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एपीडा ने 2025 में दो चरणों में कुल 18 जैविक प्रमाणन एजेंसियों पर कार्रवाई की इनमें कई राज्य सरकार संचालित संस्थाएँ भी शामिल थीं.
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मां दंतेश्वरी हर्बल समूह, बस्तर, देश का पहला सर्टिफाइड ऑर्गेनिक हर्बल ग्रोवर समूह है, जिसने जर्मनी की ECOCERT संस्था से 25 वर्ष पहले प्रमाणन प्राप्त किया.
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छत्तीसगढ़ के 2024-25 बजट में जैविक खेती के प्रोत्साहन के लिए मात्र ₹ 20 करोड़, जबकि प्रमाणीकरण हेतु ₹ 24 करोड़ का प्रावधान , यानी “घोड़े से ज़्यादा चाबुक की कीमत!”
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Bureau Veritas विश्व की अग्रणी व सबसे भारी भरकम अमेरिकी प्रमाणन एजेंसी के खिलाफ ‘मां दंतेश्वरी हर्बल समूह’ की ऐतिहासिक लड़ाई में यह एजेंसी सरासर दोषी पाई गई थी और अंत में अधिकतम ₹ 2 लाख का जुर्माना मुआवजे के रूप में एपीडा ने निर्धारित किया पर भुगतान आज तक लंबित!
भारत में “जैविक” शब्द अब उतना ही संदिग्ध हो चला है जितना सरकारी फ़ाइलों में “प्राथमिकता”, जो दिखती तो है, पर पहुँचती कभी नहीं, कहीं नहीं. किसानों की मेहनत से पैदा हुई ईमानदारी, अब प्रमाणन एजेंसियों की चालाकियों के जाल में उलझ कर रह गई है.
हाल में एपीडा (APEDA) ने देशभर की 18 जैविक प्रमाणन एजेंसियों पर शिकंजा कसा , जिनमें मार्च 2025 में 12 और सितंबर 2025 में 6 एजेंसियों पर कार्रवाई की गई. इन पर आरोप था कि इन्होंने बिना आवश्यक निरीक्षण और साक्ष्य के किसानों के उत्पादों को “ऑर्गेनिक” घोषित कर दिया, कई बार तो किसान खुद यह सुनकर चौंक गए कि वे अब यकायक ‘प्रमाणित जैविक उत्पादक’ हैं!
विडंबना यह कि जिन संस्थाओं को किसानों का हितैषी माना गया , जिनमें कुछ राज्य सरकारों द्वारा संचालित थीं , वही अब अनियमितता में लिप्त पाई गईं. मध्य प्रदेश, उत्तराखंड, तमिलनाडु, तेलंगाना जैसी जगहों पर प्रमाणन एजेंसियों ने “कागज़ी जैविकता” का खेल खेला और किसानों की मेहनत की कमाई को दांव पर लगा दिया.
“ट्रेसनेट” नहीं, “ट्रेडर्स-नेट” है असल नाम
एपीडा ने जिस डिजिटल प्रणाली TraceNet को किसानों की पारदर्शिता के लिए बनाया था, वह अब दलालनुमा व्यापारियों,बिचौलियों का उपकरण बन चुका है. इस प्लेटफ़ॉर्म पर किसान नहीं, बल्कि दलाल और निर्यातक खेलते हैं, और किसान वहीं खड़ा रह जाता है जहाँ से उसने शुरुआत की थी.
मैंने कई बार कहा है कि "TraceNet दरअसल “Traders-Net" है एक ऐसा नेटवर्क है जहाँ सर्टिफिकेट वही प्राप्त करता है जिसके पास तकनीकी दक्षता और जुगाड़ की क्षमता है, न कि खेत में पसीना बहाने वाला किसान.
मां दंतेश्वरी हर्बल समूह: वह बस्तर से उठी आवाज़ जिसने दुनिया को दिखाया रास्ता
यह भी स्मरणीय है कि जब देश में “ऑर्गेनिक” शब्द का उच्चारण भी मुश्किल था, तब बस्तर की धरती पर मां दंतेश्वरी हर्बल समूह ने वह इतिहास रचा जो आज भी भारत के जैविक आंदोलन की नींव है.
25 वर्ष पहले, जब न तो एपीडा के TraceNet का नाम था, न डिजिटल फॉर्मेट का, तब हमने जर्मनी की प्रतिष्ठित ECOCERT संस्था से अंतरराष्ट्रीय ऑर्गेनिक प्रमाणन प्राप्त किया था. देश का पहला सर्टिफाइड ऑर्गेनिक हर्बल कृषक ग्रुप (Certified Organic Herbal Grower Group) बनने का गौरव बस्तर ने ही पाया.
हमने जड़ी-बूटियों, औषधीय पौधों और मसालों की खेती में उस दौर में अंतरराष्ट्रीय मानक स्थापित किए, जब आज की कई एजेंसियाँ बनी ही नहीं थीं.
आज जब ये “प्रमाणन महारथी” अपने लाइसेंस बचाने में व्यस्त हैं, तब यह याद दिलाना ज़रूरी है कि भारत के किसान को भरोसा सरकारी सील से नहीं, बल्कि धरती की निष्ठा से मिला था.
ब्यूरो वेरिटास मामला: जब सच्चाई ने अंतरराष्ट्रीय दबाव को मात दी
सालों पहले, हम बस्तरिया जैविक किसानों की संस्था 'मां दंतेश्वरी हर्बल' समूह ने अमेरिका की प्रतिष्ठित प्रमाणन एजेंसी 'ब्यूरो वेरिटास (Bureau Veritas)' के खिलाफ लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी थी. यही वह एजेंसी है जो वाइट हाउस (White House), अमेरिका के राष्ट्रपति भवन की गुणवत्ता प्रणालियों तक का प्रमाणन करती रही है. लेकिन जब इस “वैश्विक ईमानदारी के सर्वोच्च प्रतीक” ने हम किसानों के साथ छल किया तो हमने हार नहीं मानी. लंबी कानूनी प्रक्रिया के बाद, एपीडा को ब्यूरो वेरिटास Bureau Veritas को दोषी मानना पड़ा और ₹ 2 लाख का जुर्माना भरने का आदेश देना पड़ा.
यद्यपि अमेरिकी दादागीरी दिखाकर उन्होंने अब तक भुगतान नहीं किया, पर भारत के किसान की सच्चाई अदालत में प्रमाणित हो चुकी थी. यह हमारी और भारत की जैविक प्रतिष्ठा के लिए एक ऐतिहासिक विजय थी, क्योंकि यह लड़ाई केवल एक संस्था की नहीं, बल्कि एक राष्ट्र के आत्मसम्मान की थी.
जब नीति खुद विरोधाभास बन जाए
अब ज़रा सरकारी नीतियों की विडंबना देखिए. छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में, जहाँ जैविक खेती को प्रोत्साहन देने की बात की जाती है, वहाँ कुल 20 करोड़ रुपये का प्रावधान जैविक खेती के लिए, और 24 करोड़ रुपये सिर्फ प्रमाणन के लिए रखा गया !
यह ऐसा ही है जैसे घोड़े से ज़्यादा चाबुक की कीमत देना. किसान खेत में मेहनत करे और अफसर इन ठग प्रमाणीकरण संस्थाओं के साथ गठजोड़ कर जैविक प्रमाणीकरण के नाम पर सारा बजट चाट जाएँ. ओरिया गोरख धंधा कितने सालों से चल रहा है क्या इसकी जांच नहीं की जानी चाहिए?
क्या सरकार को यह समझ नहीं कि जैविक प्रमाणीकरण तब सार्थक होगा जब किसान के पास जैविक उत्पादन का पर्याप्त साधन और समुचित समर्थन होगा? किसान को बिना प्रशिक्षण, बिना बाजार समर्थन, बिना उचित मूल्य गारंटी के केवल प्रमाणपत्र का बोझ देना, एक प्रकार का प्रशासनिक व्यंग्य है.
किसानों के साथ, या उनके सिर पर?
भारत में आज लगभग 37 मान्यता प्राप्त प्रमाणन एजेंसियाँ काम कर रही हैं, जिनमें 14 राज्य सरकारों के अधीन हैं. [स्रोत: NPOP मान्यता सूची, 2024] लेकिन किसान तक पहुँचने वाला लाभ या सुविधा नगण्य है. किसान आज भी वही पुराना सवाल पूछ रहा है “मुझे प्रमाणन नहीं, सम्मान चाहिए. मेरे उत्पादन का समुचित भुगतान चाहिए.” और यही कारण है कि जब विदेशी बाजारों में “इंडियन ऑर्गेनिक” उत्पाद घटिया पाए जाते हैं, तो साख सिर्फ एपीडा की नहीं गिरती देश के हर ईमानदार किसान की आत्मा को ठेस पहुँचती है.
यह केवल आर्थिक नहीं, नैतिक अपराध है, क्योंकि यह “जैविकता” के नाम पर “जैविक छल” है. और जब यह छल हमारे किसानों की छवि और देश की विश्वसनीयता दोनों को धूमिल करता है, तब यह कृषि-देशद्रोह की श्रेणी से कम नहीं ठहराया जा सकता.
अब कार्रवाई नहीं, जवाबदेही चाहिए
एपीडा द्वारा एजेंसियों के लाइसेंस रद्द करना पहली सीढ़ी है, मंज़िल नहीं. अब ज़रूरी है कि इनसे जुड़े अधिकारियों, निर्यातकों, और दलालों की पिछले दस वर्षों की गतिविधियों का गहन, सूक्ष्म फोरेंसिक ऑडिट कराया जाए. जो एजेंसियाँ दोषी पाई गईं, उनकी मान्यता तो रद्द हो, पर साथ ही उन्होंने किसानों को जो आर्थिक क्षति पहुँचाई , उसका समुचित मुआवजा भी सुनिश्चित हो. और सबसे बढ़कर, किसानों को इस व्यवस्था के दर्शक नहीं, भागीदार बनाया जाए.
उनके अधिकारों और शिकायतों के लिए एक स्वतंत्र “ऑर्गेनिक किसान आयोग” बने, जहाँ किसान की आवाज़ प्रमाणीकरण की मुहर से ऊपर सुनी जाए. अंत में,: हमें “जैविक” का अर्थ फिर से जैविक बनाना होगा. आज वक्त आ गया है कि “जैविक” को केवल निर्यात का लेबल नहीं, बल्कि धरती से जुड़ा आंदोलन बनाया जाए. किसान का पक्ष ही राष्ट्र का पक्ष है.
जब तक प्रमाणन का नियंत्रण व्यापारियों और बिचौलियों के हाथ में रहेगा, तब तक भारत के खेत जैविक नहीं, बल्कि काग़ज़ी ही रहेंगे. बस्तर की मिट्टी से उठे “मां दंतेश्वरी हर्बल समूह” जैसे उदाहरण दिखाते हैं कि किसान स्वयं ईमानदारी और गुणवत्ता की परिभाषा तय कर सकता है, बिना किसी दलाल और जाल के.
आज आवश्यकता है कि सरकार और समाज दोनों उस सच्चाई को पहचानें कि भारत का जैविक भविष्य किसी एजेंसी की मुहर से नहीं, बल्कि किसान के चरित्र से तय होगा. और जब तक यह नहीं होगा, तब तक यह पूरी व्यवस्था “प्रमाणन” नहीं, एक संगठित भ्रम-व्यवसाय बनी रहेगी.
लेखक: डॉ. राजाराम त्रिपाठी, ग्रामीण अर्थव्यवस्था विशेषज्ञ तथा अखिल भारतीय किसान महासंघ (AIFA) के राष्ट्रीय संयोजक हैं.
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