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पेड़ तुम्हारे, ज़मीन तुम्हारी, फिर भी पूछो सरकार से कि काट सकते हो या नहीं!

भारत हर साल 40,000 करोड़ रुपए से अधिक का टिंबर और नॉन-टिंबर उत्पाद आयात करता है—फिर भी किसान को अपने खेत का पेड़ काटने के लिए चार विभागों से अनुमति लेनी होती है. देश के 85% किसानों के पास चार एकड़ से भी कम भूमि है—क्या वे डिजिटल पोर्टल, KML फॉर्मेट, वीडियोग्राफी जैसी जटिलताओं से जूझ पाएंगे?

Farmers Rights
देश के 85% किसानों के पास चार एकड़ से भी कम भूमि है—क्या वे डिजिटल पोर्टल, KML फॉर्मेट, वीडियोग्राफी जैसी जटिलताओं से जूझ पाएंगे? (प्रतीकात्मक तस्वीर)

हर बार जब सरकार कोई नया कानून लाती है और कहती है कि यह “किसानों के हित में” है, तभी किसान का मन किसी अघोषित आपातकाल की तरह कांप उठता है. पहले 'भूमि-अधिग्रहण' आया—जिसका अर्थ किसानों की ज़मीन हड़प कर कॉर्पोरेट की थाली सजाना था. फिर आए तीन कृषि कानून ! जिन्हें बिना किसानों से राय लिए, तथाकथित नीति-निर्माताओं की रसोई में पका कर संसद की थाली में परोस दिया गया. परिणाम? पूरे देश के किसानों ने सड़कों पर उतरकर उनका स्वाद चखवा दिया और सरकार को वह खाना ठंडा करके वापस करना पड़ा.

अब नया शिगूफा है:  “मॉडल नियम कृषि भूमि में पेड़ काटने के लिए.” पहली नज़र में लगेगा , वाह! सरकार किसानों को वन-सम्पदा से जोड़ रही है. पर ज़रा भीतर जाइए! यह नियम असल में पेड़ काटने का नहीं, किसान की जड़ें काटने का दस्तावेज़ है.

पेड़ लगाओ, पर पहले चार विभागों की चारधाम यात्रा करो :-

वर्तमान स्थिति तो और भी अधिक जटिल और हतप्रभ करने वाली है. आज देशभर में लाखों किसान अपनी प्रेरणा से, मुनाफे की आशा से, या इमारती पौधे बेचने वाली कंपनियों के मोह-जाल में आकर खेतों में सागौन, शीशम, गम्हार जैसे पेड़ लगा चुके हैं. परंतु जब वे इन पेड़ों को काटने जाते हैं, तो वन विभाग के कर्मचारी स्वयंभू न्यायाधीश बनकर किसान की गर्दन पकड़ लेते हैं. किसान का ट्रैक्टर, जिस पर वह अपना ही पेड़ लादे होता है, जप्त कर लिया जाता है और उसे छुड़ाने के लिए महीनों कोर्ट-कचहरी की दौड़ लगानी पड़ती है. स्थिति यह है कि किसानों द्वारा पेड़ काटने की अनुमति के लिए लाखों आवेदन राज्यों के वन विभागों में वर्षों से लंबित पड़े हैं. अकेले मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश में ही किसानों द्वारा काटने हेतु 4.5 लाख से अधिक आवेदन दर्ज हैं, जिनमें से अधिकांश की सुनवाई तक नहीं हुई. यह सब इस बात का प्रमाण है कि यह कानून किसान के हित के नाम पर लाया गया एक और मज़ाक है.

अगर आपने अपने खेत में इमारती लकड़ी वाले पेड़ (Timber Trees) लगाए हैं, जैसे सागौन, शीशम, अर्जुन या गम्हार—तो बधाई! अब आप के पेड़ों पर चार विभागों का ‘नैतिक अधिकार’ हो गया है:

  1. वन विभाग :– जिसकी गिनती भ्रष्टाचार के सबसे घने जंगलों में होती है; जहां बिना सुविधा शुल्क के कोई सीधा-सरल काम करवाना भी संभव नहीं है.
  2. राजस्व विभाग : – जो जमीन और पेड़ नापने से पहले आपकी औकात नाप लेता है;
  3. ग्राम पंचायत :– जहां की हवा में राजनीति का जहर घुल गया है ,और यह भी भ्रष्टाचार की विकेंद्रीकरण का प्रथम सोपान व अंतिम पायदान बन गया है.
  4. कृषि विभाग :– जो झूठे श आंकड़ों और फर्जी रिपोर्टस के पिरामिड पर बैठकर, कंप्यूटर के ‘क्लिक’ में किसान की किस्मत खोजता है.

अब आपको करना होगा:- NTMS (National Timber Management System) पर रजिस्ट्रेशन, हर पेड़ की फोटो, ऊँचाई, उम्र, जगह, KML फॉर्मेट में लोकेशन अपलोड, 10 पेड़ से अधिक हैं तो वेरिफिकेशन एजेंसी घर आएगी; फिर पेड़ कटेंगे, फिर जड़ों की तस्वीर खींचनी होगी, फिर कहीं जाकर आप लकड़ी को बेचने लायक ‘स्वतंत्र’ हो पाएंगे.

कानून डिजिटल हो गया, लेकिन किसान के हाथ तो अब भी कीचड़ मिट्टी से सने होते हैं :-

सरकार कहती है :-“यह सब डिजिटल है, पारदर्शी है.” पर ज़रा सोचिए: देश के 85% किसानों के पास चार एकड़ से कम जमीन है. उनमें से आधे को स्मार्टफोन चलाना नहीं आता, और जिनके पास फोन है, वो KML फाइल नहीं, KYC फॉर्म से डरते हैं. फिर भी उनसे अपेक्षा है कि वे पेड़ों की तस्वीरें लें, वीडियो बनाएं, अपलोड करें, वन विभाग, पंचायत, राजस्व और कृषि विभाग को 'संतुष्ट' करें. यह कोई नियम नहीं, किसान के धैर्य की डिजिटल परीक्षा है.

साल दर साल देश के समृद्धि की जड़ें भी कट रही हैं:-

भारत हर साल 40,000 करोड़ रुपये से अधिक के टिंबर और नॉन-टिंबर उत्पाद आयात करता है. क्या यह पैसा देश के किसानों को नहीं मिलना चाहिए? क्या यह बेहतर नहीं होगा कि किसान अपने खेतों में पेड़ लगाएं, उन्हें काटें, बेचें और लाभ लें? लेकिन नहीं, क्योंकि, जो किसान 30 साल से एक पेड़ पालता है, वह उसे काटने के लिए पटवारी साहब, कृषि विभाग के साहबों, सहित वनपाल साहब, सचिव साहब, रेंजर साहब, DFO साहब, और कंप्यूटर साहब आदि सभी से भीख मांगे?

बस्तर, सरगुजा, अमरकंटक और देश के तमाम आदिवासी अंचलों में लोगों के खेतों में वर्षों से इमारती पेड़ खड़े हैं, जिनकी सुरक्षा उन्होंने बिना किसी सरकारी योजना के खुद की है, अब उन पेड़ों को काटने के लिए भी वही भानुमती का कुनबा लागू होगा? क्या एक आदिवासी को अपने ही खेत के पेड़ काटने के लिए इंटरनेट कैफे जाकर फॉर्म भरवाना पड़ेगा, सरकार की विभिन्न विभागों के चक्कर काटने होंगे ?

प्रश्न यह नहीं कि अब तक किसान के पेड़ काटने के सरल नियम क्यों नहीं बने? और अब यह नया नियम क्यों है ?

प्रश्न यह है कि किसानों के लिए यह नया नियम करते समय किसानों सेपूछा क्यों नहीं? और लाख टके का अंतिम सवाल; कि यह नियम भी किसान-विरोधी क्यों है?*

सरकार में बहुत काबिल अफसर हैं. नीति आयोग में तनखैय्या  विशेषज्ञों की भीड़ है. पर जब भी किसानों के लिए कोई नियम बनता है, तो उसमें किसानों की सलाह के लिए तो नहीं, पर उनकी  शंकाओं के स्थान पर्याप्त स्थान होता है. क्यों? क्योंकि सरकार अभी भी किसान को 'इंसान' नहीं समझती,,, बल्कि एक ऐसा प्राणी जो बस “सब्सिडी” से चलता है, जिसे 'गाइडलाइन' पढ़ने का अधिकार नहीं, और जिसके 'नवाचार' को स्वीकार करने में वैज्ञानिक समुदाय हेठी समझता है.

समाधान क्या हो?

सरकार यदि वाकई क्लाइमेट चेंज कुछ चुनौती देना चाहती है देश के पर्यावरण को बेहतर बनाना चाहती है तथा वृक्षारोपण से किसानों की आय दोगुनी करना चाहती है, तो यह ज़रूरी है कि:-

  1. इस कानून को तत्काल स्थगित किया जाए.
  2. देश के उन स्टेकहोल्डर्स किसानों के साथ सीधा संवाद हो, जिन्होंने वर्षों से पेड़ लगाए और काटे हैं या काटना चाहते हैं. किसानों संगठनों जैसे कि आईफा AIFA , चैम्फ,( www.chamf.org), ICFA , तथा अन्य गैर राजनीतिक किसान संगठनों से खुले दिमाग से खुली चर्चा की जानी चाहिए‌.
  3. किसान को पेड़ काटने एक सरल, व्यावहारिक और भ्रष्टाचार-मुक्त, एकल बिंदु पारदर्शी प्रक्रिया बने. जिसमें छोटे से छोटे किसान भी भाग ले सकें. और जिसमें पंचायत सचिव, पटवारी , तहसीलदार,वन विभाग के गार्ड से लेकर स्ट्रेंजर डीएफओ आदि के बारंबार जूते और मुंह ना ताकना पड़े, और अपनी चप्पल भी घिसना ना पड़े; और डिजिटल पोर्टल की बजाय जमीनी व्यवस्था प्राथमिक हो.

यह नया नियम किसानों को वृक्षारोपण और हरियाली से जोड़ेगा नहीं बल्कि दूर करेगा. जिन्होंने जमीन जोती, वहीं पेड़ रोपे, अब उन्हीं से प्रमाण मांगे जा रहे हैं. यदि यह नियम बिना संशोधन के लागू हुआ, तो पेड़ लगाना एक पुण्य नहीं, बल्कि 'कानूनी अपराध' बनने की दिशा में पहला क़दम होगा. सरकार को चाहिए कि वह नीति बनाने से पहले, नीति तथा व्यवहार दोनों को समझने वालों से बात करे. किसान कोई अपराधी नहीं! लेकिन यह नियम मानता है कि अगर वो पेड़ काटना चाहता है, तो पहले वो अपनी आत्मा, फिर 'पेड़ की आत्मा' और फिर बहुस्तरीय'सरकारी अनुमति' तीनों ले और यही इस देश का सबसे बड़ा वन-विनाश है, हरियाली का नाश है, जब पेड़ काटने के पहले किसानों का आत्मबल, आत्मसम्मान काटा जाता है.

English Summary: Farmers Rights tree cutting law exposes green policy paradox in india Agricultural Land Regulations Published on: 03 July 2025, 10:20 IST

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Hey! I am डॉ राजाराम त्रिपाठी. Did you liked this article and have suggestions to improve this article? Mail me your suggestions and feedback.

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