसी रबी फसलें पककर तैयार होती हैं. इसी समय खरीफ फसलों की बुवाई की तैयारी शुरू होती है.

गुड़ी पड़वा, युगादि, चैत्र नवरात्रि, बैसाखी, पुथंडु आदि सभी पर्व वस्तुत: कृषि-पर्व हैं तथा संवत्सर प्रणाली के अनुसार ही तय होते हैं.

प्राचीन कृषि ज्ञान: आधुनिक विज्ञान के लिए चुनौती: आज विज्ञान जिन तकनीकों को नई खोज बता रहा है, वे हजारों वर्ष पहले भारतीय कृषि ग्रंथों में दर्ज थीं. विशेष रूप से नैसर्गिक कृषि पद्धति के मामले में भारत को संदेश विश्व का अगुवा कहा जा सकता है.

1️. फसल चक्र और मिट्टी की उर्वरता: महर्षि पाराशर द्वारा रचित 'कृषि पाराशर' में स्पष्ट निर्देश था कि हर चार वर्षों में खेत को एक वर्ष विश्राम देना चाहिए, ताकि उसकी उर्वरता बनी रहे. आधुनिक कृषि विज्ञान इसे फसल चक्र (Crop Rotation) कहता है, लेकिन भारतीय किसान इसे सदियों से जानते थे.

2️. मिश्रित खेती और पारिस्थितिक संतुलन :  सुरपाल' लिखित दुर्लभ ग्रंथ 'वृक्षायुर्वेद'  के अनुसार, कुछ फसलें परस्पर पूरक होती हैं. जैसे:

वर्तमान में इन्हीं सिद्धांतों का प्रयोग करते हुए कोंडागांव बस्तर में काली मिर्च को ऑस्ट्रेलियाई टीक अन्य ऊँचे वृक्षों के साथ उगाकर बेहतर गुणवत्ता की दुगनी, चौगुनी पैदावार ली जा रही है.

धान और दलहन (अरहर, मूँग, उड़द) को साथ उगाने से मिट्टी में नाइट्रोजन संतुलन बना रहता है.

3️. प्राकृतिक ग्रीनहाउस और जल संरक्षण:  आज नेचुरल ग्रीनहाउस को क्रांतिकारी खोज माना जा रहा है, लेकिन इसकी प्रेरणा भी मूलतः प्राचीन भारतीय कृषि ज्ञान कोष से ही ली गई है. इसमें पेड़ों की छाया में नमी संरक्षण, जल स्रोतों के समुचित टिकाऊ दोहन, जल स्रोत के पास खेती, और जैविक मल्चिंग तकनीकों का उपयोग कर तापमान और नमी संतुलन बनाए रखा जाता था.

4️. संवत्सर आधारित मौसम भविष्यवाणी और कृषि योजना: प्राचीन वैज्ञानिक वराहमिहिर द्वारा रचित 'बृहत्संहिता'  में 'वृक्षायुर्वेद' पर भी एक अध्याय है. बृहत्संहिता और घाघ-भड्डरी की कहावतें किसानों में अनाज भी मौसम पूर्वानुमान के लिए प्रासंगिक हैं. नक्षत्रों और चंद्रमा की चाल के आधार पर बुवाई और कटाई का समय निर्धारित किया जाता था. हाल ही में NASA ने भी यह सिद्ध किया है कि चंद्रमा का गुरुत्वाकर्षण पौधों के जल अवशोषण और वृद्धि को प्रभावित करता है.

तकनीक का विवेकपूर्ण उपयोग आवश्यक : नई वैज्ञानिक तकनीकों का संतुलित और विवेकपूर्ण उपयोग आवश्यक है. परंतु अंधानुकरण घातक हो सकता है. उदाहरण के लिए:

जीएम (Genetically Modified) फसलें – मानव जाति के लिए क्रांतिकारी खोज बताई जा रही हैं, लेकिन इनके मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण पर दूरगामी प्रभावों का पर्याप्त अध्ययन नहीं हुआ है. क्या मानव डीएनए पर इनके दीर्घकालिक प्रभावों का विश्लेषण हुआ है? नहीं!

रासायनिक खेती – अल्पकालिक उत्पादन बढ़ाती है, लेकिन दीर्घकाल में मिट्टी, जल और जैव विविधता को नष्ट कर देती है.

 संतुलित कृषि पद्धति की आवश्यकता – आधुनिक विज्ञान को पारंपरिक ज्ञान के साथ मिलाकर ऐसी कृषि पद्धति विकसित करनी होगी जो जलवायु संकट और पर्यावरणीय क्षति से बचाव कर सके.

संवत्सर 2082 का संकल्प: कृषि पुनर्जागरण

विक्रम संवत 2082 केवल एक नया साल नहीं, बल्कि भारतीय कृषि परंपरा के पुनर्जागरण का अवसर है. हमें अपनी संवत्सर आधारित कृषि प्रणाली को पुनर्जीवित करना होगा, ताकि हमारी खेती फिर से जलवायु अनुकूल, लाभदायक और सतत टिकाऊ बन सके. हमारे पुरखों ने ही कहा है  "कृषिर्न जीवनस्य मूलं, धात्र्याः सौंदर्यमेव च." अर्थात: कृषि ही जीवन का मूल है और धरती माता का सौंदर्य है.

अब समय आ गया है कि हम परंपरागत कृषि ज्ञान और आधुनिक विज्ञान को मिलाकर भविष्य के लिए संतुलित कृषि मॉडल तैयार करें. यही सच्चे अर्थों में नवसंवत्सर का संदेश है!

English Summary: New technology vs traditional knowledge balanced agriculture solution for future Published on: 03 April 2025, 11:51 IST

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