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महिला किसान दिवस : कहानी घूंघट में सिमटे उन चेहरों की, जिन्होंने समाज में अपनी एक अलग पहचान बनायीं..

एक मां, एक बेटी, एक बहन, एक बहू, एक सास, एक सखी, एक साथी और इसके इतर सबसे अहम एक नारी... न जाने कितने ही किरदार निभाने पड़ते हैं एक नारी को अपनी जिंदगी में... लेकिन फिर भी उसके मन में हमेशा एक सवाल कचोटता ही रहता है कि आखिर मैं कौन हूं ? मेरा अस्तित्व क्या है ? क्या है मेरा वजूद ?

नारी तुम प्रेम हो, आस्था हो, विश्वास हो, टूटी हुई उम्मीदों की एकमात्र आस हो।
हर जान का तुम्हीं तो आधार हो, नफरत की दुनिया में मात्र तुम्हीं प्यार हो।
उठो अपने अस्तित्व को संभालो, केवल एक दिन ही नहीं,
हर दिन नारी दिवस मनालो।

 

 

एक मां, एक बेटी, एक बहन, एक बहू, एक सास, एक सखी, एक साथी और इसके इतर सबसे अहम एक नारी... न जाने कितने ही किरदार निभाने पड़ते हैं एक नारी को अपनी जिंदगी में... लेकिन फिर भी उसके मन में हमेशा एक सवाल कचोटता ही रहता है कि आखिर मैं कौन हूं ?  मेरा अस्तित्व क्या है ? क्या है मेरा वजूद ?  

अपनी पहचान के लिए जिंदगी भर जद्दोजहद कर एक नारी यूं ही समय बिताती चली जाती है। वहीं कुछ ऐसी भी महिलाएं हैं जिन्होंने न सिर्फ अपनी पहचान खुद बनाई है बल्कि अपने वजूद को नाम भी दिया है। एक अलख जगाकर उन्होंने समाज में ही नहीं बल्कि अपने राज्य व देश का नाम भी रोशन किया है। सानिया मिर्जा, गीता फोगट, साक्षी मलिक, साइना नेहवाल, बबीता फोगट, चंदा कोचर, किरण मजूमदार, नीता अंबानी आदि ऐसे कई नाम हैं जिन्होंने फर्श से अर्श तक का सफर तय किया और खुद की एक पहचान बनाई। वहीं कृषि के क्षेत्र में भी महिलाओं की अहम भूमिका रही है।

आज कृषि के क्षेत्र में महिलाएं बढ़-चढ़कर नित्य नए प्रयोग कर रही हैं। फिर चाहें वो मुर्गीपालन हो या फिर मिश्रित खेती, बागवानी हो या फिर मौन पालन या डेयरी उद्योग, कृषि के हर क्षेत्र में महिलाओं ने अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई है। पिछले कुछ वर्षों में इस क्षेत्र में कुछ नए आयाम भी महिलाओं ने खोजकर अपनी धाक जमाई है। कृषि के जिन क्षेत्रों में पुरूषों ने कब्जा किया हुआ था वहां आज महिलाओं ने आकर अपना स्थान बनाया और पुरूषों के साथ कंधे से कंधा मिलाने के बजाय वे उन्हें काफी पीछे छोड़ते हुए आगे निकल गई हैं और अपनी कल्पनाशक्ति का लोहा मनवा रही हैं।

क्या कभी किसी ने सोचा था कि चूड़ियों से भरे हाथ कभी हल या ट्रैक्टर का स्टीयरिंग थामेंगे? शायद ही यह परिकल्पना किसी के जहन में आई होगी कि घूंघट में सिमटा चेहरा आज समाज में अपनी एक अलग पहचान बनाएगा और उभरकर सामने आएगा। मां के दामन में छिपी वो छोटी सी कल्पना अपने ही पंख लगाकर खुले गगन में उड़ेगी और अपने वजूद को एक पहचान देगी। कृषि जागरण भी ऐसी सभी महिलाओं को नमन करता है जिन्होंने कठिन परिस्थितियों के आगे घुटने न टेकते हुए अपने सपनों को साकार किया और आज कृषि क्षेत्र में परचम लहरा रही हैं।

महिला किसान दिवस के उपलक्ष्य में आज हम उन महिलाओं की कहानी लेकर आयें है, जिन्होंने समाज में अपनी एक अलग पहचान बनायीं है. आज का यह लेख उन सभी प्रतिभावान, समर्पित, आदर्श महिलाओं को समर्पित है, जो समाज की अन्य महिलाओं के लिए प्रेरणास्रोत बनकर उभर रही हैं। 

1- गीतांजलि ने सजाई लोगों के लिए बगिया..

कलिंगपांग की रहने वाली गीतांजलि प्रधान अपने क्षेत्र का जाना-पहचाना नाम हैं। उनके फूलों के प्रेम ने उन्हें अपने पति के नर्सरी के बिजनेस में हाथ बटाने के लिए अपनी ओर खींच लिया। गीतांजलि ने अपने पति मनी प्रधान के साथ मिलकर नर्सरी को बढ़ाने के लिए कड़ी मेहनत की। खासतौर से हॉर्स प्लांट और अजेलिया के पौधे उन्होंने अपनी नर्सरी में तैयार किए। वे पिछले 20 सालों से इस व्यवसाय से जुड़ी हुई हैं और हर प्रदर्शनी में भाग लेती हैं।

गीतांजलि ने बताया कि महज 12-15 लाख रूपए में उन्होंने यह बिजनेस शुरू किया था लेकिन आज उन्हें इससे काफी अच्छी आय प्राप्त हो जाती है क्योंकि लोगो के प्राकृतिक प्रेम को देखते हुए ही उन्होंने अपनी नर्सरी में ऐसे ही पौधे तैयार किए हैं जिनकी देखरेख करना आसान और घर व आंगन की शोभा बढ़ाने में इन पौधों की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। उन्होंने बताया कि पहाड़ी क्षेत्र का होने के कारण हमें पानी की समस्या का सामना करना पड़ता है। यही कारण है कि पौधों को पानी देने के लिए हमें पानी खरीदना पड़ता है। एक दिन में हमने 1000 लिटर पानी 500 रूपए तक में खरीदकर पौधों को पानी दिया है। वे कहती हैं कि सिक्किम व दार्जिलिंग में हॉर्स प्लांट व अजेलिया की काफी मांग है। उन्होंने बताया कि नर्सरी के रखरखाव में काफी मेहनत करनी पड़ती है और लेबर रखने में अधिक खर्च आता है इसलिए हम पति-पत्नी ही मिलकर अपनी बगिया को सजाने के साथ-साथ अन्य लोगों के घरों के आंगन की शोभा बढ़ाने के लिए छोटा सा प्रयास कर रहे हैं।

2- जैविक खेती कर पाया ईनाम

सीकर के ग्राम बेरी की रहने वाली संतोष चैधरी का यूं तो बचपन से ही खेती से नाता रहा है लेकिन वर्ष 2008 में उन्होंने कृषि में ऊंचाइयों को छूने की ओर कदम बढ़ाया। श्रीमति संतोष के पति सीकर में ही होमगार्ड की नौकरी करते थे। ज्यादा आमदनी न होने व 3 बच्चों सहित पूरे परिवार का पालन-पोषण करना संभव नहीं हो पा रहा था इसलिए उन्होंने अपने पैरों पर खड़े होने की ठानी। उन्होंने कृषि उद्यान विभाग से कुछ अनार के पौधे लिए और उन्हें अपने बगीचे में रोपा। थोड़े समय बाद इनमें फल आने शुरू हो गए। ड्रिप इरीगेशन के माध्यम से उन्होंने अपने बगीचे की सिंचाई की। वर्ष 2011 में उन्होंने कृषि उद्यान विभाग को 400 ग्राम अनार बेचे। यही नहीं उन्हें लगभग 30 किलो औसत अनार हर महीने प्राप्त होने शुरू हो गए। उन्होंने कटिंग तकनीकी के माध्यम से कच्ची फुटान को काटना आरंभ किया। परिणामस्वरूप उन्हें अच्छे व बड़े आकार के फल प्राप्त होने लगे क्योंकि पोषण फुटान में न जाकर सीधा फलों तक पहुंचने लगा। यही नहीं उन्हें इतना मुनाफा हुआ कि उन्होंने 1 हैक्टेयर जमीन पर 230 अनार के पेड़, 150 बेलपत्र व 140 मौसमी के पेड़ लगाए हैं। वहीं अतिरिक्त आमदनी के लिए उन्होंने 10 नींबू व 10 अमरूद के पेड़ भी लगाए हैं।

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श्रीमति संतोष बताती हैं कि वे खुद से रसायन व जैविक खाद तैयार करती हैं। जीवामृत में सूक्ष्मतत्व होते हैं इसलिए यह पौधों को सही पोषण व बढ़वार में मदद करता है। उन्होंने बताया कि कीटों से बचाव के लिए वे कीटनाशक भी जैविक उत्पादों का इस्तेमाल कर तैयार करती हैं। उन्हें अनार बेचने से सालाना 3.5 लाख रूपए की आय प्राप्त होती है जबकि 6.5 लाख रूपए की अनार की पौध तैयार कर भी वे कमा लेती हैं। जैविक उत्पादों के इस्तेमाल से फसलोत्पादन में काफी इजाफा हुआ और इसका परिणाम यह हुआ कि प्रत्येक फल का भार 770 ग्राम तक प्राप्त होने लगा। पिछले छः वर्षों से श्रीमति संतोष ने जैविक खेती करना आरंभ किया है और उन्हें काफी अच्छे परिणाम प्राप्त हुए हैं।

3- अपने उत्पाद से स्वावलंबी बनी डालिमी

कोशिशें अगर ईमानदार हों तो सफलता मिल ही जाती है। इसके लिए किसी डिग्री की जरूरत नहीं होती, बस हौसले मजबूत होने चाहिए। ऐसी ही कहानी है असम के गुवाहाटी जिला निवासी डालिमी चैधरी डेका की। डालिमी विभिन्न प्रकार के अचार, मुरब्बा, जैम, जैली इत्यादि का उत्पादन करती हैं। उन्होंने इसके लिए बकायदा प्रशिक्षण लिया था। उन्होंने अपने व्यापार की शुरूआत सन् 2013 में की। अब तक वे कई महिलाओं को प्रशिक्षित कर चुकी हैं।

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डालिमी कहती हैं कि एक महिला होने के कारण मुझे कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा लेकिन उन चुनौतियों का सामना करते हुए मैंने अपने इस व्यापार को शुरू किया। अब मैं इस व्यापार के द्वारा अच्छी आमदनी अर्जित करती हूं। उन्होंने बताया कि मेरे उत्पादों की मांग गुवाहाटी के साथ अन्य राज्यों में भी हैं। उनकी खहिश है कि असम राज्य और देश के लिए कुछ करें। मैं अपने इस हुनर से महिलाओं व लडकियों को प्रशिक्षित कर खुद के पैरों पर खड़ा करना चाहती हूं।

4- परंपरा तोड़कर हासिल किया मुकाम

किसान चाची का जन्म एक शिक्षक के घर में हुआ था। परिवार में तम्बाकू की परम्परा थी। इसे तोड़ते हुए उन्होंने घर के पीछे की जमीन में फल और सब्जी उगाने के साथ फलों और मुरब्बा सहित कई उत्पाद बनाने शुरू किए। उनकी इस मेहनत से अप्रत्याशित परिवर्तन दिखने लगा। इस कार्य में उन्होंने आसपास की महिलाओं को सहयोगी बनाया और उनकी आमदनी बढ़ी। उन्होंने साईकिल से घूमकर दूसरे गाँवों की महिलाओं को भी खेती के गुर सिखाए। देशभर में उनके काम की सराहना होने लगी और उन्हें सम्मान और प्रसिद्धि मिलने लगी। बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार भी उनकी बागवानी देखने उनके घर गए। सरकार ने उन्हें 2006 में किसान श्री सम्मान से नवाजा तब से लोग उन्हें “किसान-चाची” कहने लगे।

किसान चाची 22-25 तरह के अचार और मुरब्बे बनाती हैं और महानगरों व मेलों में बेचती हैं। उन्होंने स्वर्ण रोजगार जयंती के तहत महिलाओं के 36 ग्रुप बनाए थे जिन्हें ट्रेनिंग देकर आत्मनिर्भर बनाया। किसान चाची का मुख्य उद्देश्य समाज की सभी महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाना है।

5- दिव्या की पहल ने बदली लाखों लोगों की जिंदगी

दिव्या ने सामाजिक कार्य में स्नातक और परास्नातक करने के बाद कई एनजीओ के साथ कार्य किया। उसके बाद समाज के कमजोर वर्ग के उत्थान के लिए दिव्या ने मशरुम की खेती के द्वारा अजीविका कार्यक्रम की शुरुआत की। मशरुम की खेती को बेहतर ढंग से करने के लिए उन्होंने कई जगह प्रशिक्षण लिया । प्रशिक्षण के बाद उन्होंने मशरुम की खेती प्रारम्भ कर दी और उन्हें सफलता भी प्राप्त हुई। उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों से पलायन रोकने के लिए उन्होंने पहाड़ी क्षेत्रों में मशरुम उगाना शुरू किया और उनकी यह कोशिश सफल भी रही।

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मशरुम की खेती से उन्हें काफी लाभ मिला और उनके साथ कई लोग जुड़े। आज दिव्या द्वारा शुरू की गई लगभग 50 यूनिट लगातार कार्यरत हैं। 2017 में उनका मुख्य लक्ष्य 50 यूनिट से 500 यूनिट का है जिससे ज्यादा से ज्यादा लोग प्रशिक्षित हो सकें। दिव्या को उनके इस कार्य के लिए उत्तराखंड के मुख्यमंत्री हरीश रावत, बागवानी मंत्री हराक सिंह रावत द्वारा सम्मानित भी किया गया। वे उत्तराखंड की ही नहीं बल्कि पूरे देश की महिलाओं के लिए किसी मिसाल से कम नहीं।

6- नौकरी छोड़कर दूसरों को बनाया आत्मनिर्भर

वर्षों पहले भारत में महिलाओं की स्थिति बहुत ज्यादा खराब थी। महिलाओं को सिर्फ घर के काम ही करने की अनुमति थी लेकिन जिस महिला ने इस सोच को बदला वो लाखों महिलाओं के लिए एक आदर्श बन गई। 

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बागपत निवासी नीलम त्यागी वर्ष 2000 में अध्यापिका के रूप में शिक्षा के क्षेत्र से जुड़ीं। बचपन से ही गरीबों के प्रति कुछ अलग करने की चाह में वर्ष 2002 में उन्होंने नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। उन्होंने खुद पर भरोसा करके काम करना शुरू किया और आज उनके दिखाए रास्ते पर लगभग 5000 से भी ज्यादा महिलाएं चल रही हैं। उन्होंने लक्ष्मी जन कल्याण सेवा संस्थान की नींव रखी और आज इस संस्थान के जरिए कई महिलाओं की जिन्दगी बदली। उन्होंने आसपास में तकरीबन 300 से ज्यादा स्वयं सहायता समूह बनाएं है। जिनके माध्यम से वे अन्य बाकी महिलाओं को भी आत्मनिर्भर बनाने का प्रशिक्षण देती है। आज लगभग सभी महिलाएं अचार, मुरब्बा, ताजी सब्जी, और छोटी-मोटी चीजों का उत्पादन करके आर्थिक रूप से संपन्न हो गई हैं। नीलम को उनके इस कार्य के लिए सरकार द्वारा कई अवार्ड मिल चुके हैं। नीलम कृषि मंत्रालय में सदस्य हैं। इसके साथ जिला स्तर पर महिला सशक्तिकरण की भी सदस्य हैं। आज नीलम कई महिलाओं के लिए प्रेरणा का स्त्रोत बनकर उभरी हैं।

7- किसानों को आत्मनिर्भर करना है लक्ष्य

गुड़गांव में मानव विकास ससाधन में एम.बी.ए करने के बाद लगभग 2 वर्ष नौकरी की। फरहीन के पिता का मलिहाबाद में आमों का व्यवसाय था। उसी दौरान फरहीन के पिता शोभारानी नाम की सफल महिला उद्यमी से मिले। शोभारानी ने फरहीन के पिता को ग्रीन हाउस और पालीहाउस के बारे में बताया ।

यह बात फरहीन के पिता को समझ में आ गई और उन्होंने फरहीन को इसके बारे में विस्तार सेबताया। फरहीन ने तुरंत ही फूलों का व्यवसाय करने की ठान ली। उन्होंने मलिहाबाद में एक पालीहाउस बनवाया और उसमें फूलों की खेती प्रारंभ कर दी। फूलों की खेती करके फरहीन आर्थिक रूप से भी मजबूत हो गई। उनके पास एक ग्रीन हाउस भी है और आने वाले समय में वे उसमें सब्जियों की खेती करेंगी। वे अब लोगों को पालीहाउस की विशेषताएं बताती हैं और उन्हें आत्मनिर्भर होने की सलाह भी देती हैं।

8- मसाला ने किया मालामाल

कुछ करने का जज्बा हो तो इंसान डरता नहीं है। पश्चिम बंगाल के बोगईगांव की अलीमून नेसा ने भी कुछ ऐसा ही कर दिखाया है। उन्होंने एमबीए करने के बाद मसाला उद्योग में हाथ आजमाया। किस्मत ने उनका साथ दिया और उनका व्यापार चल निकला। पहले उन्होंने अपने भाई के साथ कृषि उपकरण बनाने के काम में हाथ बटाया लेकिन उनका मन स्वतंत्र व्यापार करने का कर रहा था। वो बताती हैं कि शुरू से ही हमारा अलग बिजनेस करने का मन था, अपनी इसी चाहत को पूरा करने के लिए अपनी 4 बहनों नाजिमा ख़ातून, नूर नहाव बेगम, नूर नेसा बेगम, अफरूजा ख़ातून के साथ मसाला उद्योग स्थापित किया। भाई के साथ उन्होंने 7 साल काम किया और भाई को जी-तोड़ मेहनत करते देख वे काफी प्रभावित हुईं।

उनसे ही प्रेरणा लेते हुए अलीमून नेसा ने अपना अचार व मसाले का व्यापार शूरू किया। वे अपनी बहनों के सहयोग से सभी प्रकार के मसालों के निर्माण से लेकर पैकेजिंग और डिजाइनिंग तक करती हैं। अलीमून नेसा बंगाल प्रांत की पहली ऐसी लड़की हैं जिन्होंने स्वतंत्र रूप से अपना उद्योग स्थापित किया है। वे कहती हैं कि महीने में लगभग तीन लाख तक का मसाला बिक जाता है। अपने पैरों पर खड़ी होकर वे अन्य लड़कियों को प्रेरित कर रही हैं।

9- राजबाला की सफल कहानी

कहते हैं अगर कुछ करने का हौसला मन में हो तो कोई भी बाधा इंसान को नहीं रोक सकती। इंसान चाहे तो बड़ी से बड़ी बाधा को भी पार कर सकता है। हरियाणा के करनाल जिला गांव गोगड़ी की राजबाला भी ऐसी ही महिला है जो अपने दम पर एक सफल महिला उद्यमी के रूप में उभरी है। राजबाला ने दो साल पहले करनाल के मुरथुन से मशरूम की खेती करने का प्रशिक्षण लिया था जिसके बाद उन्होंने मशरूम उत्पादन करना शुरू किया। वे बताती हैं कि उनकी देखरेख में 500 समूह काम करते हैं।

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एक समूह में 12 से 15 महिलाएं होती है जो मशरूम का व्यापार करती हैं और इसके चलते वो 15-20 हजार महीना कमा लेती हैं। राजबाला कहती हैं कि महिलाओं के लिए मार्केटिंग करना बड़ा ही मुश्किल काम होता है। हम इतनी मेहनत से मशरूम उत्पादन करते हैं उसका अचार बनाते हैं लेकिन हमें उसका उचित दाम नहीं मिलता है। वे अपेक्षा करती हैं कि सरकार महिलाओं के लिए उचित मार्केटिंग की व्यवस्था करे जिससे हम जैसी महिलाओं को अपने उत्पाद बेचने में आसानी हो।

 

10- टीचर नहीं मशरूम गर्ल बनीं अम्बिका

30 वर्षीय अम्बिका छेत्री असम के गुवाहाटी में पली-बढ़ी हैं। यहीं से उन्होंने अपनी शिक्षा भी पूरी की। मास्टर्स इन आर्ट्स की डिग्री लेने के बाद उनका मन था कि वे टीचिंग क्षेत्र में जाएंगी लेकिन शायद किस्मत को कुछ और ही मंजूर था। उन्होंने सन् 2012 में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ एंटरप्रनुरेशिप (आईआईई) से 1 महीने का मशरूम कल्टीवेशन का एक महीने का कोर्स किया। इंस्टीट्यूट में कुलदीप शर्मा के नेतृत्व में उन्होंने स्पोंज मशरूम कल्टीवेशन सीखा। धीरे-धीरे उन्हें अच्छा मुनाफा भी मिलने लगा। कल्टीवेशन करके वे 50-60 किलो/दिन मशरूम उत्पादन करने लगीं। पूरे सीजन में उन्हें लगभग 90 किलो प्रतिदिन उत्पादन होने लगा।

जैसे-जैसे उनका काम बढ़ने लगा उन्होंने स्पोंज मशरूम के साथ-साथ मिल्की मशरूम और ऑयस्टर मशरूम का उत्पादन भी शुरू कर दिया। इस काम में अम्बिका का साथ उनकी दोनों बहनों संगीता गुरूंग व बिष्नू सुनार ने दिया। अम्बिका पिछले छः वर्षों से इस क्षेत्र में सफलतापूर्वक कार्य कर रही हैं। उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि टीचिंग के इतर भी वे कुछ कर पाएंगी। उन्होंने बताया कि पिछले साल उन्हें कुल उत्पादन से 4 लाख रूपए की आमदनी प्राप्त हुई। वहीं ड्राई मशरूम से उन्हें काफी मुनाफा हुआ क्योंकि ड्राई मशरूम 1000 रूपए किलो बिकता है और काफी पसंद किया जाता है। अम्बिका कहती हैं कि अगर मुझे सही समय पर सही मार्गदर्शन नहीं मिला होता तो आज मैं जिस तरह से अपने पैरों पर खड़ी हुई हूं उस तरह से कभी नहीं हो पाती।

11- इंटीग्रेटिड फार्मिंग से बनी पहचान

कुछ कर गुजरने की चाह तो हर व्यक्ति की होती है लेकिन समय के साथ इस चाहत को पूरा करना किसी-किसी के बस की ही बात होती है। कुछ ऐसी ही कहानी है ग्राम अदबोरा, अल्मोड़ा की रहने वाली तारा देवी की जिन्हें कृषि से जुड़ने का सौभाग्य तो बचपन से ही प्राप्त था लेकिन इससे वे संतुष्ट नहीं थीं। कुछ कर गुजरने की चाहत ने तारा देवी को इंटीग्रेटिड फार्मिंग की ओर रूख करने पर मजबूर कर दिया। शादी के बाद उन्होंने अपने पति के साथ मिलकर इस क्षेत्र में गहन शोध की और गांव में लगने वाले कैम्प में हिस्सा लिया। वहां उन्होंने इंटीग्रेटिड फार्मिंग के बारे में सीखा और उसे अपनी ही जमीन पर अमल में लेकर आईं। पिछले 30 वर्षों से वे इस क्षेत्र में कार्यरत हैं।

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तारा देवी ने बताया कि पहले मेरे पास सिर्फ एक गाय थी लेकिन अब मेरे पास 4 गाय हैं। साथ ही मैंने भैंसें भी पालनी शुरू कर दीं। इससे मुझे अच्छी आमदनी प्राप्त होने लगी। गेहूँ और मिर्च की खेती करने के साथ-साथ मैंने डेयरी का कार्य करना शुरू किया। जब अच्छा मुनाफा हुआ तो मैंने मछली व मुर्गीपालन की भी शुरूआत की। हालांकि इस काम को शुरू करने के लिए मुझे लोन लेना पड़ा लेकिन आज मुझे 2 लाख रूपए महीना की आमदनी प्राप्त होती है। खासकर मिर्च की खेती करने से अच्छा मुनाफा प्राप्त होता है। इस काम को और आगे बढ़ाना है और स्वतंत्र रूप से कार्य करना है। यही नहीं यदि कोई महिला मेरे साथ काम करना चाहती है तो मैं उसे ट्रेनिंग देने के लिए तैयार हूं।

12- शोभा नाम ही काफी है

शोभा रानी को बचपन से ही पेड़-पौधों का शौक था। शादी के बाद पारिवारिक जीवन में व्यस्त शोभा ने कुछ साल पहले शौक के तौर पर शिमला मिर्च की खेती करना शुरू किया। खेती करने के पीछे मकसद था खुद को व्यस्त रखना। लेकिन कुछ साल में ही इस कार्य के कारण शोभा को काफी नाम और सम्मान प्राप्त हुआ।

वैसे तो शिमला मिर्च की खेती पहाड़ी क्षेत्रों में ही होती है परन्तु आज हाई-टेक तकनीकी के कारण हर जगह खेती की जा सकती है। शोभा रानी के पति बिजनेस मैन हैं इसलिए शोभा को बस घर पर ही रहना होता था। शोभा ने घर पर ही बैठे-बैठे कुछ करने की सोची और उन्होंने पालीहाउस के बारे में पता किया और उसे लगवाने का निर्णय लिया। शोभा के पति इस बात के खिलाफ थे लेकिन उसके बावजूद शोभा ने किसी तरह पालीहाउस का निर्माण करवाया। उसके बाद शिमला मिर्च की खेती करने की सोची जिसके लिए शोभा ने करनाल से जानकारी ली और लखनऊ में जाकर शिमला मिर्च की खेती शुरू कर दी।

शोभा को उनके इस कार्य के लिए कई सम्मान मिल चुके हैं । शोभा से इस कार्य की जानकारी लेने बहुत दूर-दूर से लोग आते हैं। आज शोभा की वजह से कुछ लोगों को रोजगार भी मिला है। यकीनन शोभा का गृहणी से हाई-टेक खेती का सफर बहुत ही दिलचस्प है और बाकी लोगों के लिए प्रेरणा का स्त्रोत है।

13- कनाड़ा नहीं भारत में ही खेती की ठानी

लुधियाना की देविंदर कौर बचपन से ही स्वयं का व्यवसाय करने की सोच रखती थीं। उन्होंने बी.ए. की डिग्री लेने के बाद कम्प्यूटर का दो साल का कोर्स भी किया लेकिन उन्हें तो जुनून सवार था कामयाबी हासिल करने का। उनका पूरा परिवार कनाडा व अमरीका में बसा हुआ है। हालांकि परिवार के लोगों ने उन्हें कनाडा बुलाने की भरपूर कोशिश की लेकिन देविंदर ने सभी का प्रस्ताव ठुकराते हुए भारत में ही रहने की ठानी। शादी के बाद उनका मन विदेश जाने का हुआ ही नहीं। देविंदर का मानना है कि गोरों के यहां दीन होकर काम करने से बेहतर है भारत में स्वयं के पैरों पर खड़े होना।

वे बताती हैं कि उन्होंने गांव में आस-पास औरतों को खेती करते हुए देखा था। बाघा पुराना के पास गल्र्स सेंटर है जहां पर खेती के विषय में ट्रेनिंग दी जाती है। इस दौरान जी.एस. मान सर ने हमारी बहुत मदद की है। पहले हमने पुदीना की खेती की। हमारे पास कुल 15 एकड़ जमीन है जिसमें से 10 एकड़ में हमने गौशाला बना रखी है। वहीं हम मक्के के बीज का चारा निकालना, खाद तैयार करना, लस्सी तैयार करना, जैसे कार्य करते हैं। बाकी के 5  एकड़ में हमने आलू व अन्य सब्जियों की खेती की है। यही नहीं हमने मटर और साग की खेती भी की जिससे हमें काफी मुनाफा हुआ। 5 साल के अंदर हमने खुद का खेत तैयार किया। हालांकि खेत को तैयार करने में अधिक खर्च तो नहीं आया लेकिन आमदनी काफी हुई। मैं अपने इस काम में गरीब महिलाओं को जोड़ना चाहती हूं और उन्हें स्बावलंबी बनाना चाहती हूं। आने वाले दिनों में मैं पनीर व मक्खन बनाने की मशीन भी लगाना चाहती हूं जिससे काम बढ़ेगा और अच्छा मुनाफा भी होगा।

14- शारदा सिंह ने बदल दी तस्वीर

खुद पर भरोसा हो जाए तो पहले खुद की जिंदगी बदलती है, फिर घर और फिर पूरा समाज। शारदा सिंह ने अपने इलाके की सैकड़ों महिलाओं को भरोसे का क्रेडिट कार्ड थमाकर परिवर्तन की एक लहर चला दी है। बेटियों को पढ़ा-लिखाकर क्या कलेक्टर बनाना है.

यह वाक्य शारदा सिंह के कानों में आज भी गूंजता रहता है। उन की पढ़ाई को लेकर गांव के लोग उनके पिता को ताने मारते थे। बुलंदशहर में जन्मीं शारदा सिंह को तभी महसूस हुआ था कि घर में सोलह से अठारह घंटे काम करने वाली महिलाएं इतनी लाचार इसलिए हैं कि वे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं हैं। उन के मन में एक विचार आया कि क्यों न महिलाओं को आर्थिक स्तर पर जागरूक किया जाए। शादी के बाद जब वह गाजियाबाद आईं, तो यहां कमोबेश यही स्थिति थी। यहीं से उनके सपनों को बल मिला और वो निकल पड़ीं अपनी मंजिल की ओर। 

2007 में शांति शिक्षा एवं नारी उत्थान समिति’ की नींव रख, महिलाओं को जागरूक करने का काम शुरु किया और आज वह लगभग छह हजार महिलाओं को आत्मनिर्भर बना चुकी हैं। लगभग 2.600 महिलाओं को उनके पसंदीदा प्रशिक्षण देकर स्वरोजगार शुरू करा चुकी हैं। उनका स्वयं सहायता समूह अभियान गजब का है। उनकी प्रेरणा से दस से पंद्रह महिलाएं अपना समूह बनाती हैं और बचत कर पैसे जुटाती हैं। इस पैसे से वह कोई छोटा उद्योग स्थापित करती हैं।

15- 2 किलो मिर्च ने बनाया पिकल क्वीन

अपर असम के बोकाखट की परबीन अहमद ने उन महिलाओं के लिए मिसाल कायम की है जो विषम परिस्थितियों के आगे अपने घुटने टेक देती हैं। परबीन के अचार बनाने के हुनर को उनके पति ने परखा लेकिन उन्हें क्या पता था कि एक दिन उनका साथ ही छूटने वाला है। वर्ष 1999 में उनके पति की मृत्यु के बाद उन्होंने बच्चों के पालन पोषण के लिए अपने हुनर के जरिए आमदनी करने की ठानी। उन्होंने हार न मानते हुए दोनों बेटों को पढ़ाया-लिखाया और स्वयं वे घर में ही अचार बनाने का काम करती रहीं। उन्होंने इसके लिए कड़ी मेहनत की। रात मंे अचार बनाती और सुबह घर के काम निपटाकर कड़ी धूप में निकल जाती अचार बेचने।

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उन्होंने इस व्यवसाय की शुरूआत महज 2  किलो मिर्च के अचार के साथ की। खास बात यह है कि उन्हें पिकल क्वीन का खिताब इसलिए मिला क्योंकि उन्होंने अचार में कई तरह के प्रयोग किए और उनके हाथों का स्वाद काफी सराहा गया। उनके द्वारा बनाए गए किंग चिली और बम्बू व मिक्स अचार की डिमांड काफी रहती है। परबीन ने वर्ष 2007 में डीआईसी से अपनी फर्म को प्रमाणित करवाया। उन्होंने दिल्ली में भी काम करने का प्रयास किया लेकिन उन्हें ज्यादा सफलता नहीं मिली। इसके बाद वे दिल्ली से आर्टिफिशियल ज्वैलरी लेकर वापस ड़िसपुर चली गईं और वहां मेले में प्रदर्शनी लगाई। थोड़ा मुनाफा होने पर उन्होंने अचार बनाने के लिए सामान खरीदा। परबीन कहती हैं कि अचार बनाने के साथ-साथ वे सीजनल फ्रूट्स से जैम भी तैयार करती हैं। हालांकि कुछ उतार-चढ़ाव के चलते 2 साल काम भी बंद था। यही नहीं उन्होंने सीजनल फ्रूट्स की खेती भी शुरू की जिसके चलते उन्होंने बनाना प्लांटेशन में टिशू कल्चर कर अच्छा उत्पादन प्राप्त किया। उन्होंने केरला के मछलीपालन केंद्र व खाद्य प्रसंस्करण विभाग से ट्रेनिंग भी ली। उनका बिजनेस चल पड़ा और आज वे विभिन्न प्रदर्शनियों में भाग लेती हैं और अपने हाथों के जादू से बने स्वादिष्ट अचार सबको खिलाती हैं।    

16- सुप्रिया का आर्गेनिक लव

असम के गुवाहाटी की रहने वाली 29 वर्शीय सुप्रिया खौंद ने लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनोमिस से पढ़ाई की। उसके बाद वे वियतनाम चली गईं जहां उन्होंने सोशल एंटरप्राइज के तहत किसानों के साथ ही काम किया। वहां कुछ साल काम करने के बाद वे भारत आ गईं क्योंकि वे देश के लिए कुछ करना चाहती थीं। उन्होंने यहां आकर महिला अधिकारों के लिए भी कार्य किया लेकिन उन्हें कुछ कमी खल रही थी। वर्श 2014 में उन्होंने पाया कि असम में कहीं भी आर्गेनिक  उत्पाद उपलब्ध नहीं हैं। इसी कमी को पूरा करने के लिए उन्होंने आर्गेनिक खेती करने की ठानी। हालांकि उनका मन अपनी अलग पहचान बनाने का था जिसके लिए वे कुछ भी करने को तैयार थीं लेकिन उनके प्रकृति प्रेम ने उन्हें कृशि से जोड़ दिया। पढ़ाई पूरी होने के बाद सुप्रिया वर्श 2014 दिसंबर में परिणय सूत्र में बंध गईं। इसके बाद उन्होंने शोध की कि कृशि में नया क्या है और देश की जनता क्या चाहती है? इन्हीं सब बिंदुओं के मद्देनजर उन्होंने अपने पति के साथ मिलकर आर्गेनिक  खेती पर जोर दिया। चूंकि उन्हें पता चला कि आज बाजार में फल व सब्जियों में मिलावट हो रही है और इसे रोकने व लोगों को गुणवत्तायुक्त खाद्य पदार्थ उपलब्ध करवाने के लिए आर्गेनिक खेती करना ही बेहतर है।

इसी के साथ उन्होंने कुछ किसानों को अपने साथ लेकर आर्गेनिक खेती करनी शुरू की। उन्हें काफी मुनाफा भी हुआ और उन्होंने अपना 100 प्रतिशत आर्गेनिक आधारित फल-सब्जियों का स्टोर खोला जिसका नाम उन्होंने आर्गेनिक  लव ही रखा। गुवाहाटी में 100 प्रतिशत आर्गेनिक  उत्पाद बेचने वाली वे पहली महिला उद्यमी हैं जिन्हें सरकार की ओर से भी प्रोत्साहन मिला। सुप्रिया बताती हैं कि गुवाहाटी मंे ऐसा कोई नहीं है जो 100 प्रतिशत आर्गेनिक  उत्पाद बेचता है। हम सब्जियों व फलों को प्रसंस्कृत कर बेचते हैं। साथ ही हमने आर्गेनिक  खेती करने वाले किसानों को भी अपने साथ जोड़ा है और उनके द्वारा उगाए जाने वाले उत्पाद भी हम अपने स्टोर में बेचते हैं। अभी हमारा लक्ष्य यही है कि ज्यादा से ज्यादा किसानों को दूर-दराज के इलाकों से ढूंढकर लाएं और उनके उत्पादों को अच्छा दाम दिलवाएं। वर्तमान में मेघालय, नागालैंड, अरूणाचल प्रदेश व असम में हमारी पैकेजिंग यूनिट है जिनसे आर्गेनिक  खेती करने वाले किसान बड़ी संख्या में जुड़े हुए है।

17- आर्किड ने बनाया फूलों की रानी

तीर्थाहल्ली जिला शिमोगा, कर्नाटक की रहने वाली 58 वर्षीय एच.सी. आशा शेशाद्रि को यूं ही नहीं फूलों की रानी कहा जाता है बल्कि उन्होंने बड़ी शृंखला में ओर्चिड्स की खेती कर यह खिताब हासिल किया है। वे 68 एकड़ कृषि भूमि में ओर्चिड्स के साथ-साथ उच्च मूल्य वाली फसलों की खेती भी करती हैं जैसे - केला, रोपण फसलों में सुपारी, रबर, मिर्च, जायफल, फूलों में एन्थुरियम, ओर्चिड्स, हेलिकोनिया, बर्ड ऑफ़  पेराडाइज तथा वनस्पति में जैंडो, कार्डिनल ब्लैक, मंजरी, एस्पैरेगस, आदि। श्रीमति शेशाद्रि कर्नाटक के मलनाड क्षेत्र में एन्थुरियम और ओर्चिड्स की खेती के लिए पाॅलीहाउस तकनीक का उपयोग करने में अग्रणी हैं। उन्होंने अपने क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ उत्पादन के साथ रबड़ व वनीला की खेती की। यही नहीं इन्होंने घरेलू व अंतरराष्ट्रीय बाजार के लिए फूलों की पैकिंग एवं विपणन के लिए वैज्ञानिक विधि जिसे डच प्रणाली कहा जाता है, को अपनाया। इसके लिए उन्होंने बेल्जियम, थाईलैंड व होलैंड से पौधों को आयातित कर भारत में ही पौधरोपण किया।

खास बात यह है कि भूजल को दोबारा से इस्तेमाल करने व वर्षा जलसंचयन सरंचना और जल के निर्बाध बहाव को रोकने के लिए रबड़ के पौधरोपण में सीढ़ीदार खेती करने जैसी जल बचत की रीतियों को अपनाया। वहीं सुपारी पौधरोपण में मिट्टी की मेड़ बनाने के पारंपरिक तरीके यूडीआई को भी अपनाया। श्रीमति शेशाद्रि ने परागण स्तर को सुधारने के लिए मधुमक्खी पालन के साथ एकीकृत कृषि प्रणाली को अपनाया और इससे इनके खेत की उत्पादकता बढ़ी। वे बताती हैं कि उन्होंने डेयरी इकाई की स्थापना भी की और डेयरी से निकलने वाले घूरे की खाद तथा वर्मीकम्पोस्ट का उपयोग जैविक खेती के लिए किया। हमारे खेत में उगाई गई सुपारी, रबड़, वनीला, मिर्च, कोको तथा कॉफ़ी को प्रसंस्कृत कर उनमें मूल्य वर्धन किया जाता है जिससे हमें अधिक आय व शुद्ध लाभ प्राप्त हुआ। उनके काम को इतना सराहा गया कि उन्हें कृषि विज्ञान विश्वविद्यालय, बैंगलुरू के डॉ.. एम.एच. मैरीगौड़ा सर्वश्रेष्ठ बागवानी किसान पुरस्कार व एसपी एल. एम. पटेल, कृषि अनुसंधान एवं विकास फाउंडेशन, मुंबई के सर्वश्रेष्ठ महिला किसान पुरस्कार ने नवाजा गया।

18- किसानों को करती हैं प्रोत्साहित

किसान समुदाय से संबंध रखने वाली और सुगंधीय व औषधीय फसलों के उत्पादन एवं उनके मूल्य वर्धन कर कृषि के माध्यम से आजीविका चलाने वाली कर्नाटक के देवाराहल्ली निवासी 48 वर्षीय मालम्मा ने सीआईएमपी, बैंगलुरू से तकनीकि मार्गदर्शन और प्रोत्साहन से मूल्यवर्धन के रूप में अपना व्यवसाय बदलने में समर्थ हुईं। व्यवसाय की शुरूआत उन्होंने 50.000 रूपए के छोटे निवेश के साथ सिट्रोनेला एवं दवाना से तेल निकालकर की।

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सीआईएमएपी द्वारा 3 वर्ष तक दिए गए तकनीकी मार्गदर्शन के बाद उन्होंने अपनी उद्यमशीलता का विस्तार किया और दवाना से कच्चा सुगंधीय तेल निकालना, जून माह में सिट्रोनेला तेल की सर्वश्रेष्ठ गुणवत्ता हासिल करना और वर्ष के बाकी महीनों में सिट्रोनेला व लेमन ग्रास की खेती करना शुरू किया। मालम्मा बताती हैं कि वे पूरे वर्ष तेल निकालकर उसकी आपूर्ति व बिक्री निजी कम्पनियों को करती हैं। वे कहती हैं कि हालांकि मुझे काफी दिक्कतों का सामना भी करना पड़ा लेकिन अपने सतत् प्रयासों के कारण आज मैं प्रतिवर्ष 8 लाख रूपए की आय अर्जित कर रही हूं। आपको बताते चलें कि मालम्मा औषधीय एवं सुगंधीय पौधों के बीजों और रोपण सामग्री की आपूर्ति पड़ोसी किसानों को कर उन्हें इसकी खेती करने के लिए प्रोत्साहित करती हैं। उन्हें कई पुरस्कारों से भी नवाजा गया है।

19- भारत में जैविक खेती को बढ़ाना लक्ष्य

मदर आर्गेनिक के नाम से आज की सफल महिला उद्यमी रीना भारतीया ने अपनी पहचान बनाई है। रीना सन् 2005 से जैविक खेती के अभियान से जुडी है, लम्बे समय तक जैविक खेती से जुड़े रहने की वजह से रीना ने जैविक खेती से मिलने वाले उत्पादों को प्रसंस्कृत करके उसे बाजार में 200 से भी ऊपर  घरों में प्रयोग किये जाने वाले उत्पादों को उपलब्ध किया है।

रीना का प्रयास है की भारत को पूरी तरह से जैविक खेती का देश बनाना है और पूरे देश को जैविक उत्पाद खिलाना है। आज के समय में रीना 5000 से भी अधिक किसानों से सीधा जुड़ाव है। रीना के इस प्रयास को देख कर कई महिलाएं भी प्रोत्साहित भी हो रहे हैं। रीना ने अपने सभी उत्पादों को मानक प्रक्रिया से प्रमाणित होने के बाद ही बाजार में उपलब्ध कराती हैं।  

    

20- महिला सशक्तिकरण ने बनाया सशक्त

लुधियाना की रहने वाली कमलप्रीत कौर यूं तो साधारण शखसियत वाली महिला हैं लेकिन उनके कारनामे पूरे गांव में फैले हुए हैं। सशक्त महिलाओं के रूप में वे अन्य महिलाओं के लिए प्रेरणास्रोत बनकर उभरी हैं। पिछले 3 वर्षों से वे कृषि से जुड़ी हुई हैं और डेयरी क्षेत्र में अपना हुनर दिखा रही हैं। महिला उद्यमियों के लिए उनसे बेहतर मिसाल कोई नहीं हो सकती। कमलप्रीत ने महिला सशक्तिकरण कोर्स के बारे में सुना था। इसके बाद उन्हें जिज्ञासा हुई कि क्यों न कोर्स करके देखा जाए। कोर्स करने के बाद उन्होंने महज एक गाय के साथ दूध बेचने का कार्य शुरू किया। धीरे-धीरे उन्हें अच्छी आमदनी होने लगी तो उन्होंने गायों की संख्या बढ़ा दी। आज उनके पास 41 गाय और 20 बछिया हैं जिनसे प्रतिदिन 4 क्विंटल दूध प्राप्त होता है। यही नहीं वे दूध बेचकर 3 लाख रूपए महीना आमदनी प्राप्त कर रही हैं। कमलप्रीत ने बताया कि 3 साल पहले इस काम को शुरू करने के लिए 25 लाख रूपए का खर्च उठाना पड़ा जिसमें से 18 लाख रूपए का लोन लेना पड़ा और बाकी रकम का इंतजाम किया लेकिन आज अच्छी आमदनी प्राप्त करने पर गर्व महसूस होता है कि उस समय लिया गया निर्णय सही रहा। आज मेरे साथ गांव की कई लड़कियां मेरे इस काम में हाथ बंटाती हैं और मैं उन्हें ट्रेनिंग भी देती हूं।

21- किसान समुदाय के बीच एक उदाहरण बनीं कान्ता

वादियों में जाकर मानसिक शांति का आभास करना आम बात है लेकिन इन्हीं वादियों के बीच खेती कर मानसिक शांति का अनुभव करना और लोगों का इस ओर ध्यान आकर्षित करने के साथ-साथ उन्हें प्रोत्साहित करना निश्चित ही हिम्मत का काम है। जिला शिमला की तहसील रोहरू में गांव सामला की 58 वर्षीय महिला किसान कान्ता दैष्टा ने कुछ ऐसा ही हिम्मत का काम कर दिखाया है। छः वर्ष पहले जैविक खेती की ओर उन्होंने अपने कदम बढ़ाए जिससे उन्हें अच्छा लाभ मिला। इसके साथ ही उन्होंने जैविक खेती को अपनाया और उसके उत्पादों का स्वयं भी उपभोग किया।

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सेब, शिमला जिले की प्रमुख नकदी फसलों में से एक है और कांता भी इसकी खेती करती हैं लेकिन जलवायु परिवर्तन और रासायनिक उर्वरकों व कीटनाशकों के अंधाधुंध प्रयोग के कारण सेब की फसल में खराब गुणवत्ता के कारण आकर्षक लाभ उन्हें नहीं मिल पा रहा था। यही कारण है कि उन्होंने जैविक खेती की ओर रूझान किया और गौमूत्र, जड़ी-बूटी, वर्मीकम्पोस्ट एवं जैव-कीटनाशकों का उपयोग करके जैविक खेती को अपनाया। सेब की खेती के साथ-साथ 7 एकड़ कृषि भूमि पर उन्होंने आडू, आलूबुखारा, नेक्टारिन, अनार, अंगूर तथा सब्जियों की खेती भी प्रारंभ की। इन्हीं सबके चलते उन्होंने आसपास के क्षेत्र में काफी ख्याति प्राप्त की। वे किसान समुदाय के बीच एक उदाहरण भी बनीं। जैविक रूप से उत्पन्न फसलों से श्रीमति कान्ता अच्छा लाभ कमा रही हैं और वे शिमला जिले में जैविक खेती करने वाली एक प्रगतिशील महिला किसान बन गई हैं। इस क्षेत्र में जैविक खेती की तकनीक का व्यापक विस्तार करने में इनका प्रमुख योगदान रहा है और जैविक खेती को पहले से कहीं अधिक अपनाया जा रहा है।

22- सुधा ने जलाई समग्र लौ

सुधा एक महिला उद्यमी हैं जिन्होंने वर्ष 2006 में बागवानी को बढ़ावा देने के उद्देश्य से समग्र एग्रीबिजनेस सर्विसेस प्राइवेट लिमिटेड की शुरूआत की। ‘गांवों की ओर’ परिकल्पना को लेकर बागवानी फसलों को बढ़ावा देने के लिए उन्होंने इस क्षेत्र में काफी संभावनाओं की तलाश की और वे रोजगार उत्पन्न करने के लिए प्रयासरत रहीं।

वे बताती हैं कि बागवानी में इतने अवसर हैं कि छोटे व सीमांत किसानों द्वारा उत्पादित फसलों से शहर के कई लोगों को आजीविका का साधन मिल जाता है। जब भारत में कृत्रिम तरीके से बागवानी फसलों को परिपक्व करने का मामला सामने आया था तब समग्र ही सम्पूर्ण भारत में एकमात्र ऐसी मुद्दा उठाया था। इसके एवज में संस्था द्वारा कृत्रिम तरह से बागवानी फसलों को परिपक्व करने के लिए उन्होंने विकल्प के तौर पर इथाइलिन गैस का इस्तेमाल करने पर जोर दिया। इथाइलिन गैस के माध्यम से आम व केला को कृत्रिम तरह से पकाया जा सकता है जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक भी नहीं है। इसी के चलते सुधा ने फसलों को पकाने के लिए आधुनिक चैम्बर्स बनाए जिसके संचालन के लिए 8.10 लोगों की आवश्यकता होती है। इसी परिकल्पना के चलते नेशनल सेंटर फॉर कोल्ड चेन डेवलपमेंट (एनसीसीसीडी) ने स्किल डेवलपमेंट प्रोग्राम की शुरूआत की जिसमें समग्र ने अहम भूमिका निभाते हुए बेरोजगार लोगों को प्रशिक्षित कर इन चैम्बर्स को संचालित कर उन्हें रोजगार मुहैया करवाया।

उन्होंने बताया कि पुश कार्ट वेंडर्स, स्ट्रीट हाकर्स और वे लोग जो बहुत गरीब हैं, इस क्षेत्र में आसानी से रोजगार पाते हैं। वहीं कई क्षेत्रों में ऐसे लोगों ने स्वसहायता समूहों से जुड़ना बेहतर समझा। समग्र द्वारा प्रशिक्षण कार्यक्रम तेलंगाना, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, छत्तीसगढ़, तमिलनाडु और केरला में संचालित किए जा रहे हैं। उन्होंने बताया कि समग्र के अंतर्गत हमने कई आनसाइट प्रशिक्षण कार्यक्रम संचालित किए जिनके माध्यम से बेरोजगार युवा, व्यापारी, सफल किसान, प्रमोटर्स, बैंककर्मी आदि को ट्रेनिंग दी गई। हमारी संस्था के माध्यम से उन 6 राज्यों के 1700 से अधिक लोगों को प्रशिक्षण दिया गया जहां केला व आम का उत्पादन बहुतायात में होता है।

 

23- खुद को बनाया सक्षम

इंसान अपनी पहचान किसी काम के जरिए ही बनाता है। उस इंसान को और भी अच्छा तब लगता है जब वह अपने साथ अपने साथियों की भी पहचान बनाता है। ऐसा किया है गुजरात के साबरकांठा जिले के ताजपुर गांव की 40 वर्षीय पटेल गीताबेन एम.एस.सी किए हुए हैं। गीताबेन हमेशा से कुछ अलग करना चाहती थीं। उनके इसी जुनून ने वर्ष 2010 में उनको डेयरी खोलने के लिए प्रेरित किया। 30 गायों के साथ उन्होंने इस डेयरी की शुरूआत कर कड़ी मेहनत की।

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इसके लिए आत्मा ने उनको प्रेरित किया जिसके बाद गायों की संख्या 150 हो गई। गीताबेन ने इजरायली तकनीक के इस्तेमाल से इस डेयरी की शुरूआत की। पशुपालन के साथ गीताबेन 10 एकड़ में खेती भी करती हैं। उनकी अपनी डेयरी है। वे डेयरी के जरिए सालाना लगभग 6 लाख तक कमा लेती हैं। ऐसा नहीं है कि वो सिर्फ खुद को ही सक्षम बना रही हैं बल्कि अपने साथ और महिलाओं को भी वे प्रशिक्षण देती हैं। उन्हें कई पुरस्कारों से भी नवाजा जा चुका है।

24- नम्रता बनीं सर्वश्रेष्ठ मशरूम उत्पादक

रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की डिग्री लेने के बाद 4 वर्षीय नम्रता प्रेमजी एक महिला मशरूम उत्पादक के रूप में उभरकर सामने आईं। छत्तीसगढ़ में रहने वाली नम्रता पहले राजकीय कालेज, रायपुर में रसायनशास्त्र की सह-प्राध्यापक थीं। बाद में इन्होंने मशरूम की खेती व मशरूम अंडजनन के उत्पादन व प्रसंस्करण का व्यवसाय अपनाया। वे वर्ष 2007 से राष्ट्रीय बागवानी मिशन के अंतर्गत महिला सशक्तिकरण के लिए कार्य कर रही हैं और मशरूम के उत्पादन, प्रसंस्करण और विपणन के लिए छत्तीसगढ़ के ग्रामीण क्षेत्रों में प्रशिक्षण प्रदान कर रही हैं। वे जिला कबीरधाम की जिला पंचायत के साथ मिलकर गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम के तहत छत्तीसगढ़ के सर्वाधिक प्राचीन आदिवासी बैगा के बीच मशरूम उत्पादन को लोकप्रिय बनाने की दिशा में कार्य कर रही हैं। उन्होंने विश्व बैंक की जेएफएम परियोजना के अंतर्गत छत्तीसगढ़ क्षेत्र में पर्यावरण विकास एवं वन्य जीव संरक्षण के लिए एनजीआई के रूप में कार्य किया। वे मशरूम की खेती पर दूरदर्शन एवं आकाशवाणी पर नियमित रूप से कार्यक्रम देती हैं। इन्हें एसपी फाउंडेशन, मुंबई द्वारा वर्ष 2003 (महिला किसान श्रेणी) के लिए पुरस्कार मिल चुका है। उन्हें वर्ष 2008 में एनआरसीएम सोलन (हिमाचल प्रदेश) द्वारा प्रगतिशील मशरूम किसान के रूप में कृषक रत्न सम्मान से सम्मानित किया गया। नम्रता को मशरूम उत्पादन व प्रसंस्करण के लिए छत्तीसगढ़ हार्टीकल्चर सोसायटी द्वारा दो बार सम्मानित किया जा चुका है। उन्होंने कौन बनेगा करोड़पति में भी भाग लिया।

विनोद कुमारी की प्रतिभा को पीएयू, लुधियाना ने पहचाना और उन्हें मार्च 2006 में आयोजित कृषि मेला में द्वितीय सर्वश्रेष्ठ उद्यमशीलता पुरस्कार प्रदान किया। वर्ष 2009 में भटिंडा में आयोजित क्षेत्रीय किसान मेला में सर्वश्रेष्ठ उद्यमशीलता पुरस्कार, मार्च 2011 में बल्लोवल सैकनोरी में आयोजित किसान मेला में द्वितीय सर्वश्रेष्ठ उद्यमशीलता पुरस्कार, वर्ष 2011 में पंजाब कृषि विश्वविद्यालय, लुधियाना द्वारा भटिंडा में आयोजित क्षेत्रीय किसान मेला में दूसरा सर्वश्रेष्ठ उद्यमशीलता पुरस्कार इनकी उपलब्धियों में से कुछ हैं।

इन्हें वर्ष 2012 में पीएयू, लुधियाना के किसान क्लब में भी शामिल किया गया। केवीके, होशियारपुर द्वारा प्रोत्साहित किए जाने पर अब इन्हें अपने व्यवसाय से प्रतिमाह 5000 रूपए,  मोबाइल वैन से 4000 रूपए प्रतिमाह और छोटे समारोहों के लिए बुकिंग आर्डर से 5000 रूपए प्रतिमाह की आय हो रही है। वे अपने ही गांव में एक नियमित बिक्री केंद्र से व किसान मेलों में स्टाल लगाकर प्रति माह औसतन 6000 रूपए की आय अर्जित कर रही हैं। आज वे 5 एकड़ में गेहूँ, मक्का, आलू और मटर की खेती करती हैं। उन्होंने फल व सब्जी प्रसंस्करण इकाई भी शुरू की है। आज उनके साथ कई महिलाएं इस कार्य में उनका हाथ बंटा रही हैं और रोजगार पा रही हैं।

25- कुक्कुट पालन व बागवानी ने दिलवाई सफलता

कर्नाटक की रहने वाली 41 वर्षीय मालती रामचंद्र हेगडे ने कुक्कुट पालन एवं बागवानी में अपना उद्यम शुरू किया। कुक्कुट पालन इन्होंने 25,000 लेयर पक्षियों की क्षमता के साथ प्रारंभ किया और अब इनके फार्म में भवन से ऊंचे उठे फ्लैट में पिंजरा पालन, स्वचालित जल सुविधा एवं आहार प्रणालियां एवं मल-मूत्र रख-रखाव प्रणाली आदि जैसी सभी नवीनतम प्रौद्योगिकियां हैं। शुरूआत में इन्होंने घरेलू प्रयोजन के लिए कुक्कुट तथा पशुओं के लिए आहार तैयार करने का कार्य शुरू किया लेकिन आज वे आहार का व्यावसायिक स्तर पर निर्माण कर उसकी बिक्री कर रही हैं। वे अण्डों व चूजों की आपूर्ति सीधे स्थानीय बाजार को करती हैं।

उन्होंने कुक्कुट फार्म से निकलने वाली खाद में मूल्य वर्धन का कार्य प्रारंभ कर उसका इस्तेमाल बागवानी फसलों के लिए किया। शुरू में इनके कुक्कुट फार्म से बड़ी मात्रा में निकलने वाले अपशिष्ट के कारण प्रदूषण की समस्या होती थी। तब इन्होंने बागवानी फसलों में इस अपशिष्ट का अनुप्रयोग करना शुरू किया जिससे उत्पादकता को बढ़ाने में मदद मिली। यह रीति कुक्कुट फार्म में स्वच्छता व सफाई रखने और अण्डा उत्पादन वृद्धि में मददगार साबित हुई। 49 एकड़ जमीन में वे पपीता, काजू, नारियल, सुपारी और आम की खेती के साथ कुक्कुट पालन भी करती हैं।

उन्होंने काजू (वेन्गुर्ला संकर) की अंतर फसल के साथ पपीते की खेती कर उसकी आपूर्ति गोवा व मुंबई के साथ-साथ स्थानीय बाजार में की। इन्होंने अतिरिक्त पपीते का इस्तेमाल पपीते का गूदा निकालकर कुक्कुट पक्षियों को आहार के रूप में देकर किया। इसके परिणामस्वरूप उत्साहवर्धक और आर्थिक दृष्टि से किफायती है। उन्होंने सुपारी की फसल के साथ अंतर फसल के रूप में कोको तथा काली मिर्च की खेती की। यही नहीं उन्होंने अपने खेत में 18 फीट के फासले पर गड्ढे खोदकर पूरे खेत में जल संचयन संरचना स्थापित की। इन गड्ढों में संचित जल से पूरे खेत को सिंचित करने के लिए ड्रिप इरीगेशन एवं फर्टिगेशन विधि का उपयोग किया और बोरवैल पुनर्भरण प्रणाली भी विकसित की।

-कृषि जागरण टीम 

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English Summary: Women's Farmer's Day: In the veil of the story, the faces of those faces, who made their own identity in society. Published on: 14 October 2017, 05:33 AM IST

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