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अधिक आय और पर्यावरण सुरक्षा के लिये, खेती ऐसे करें

परम्परागत कृषि में खरपतवार नियंत्रण, अच्छी बुआई तथा जमीन में वायु संचार तथा जल संरक्षण हेतु अधिक जुताई पर जोर दिया जाता रहा है। बदलते कृषि परिवेश में मृदा में कार्बनिक पदार्थ की कमी होने, कृषि लागत में बढ़ोतरी तथा खरपतवारों के नियन्त्रण हेतु अन्य विकल्प उपलब्ध होने से संरक्षित खेती को बढ़ावा मिल रहा है। संरक्षित खेती के मुख्यतयाः तीन घटक है।

परम्परागत कृषि में खरपतवार नियंत्रण, अच्छी बुआई तथा जमीन में वायु संचार तथा जल संरक्षण हेतु अधिक जुताई पर जोर दिया जाता रहा है। बदलते कृषि परिवेश में मृदा में कार्बनिक पदार्थ की कमी होने, कृषि लागत में बढ़ोतरी तथा खरपतवारों के नियन्त्रण हेतु अन्य विकल्प उपलब्ध होने से संरक्षित खेती को बढ़ावा मिल रहा है। संरक्षित खेती के मुख्यतयाः तीन घटक है।

1. शून्य कर्षण क्रिया व कम जुताई से खेती करना

2. फसल अवशेषों का पलवार व मल्चिंग के रूप में पुनःचक्रीकरण

3. उचित फसल विविधीकरण व फसल चक्र अपनाकर दलहनी फसलों का समावेश

संरक्षित खेती की जरूरत क्यों ?

वर्तमान कृषि परिपेक्ष में पारम्परिक खेती से किसान अधिक आय लेने में असमर्थ हो रहा है जिसकी मुख्य वजह जमीन की सघन जुताई करने से मृदा कार्बन में कमी तथा मृदा व जल अपरदन में बढ़ोतरी, कृषि कार्य में प्रयुक्त होने वाले ईधन के मूल्य में लगातार बढ़ोतरी तथा घटती संसाधन उपयोग दक्षता है। संरक्षित खेती प्रणाली में फसलों की पैदावार के साथ-साथ प्राकृतिक संसाधनों जैसे कि मृदा, पानी, पोषक तत्व, फसल उत्पाद और वातावरण की गुणवता में बढ़ोतरी होती है। अतः कृषि को टिकाऊ बनाने वाली प्रणाली के रूप में संरक्षित खेती प्रणाली को देखा जा रहा है क्योंकि यह प्रणाली पर्यावरण के साथ मेलजोल रखती है।

संरक्षित खेती का इतिहास व वर्तमान स्थिति :

संयुक्त राष्ट्र के कृषि एंव खाद्य संगठन (एफ.ए.ओं) के एक अनुमान के अनुसार वैश्विक स्तर पर लगभग 15.6 करोड़ हैक्टेयर क्षेत्र में संरक्षित खेती की जा रही है तथा इसके क्षेत्रफल में निरन्तर वृद्धि हो रही है। अमेरिका, ब्राजील, अर्जेन्टिना तथा ऑस्ट्रेलिया में मुख्य रूप से संरक्षित खेती का क्षेत्रफल है।

हमारे देश में इस प्रणाली की संस्तुति तो 1970 के दशक से की जा रही है लेकिन तब इस हेतु उपर्युक्त मशीनरी न होने व खरपतवार नियन्त्रक के विकल्प ज्यादा नहीं होने से हमें कामयाबी नहीं मिली। लेकिन पिछले 2 दशकों से हमें इस क्षेत्र में अभूतपूर्व सफलता मिली हैं जिसके फलस्वरूप मुख्य रूप से धान-गेहूँ फसल चक्र में लगभग 15 लाख हैक्टेयर में इस प्रणाली से खेती की जा रही है। अन्य क्षैत्रों व फसल चक्रों (फोटो 1 व 2) में भी इस प्रणाली के आशातित परिणाम मिलने की वजह से इसके अन्तर्गत क्षेत्रफल में बढ़ोतरी की प्रबल सम्भावना है।

फोटो 1 व 2 :  संरक्षित खेती प्रणाली से कपास व गेहूँ का उत्पादन

संरक्षित खेती कैसे करे ?

इस खेती प्रणाली में हमारी परम्परागत कृषि प्रणाली से हटकर तीन मुख्य घटकों पर इसकी सफलता टी की हुई है। जो निम्न प्रकार है :

(अ) कम जुताई या शून्य कर्षण क्रियाएं : इसमें भूमी की कम से कम जुताई की जाती है तथा यथासंभव फसल को जीरो टीलेज सीड कम फर्टीलाइजर मशीन (फोटो 3) से बुआई की जाती है। भूमि की कम जुताई से   इसमें  लगने वाली लागत, समय तथा ऊर्जा की बचत होती है। इसके साथ-साथ जुताई के लिए मशीन का कम प्रयोग होने से मृदा से उत्सर्जित होकर वायुमण्डल में मिलने वाली गैसों जैसे की कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन, नाईट्रस ऑक्साइड आदि में कमी पायी जाती है तथा मिट्टी में सूक्ष्मजीव भी संरक्षित रहते है जिसके कारण मिट्टी की भौतिक दशा व उर्वराशक्ति में वृद्धि होती है।

फोटो 3 : संरक्षित खेती हेतु जीरो टीलेज सीड कम फर्टीलाइजर मशीन का प्रयोग

(ब) फसल अवशेषों का मल्चिंग के रूप में पुनःचक्रीकरण : इसमें पूर्ववर्ती फसल के अवशेषों को न जलाकरण उनका मल्चिंग के रूप में उपयोग किया जाता है। ऐसा करने से मृदा में पौषक तत्व तथा नमी बनी रहती है तथा ये संरक्षित पौषक तत्व व नमी फसलों की जड़ों को उपलब्ध होती है तथा खरपतवार का उगना   कम होता है। इस प्रकार फसल अवशेषों को किसान द्वारा न जलाने से वायुमण्डल पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभाव से बचा जा सकता है।

(स) उपर्युक्त फसल चक्र व फसल विविधीकरण : इस तीसरे व अत्यन्त महत्वपूर्ण घटक में खेत में वर्ष में पर्युक्त फसल चक्र अपनाकर दलहनी फसलों का समावेश सुनिश्चित किया जाता है। जैसे धान-गेहूँ फसल चक्र में शीघ्र पकने वाली मूँग अथवा उदड़ का समावेश करने से अतिरिक्त आय के साथ-साथ मृदा उर्वरता में आशातित वृद्धि देखी गई है। ऐसा करने से खेत में एक ही तरह के कीड़े-मकोडे़, खरतपवार तथा बीमारियों के प्रकोप से छुटकारा पाया जा सकता है। क्षेत्र विशेष की जलवायु तथा उपलब्ध संसाधनों को देखते हुए वैज्ञानिक तरीके से एक ही खेत में उचित फसल चक्र व फसल विविधिकरण करना संरक्षित खेती हेतु महत्वूपर्ण अवयव है।

संरक्षित खेती के लाभः

(अ) फसल उत्पादन में टिकाऊपन तथा उपज में वृद्धि :- धान गेहूँ फसल प्रणाली में टिकाऊपन लाने व उपज वृद्धि करने में इस प्रणाली से भारत के उतर-पश्चिम क्षेत्र में सबसे अधिक सफलता मिली है। विभिन्न अनुसंधानों तथा सर्वे से ज्ञात हुआ है कि उत्तरी-पश्चिमी भारत में धान-गेहूँ फसल प्रणाली में गेहूँ को जीरों टिलेज से उगाने से 7-8 प्रतिशत की अधिक पैदावार देखी गई है।इसी प्रकार गंगा-यमुना नदी के पूर्ववर्ती मैदानों वाले क्षेत्र में जीरो टीलेज तकनीक से गेहूँ की समय पर बुआई करने से 4 से 10 क्विंटल/हैक्टेयर की अधिक पैदावार प्राप्त हो रही है। इस प्रणाली से     बुआई करने से कम से कम एक सप्ताह की समय की बचत होने से अधिक पैदावार लेना सम्भव हो रहा है।

(ब) मृदा गुणवता व उर्वरा शक्ति में सुधार :- संरक्षित खेती प्रणाली से मृदा में कार्बनिक पदार्थ की मात्रा बढ़ने, मृदा व जल अपरदन में कमी होने तथा सूक्ष्म जीवों की क्रियाशीलता बढ़ने तथा मृदा की भौतिक व रासायनिक दशा सुधरने से मृदा की उर्वराशक्ति व उत्पादकता में वृद्धि देखी गई है। मृदा की दशा में सुधार होने से वर्षा जल का मृदा में अधिक संचय तथा फसल की उपलब्धता बढ़ने से वर्षा आधारित क्षेत्रों में भी अधिक पैदावार के नतीजे मिले है।

(स) उत्पादन लागत में कमी व आर्थिक लाभ :- विभिन्न क्षेत्रों में किसानों के अनुभव व अनुसंधान नतीजों से ज्ञात हुआ है कि संरक्षित कृषि प्रणाली से प्रति हैक्टेयर लगभग 2500 रू. की बचत तथा जुताई में प्रयुक्त होने वाले डीजल में 50-60 लीटर की कमी पाई गई है।

नीचे दि गई सारणी के अनुसार एक अध्ययन में ज्ञात हुआ है कि जीरो टीलेज अपनाने से कृषि लागत कम होने तथा उपज में वृद्धि होने से 5000-6000 रू/ है तक कृषि आय में बढ़ोतरी दर्ज की गई है।

सारणी : गंगा-यमुना के मैदानी क्षैत्रों में संरक्षित खेती प्रणाली के प्रभाव का सांराश

सूचक     मात्रा

1. सीधे रूप से प्रभावित किसान परिवार             6,20,000/-

2. क्षेत्रफल 17.6 लाख है0

3.  उत्पादन लागत में कमी     3000-3500 रू./ है

4. कृषि आय में अधिक उत्पादन से बढ़ोतरी      5000-6000 रू./ है

5. वास्तविक कृषि आय में बढ़ोतरी     11000-21000 रू./ कृषक परिवार

 स्त्रोंत : इरेस्टीन व लक्ष्मी (2008)

(द) पर्यावरण संरक्षण में योगदान :- संरक्षित खेती प्रणाली अपनाने से मृदा स्वास्थ्य में सुधार तथा गुणवता में बढ़ोतरी हुई है। फसलों के अवशेषों का पुनःचक्रीकरण करने से उनके जलाने पर होने वाले प्रतिकूल प्रभावों से निजात पाई जा रही है साथ ही मृदा उर्वरता में बढ़ोतरी भी हो रही है। नई मशीन जैसे हैपी सीडर व ट्रर्बो प्लान्टर (फोटो 4) इत्यादि के इस्तेमाल से लगभग 8-10 टन/ है फसल अवशेषों के साथ भी अगली फसल की बुआई सफलतापूर्वक की जा रही है।

फोटो 4 : संरक्षित खेती में फसल अवशेष के साथ बुवाई करने हेतु ट्रर्बो प्लान्टर

वर्तमान में इस प्रणाली में कम जुताई करने से डीजल की खपत कम होने के कारण वातावरण को दूषित होने से बचाव हो रहा है तथा ईधन के जलने से निकलने वाली हानिकारक गैसों की वातावरण में सान्द्रता कम हो रही है जिससे जलवायु में होने वाले परिवर्तन की दर धीमी पड़ने की सम्भावना है।

 

डॉ. कुलदीप कुमार, डॉ. अशोक कुमार, डॉ. राजीव कुमार सिंह, डॉ. बी.एल. मीना,

भा.कृ.अनु.प- भारतीय मृदा एंव जल सरक्षण संस्थान, अनुसंधान केन्द्र, कोटा, राजस्थान-324002

English Summary: For more income and environmental protection, cultivate this Published on: 14 August 2018, 12:01 IST

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