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हल्दी की वैज्ञानिक खेती

हल्दी एक उष्ण कटिबन्धीय जड़ी बूटी है और भारत में हल्दी की अच्छी पैदावार होती है. निर्यातक कि तौर पर अगर देखा जाये तो भारत इसकी निर्यात में भी अग्रणी है. इसका प्रयोग सौन्दर्य, प्रसाधनो, मांगलिक कार्यो धार्मिक कार्यो धार्मिक अनुष्ठानो और देव पूजन आदि में किया जाता है. इसकी खेती के लिए गर्म तथा आद्र मौसम उपयुक्त होता है, देश में हल्दी की अनेक किस्में विकसित की गयी है.

हल्दी की वैज्ञानिक खेती

हल्दी एक उष्ण कटिबन्धीय जड़ी बूटी है और भारत में हल्दी की अच्छी पैदावार होती है. निर्यातक कि तौर पर अगर देखा जाये तो भारत इसकी निर्यात में भी अग्रणी है. इसका प्रयोग सौन्दर्य, प्रसाधनो, मांगलिक कार्यो धार्मिक कार्यो धार्मिक अनुष्ठानो और देव पूजन आदि में किया जाता है. इसकी खेती के लिए गर्म तथा आद्र मौसम उपयुक्त होता है, देश में हल्दी की अनेक किस्में विकसित की गयी है. इसमें लगने वाले कीटों और रोगों की वैज्ञानिक ढ़ंग से रोकथाम करके अधिक लाभ कमाया जा सकता है विश्व के कुल 90% भाग अकेला भारत उत्पादन करता है. भारत में हल्दी की खेती बिहार, उड़ीसा, आन्ध्रप्रदेश, महाराट्र, तमिलनाडु, केरल कर्नाटक, असम, उत्तर प्रदेश, तथा मध्यप्र देश में की जाती है. बिहार में हल्दी की खेती चम्पारण, सीतामनी, मुजफर्पुर, खगड़िया, वेगूसराय, वैसाली तथा पटना में होती है जिस प्रकार खाद्यान फसलो में धान और गेहूं का महत्त्व है उसी प्रकार मसाले वाली फसलों में हल्दी का महत्त्वपूर्ण स्थान है. भारत जलवायु विभिन्नता होने के कारन यहां की भोजन व्यवस्था भी भिन्न हैं. लेकिन कृषि में तकनीकी बदलाव के बाद हल्दी सभी क्षेत्रो में मांग को दर्शाती है.

जलवायु और भूमि

हल्दी मुख्यत: विभिन्न कटिबन्धीय क्षेत्रों और समुद्र स्तर से लगभग 1500 मीटर से ऊपर उपरी क्षेत्रो में उगाया जा सकता है. इसकी खेती के लिए गर्म तथा आद्रता वाला मौसम उपुक्त होता है इन क्षेत्रों का तापमान 20-35 C और वार्षिक वर्षा लगभग 1500 मिलीमीटर होना चाहिए सिंचित दशाओ में इसे किसी भी उपजाऊ भूमि में उगाया जा सकता है परन्तु इसकी खेती के लिए बलुई दोमट या मटियार दोमट भूमि सर्वोतम होती है. भूमि में उपजाऊ और पानी के निकास का उचित प्रबंधन होना चाहिए भूमि का पी एच मान 4.5 से 7.5 होना चाहिए तथा जैविक जीवाणु प्रचुर मात्रा में होना चाहिए.

खेत की तैयारी

पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करें फिर दो से तीन जुताई देशी हल से करें. प्रत्येक बार पाटा चलाकर मिट्टी को भुरभुरी बना दें अंतिम जुताई के समय खेत में 20-25 टन सड़ी गोबर की खाद 325 किलोग्राम सुपर फास्फेट तथा 200 किलोग्राम एम.मो.पी. की दर से मिट्टी में अच्छी तरह से मिला दें. यदि मिट्टी में दीमक की सम्भावना हो तो 25 किलो प्रति हेक्टेयर की दर से एल्ड्रीन डस्ट 5% भी मिट्टी में डालकर मिला दें और खेत में पाटा चलाकर खेत को समतल बना लें. इसी समय खेत में जल निकास के लिए नालियां 5 मीटर की दूरी पर बना लें इन नालियों की गहराई 15 सेन्टीमीटर से ज्यादा नहीं होना चाहिए ढ़ाल की दिशा में.

हल्दी की किस्मे, फसल अवधी और उपज विवरण

किस्मे,

फसल अवधी

औसत उपज (टन/हैक्टेयर)

सुवर्णा

200

17.4

सुगना

190

29.3

सुदर्शना

190

28.8

आई आई एस आर प्रभा

195

37.5

आई आई एस आर प्रतिमा

188

39.1

सी. ओ-1

285

30

बी सी आर-1

285

30

कृष्णा

240

9.2

सुगंधम

210

15

रोमा

250

20.7

सुरोमा

255

20

रंगा

250

29

रश्मी

240

31.3

राजेन्द्र सोनिया

255

42

 

बीज की मात्रा और बीजोपचार

हल्दी की बुबाई हेतु मात्र कन्द या बाजू कन्द अथवा दोनों प्रकार के कन्दो का प्रयोग करते हैं बीज के लिए 20-25 ग्राम के मात्र कन्द अथवा 20 ग्राम के बाजू कन्द का प्रयोग करना चाहिए बुवाई हेतु कन्दो का चुनाव करते समय ध्यान रखना चाहिए कि इन कन्दो में कम से कम दो आंखे हो एक हेक्टेयर भूमि में बुवाई हेतु 6-8 कुन्टल कन्दो की जरूरत पड़ती है खेत में लगाने से इन कन्दो को 2.5 ग्राम इन्डोसल्फान एम-45+ 0.1% वैविस्टीन का घोल बनाकर उसमे आधे घंटे तक उपचारित कर बुवाई हेतु प्रयोग करना चाहिए. एक बार तैयार घोल को तीन बार से ज्यादा बार हल्दी की गांठो को उपचारित करने हेतु उपयोग नही करना चाहिए.

बीज दर

एक हक्टेयर भूमि में हल्दी की बुवाई के लिए 20-25 कुन्टल बीज प्रकंदो का बजन उनके आकर का वजन उनके आकर पर निर्भर करता है

बुवाई की विधि

हल्दी लगाने के लिए मुख्यत: तीन विधियां अपनाई जाती हैं

  1. समतल भूमि में
  2. मेड़ो पर
  3. क्यारियों पर

1 समतल भूमि

उपजाऊ बलुई दोमट और अच्छे जल निकास वाली भूमि होने की दशा में समतल भूमि हल्दी की खेती कर अच्छी उपज प्राप्त की जा सकती है. समतल भूमि में हल्दी लगाने के 4 से 8 मीटर लम्बी और 2 से 4 मीटर चौड़ी क्यारियां बनाकर पंक्ति से पंक्ति की दूरी 25 सेंटीमीटर रखते हुए हल्दी की गांठो की बुवाई सीधी भूमि में कर देते है.

2 मेड विधि

मेड विधि में की उचाई 25-30 सेन्टीमीटर की होनी चाहिए मेड से मेड की दूरी और पौधे से पौधे की दूरी पूर्ववर्ती ही होनी चाहिए मध्यम अथवा भारी भूमि क्यारी विधि द्वारा किया जाना उपुक्त होता है.

3 क्यारियों की विधि

ऊंची उठी हुई क्यारियों में क्यारियों की लम्बाई 3 से 5 मीटर तक चौड़ाई 1.5 मीटर ज्यादा सुविधाजनक होती है. दो क्यारियों के मध्य 40 सेन्टीमीटर जगह खाली छोड़ना उपयुक्त होता है ऊपरी क्यारी विधि में पंक्ती से पंक्ती की दूरी 30 सेन्टीमीटर और पौधे से पौधे की दूरी 15 सेन्टीमीटर रखनी चाहिए हल्दी की गांठो की बुवाई करते समय इस बात का ध्यान रकना चाहिए कि गांठो में आंखे ऊपर की ओर होना चाहिए तथा उसकी 4-5 सेन्टीमीटर से अधिक न होने पाये बुवाई के पश्चात कन्दो को मिट्टी में अच्छी प्रकार से ढक देना चाहिए.

खाद एवं उर्वरक

हल्दी को अन्य फसलो की अपेक्षा पोषक तत्व की अत्यधिक आवश्यकता होती है जो की सामान्य भूमि से पूरी नहीं हो पाती, इसके साथ-साथ उपज पाने के लिए भी समुचित और संतुलित मात्रा में उर्वरक डालना चाहिए इसके लिए भूमि परीक्षण करा के ही उर्वरक डालना चाहिए. 30-40 टन/हक्टेयर की दर से गोबर की खाद खेत की तैयारी के सयम डालनी चाहिए. इसके अतिरिक्त 60 किलोग्राम नाइट्रोजन 50 किलोग्राम फास्फोरस तथा 120 किलोग्राम पोटाश प्रति हैक्टर की दर से वैज्ञानिकों द्वारा संस्तुत विभिन्न तरीकों और समय पर प्रयोग करना चाहिए. जिंक का 5 किलोग्राम प्रति हैक्टर की दर से बुवाई के समय प्रयोग लाभकरी होता है हल्दी की बुवाई के तुरन्त बाद 12-15 टन/हैक्टर की दर से हरी पत्तियों से ढक देना चाहिए. यह प्रक्रिया बुवाई के 40 और 90 दिन पश्चात् निराई गुराई और खाद की शेष मात्राओं के प्रयोग के पश्चात् करने से भी उत्पादन में वृद्धि देखी गई है. इस प्रक्रिया को पलवार कहते हैं इसके लिए 7.5 टन/हैक्टर हरी पत्ती की आवशकता होती है.

हल्दी में खाद प्रयोग का सयम

प्रयोग के तरीके

नाइट्रोजन

फास्फोरस

पोटाश

गोबर की खाद

बुवाई के पूर्व भूमि में प्रयोग

-

50 किलोग्राम

-

40 टन

40 दिन बाद

30 किलोग्राम

-

60 किलोग्राम

-

90 दिन बाद

30 किलोग्राम

-

60 किलोग्राम

-

 

निराई गुराई 

हल्दी में निराई-गुराई अधिक से अधिक तीन बार करनी चाहिए यह निराई-गुराई बुवाई के 60, 90 औए 120 दिन बाद करनी चाहिए. हल्दी लम्बी आवधि की फसल होने के कारन इसमें समुचित सिंचाई की आवश्यकता होती है चूंकि हल्दी की बुवाई मई-जून में की जाती है अत: बुवाई के पूर्व वर्षा ना होने की दशा में आवश्यकतानुसार 6-7 दिनों के अन्तराल पर वर्षा की स्थिति को देखते हुए सिंचाई करनी चाहिए शीत ऋतु में यह सिंचाई 10-15 दिनों के अन्तराल में करनी चाहिए क्योंकि हल्दी के खेत में नमी 50-75% से ऊपर बनी रहनी चाहिए इस्लिए दोमट भूमि में 40 सिंचाई तक की संस्तुति की गई है.

कीट वा रोग

सामान्य हल्दी की फसल में कीट बीमारियों का प्रकोप कम देखने को मिलता है परंतु फिर भी कभी-कभी कीट और रोगों का प्रकोप दिखाई पड़ता है कीटों, रोगों और उनके उपचार के सम्बन्ध में विस्तृत जनकारी नींचे दी गई है.

कीट

शूट बोरर हल्दी का सबसे अत्यधिक नुकसान दायक कीट है इसके लार्वा तने में छेद कर देते हैं और अंकुरित तने को खा जाते हैं जिसके फलस्वरूप तना पीला होकर सूख जाता है छदम तने में छिद्र की मौजूदगी (जिसके जरिए कीट का मल निकलता है) तथा केन्द्रीय तना का कुम्हलाना कीट के प्रकोप का लक्षण है. प्रौढ़, छोटे पतंगे होते हैं जिसके संतरी रंग के पंखो पर छोटे-छोटे काले धब्बे होते है. इनका प्रकोप बरसात के मौसम में होता है अत: इनके नियंत्रण के लिए जुलाई से अक्टूबर के दौरान 21 दिन के अन्तराल पर मोनोक्रोटोफास 36% 2 मिलीलीटर दवा प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करने से कीट पर प्रभावी नियंत्रण होता है.

पत्ती लपेटक (लीफ रोलर्स)

लीफ रोलर्स का लार्वा का लार्वा पत्तियों को काट देता है और यह आपस में लिपट जाती है. प्रौढ़ मध्यम आकार का तितली जैसा होता है जिसके भूरे काले पंख होते हैं गम्भीर संक्रमण की दशा में नियंत्रण हेतु कार्बोरिल 3 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए.

प्रकन्द (रिजोम) स्केल

रिजोम स्केल खेत तथा भंडार में प्रकंदो को संक्रमित करता है यह खेत में पौधों का रस चूसता है खेत में गम्भीर प्रकोप होने पर कुम्हलाकर सूख जाते है भंडार में कीट का प्रकोप होने पर कन्द कुम्हला जाते हैं तथा इससे कन्द का अंकुरण भी प्रभावित होता है. प्रौढ़ मादा स्केल छोटे गोलाकार और हल्के भूरे से मटमैले रंग के होते है तथा राइजोम पर पपड़ी के रूप में दिखाई देता है. इस कीट से प्रभावित पौधा को उखाड़ कर फेक देना चाहिए जिससे दूसरे पौधे प्रभावित न हो सकें. तथा भण्डारण औए बुवाई से पूर्व कन्दो को क्वनिल 0.075% के घोल में दो बार डुबोना चाहिए.

पत्ती चित्ती

पत्तियों के किसी भी ओर छोटे अंडाकार, आयताकार तथा अनियमित भूरे धब्बों के रूप में यह रोग दिखाई देता है. जिन पत्तियों पर इनका प्रकोप होता है वे शीघ्र ही गंदी पीली या गहरी भूरी दिखाई देने लगती हैं जिससे उपज में गिरावट आ जाती है गंभीर प्रकोप होने पर पौधा झुलसा हुआ दिखाई देता है इसके नियंत्रण हेतु डाईथेंन एम-45 की 2 ग्राम/लीटर पानी में घोल का दो बार छिडकाव करना चाहिए.

प्रकन्द गलना (राइजोम रॉट)

इस रोग के कारन प्रकंदो में गलन किनारों से शुरू होती है और पत्ती सूख जाती है. छदम तने का काला भाग मुलायम हो जाता है जिससे पौधा गिर जात्ता है इस रोग से बचने के लिए भंडार तथा बुवाई के सयम मात्र कन्दो को 30 मिनट तक 0.3% डाईथेंन एम-45 या 0.3% सिरेसान के दो छिड़काव करना चाहिए.

फसल की खुदाई तथा उपज

हल्दी की अगली, मध्यम तथा पिछली प्रजातियां बुवाई में क्रमशः 7-8, 8-9 और 9-10 माह में पककर खुदाई के लिए तैयार हो जाती हैं फ़रवरी से अप्रैल तक खुदाई कर हल्दी की कन्द निकला जाता है तथा साफ करके ढेर के रूप में एकत्र कर ली जाती है अच्छी फसल होने की दशा में 250-215 कुंटल प्रति हैक्टर की दर से ताजी हाल्डे प्राप्त होती है. जो की प्रोसेसिंग के उपरान्त 35-50 कुंतल तक रह जाती है. हल्दी की पत्तियों के आसवन से 20-25 किलोग्राम प्रति हैक्टर तेल भी प्राप्त होता है.

हल्दी का प्रक्रियाकरण

हल्दी के प्रक्रियाकरण में मुख्यत: चार चरण जैसे उबलना, सुखाना, पालिश करना तथा रंग चढ़ाना होता है.

हल्दी का उबलना

खुदाई के बाद हल्दी के मात्र कन्द से अन्य कन्दो का सुरक्षित भण्डारण कर लेते हैं. कन्दो को अच्छी तरह से धुल लेने के बाद उबाला जाता है उबालते समय चूने के पानी अथवा सोडियम बाईकार्बोनेट का उपयोग किया जाता है. इसके अतिरिक्त मिट्टी अथवा तांबे के पात्र में भी उबालने में प्रयोग होता है. कन्दो को उबालने की क्रिया लगभग 45-60 मिनट तक चलती है जब तक झाग अथवा एक विशेष प्रकार का गंध आना प्रारम्भ हो जाये अथवा इसके अतिरिक्त उबली हुई कन्दो को उगली से या लकड़ी से दबाकर देखा जा सकता है. यदि कन्द दबाने से पूर्णयता दब जाये तो यह माना जा सकता है कि कन्द उबलने की क्रिया पूर्ण हो चुकी है.

यह ध्यान रखना चाहिए की कन्द पूर्णतया उबल जाये हल्दी के कन्द को उबालने के लिए एक विशेस प्रकार की चिद्रयुक्त कड़ाही का उपयोग भी किया जा सकता है इस छिद्रयुक्त में हल्दी की गाठे/कन्द रखकर बड़े पात्र में उबलते पानी में कन्द वाली छिद्रयुक्त कड़ाही से बहार निकालकर उबली हुई कन्द की जगह नये कन्द पुन: उबालने हेतु रखे जा सकते हैं

सुखाना

उबले हुये कन्दो को धूप में सुखाया जाता है इन्हें बांस की चटाई अथवा दरी आदि पर 5-7 सेन्टीमीटर मोटाई की परत बनाकर सुखाय जाता है. रात्रि के सयम इन कन्दो को एकत्र कर ढ़क देना चाहिए धूप की स्थिती और तीब्रता के अनुसार कन्द 10-15 दिनों में पूर्णतया (6% नमी) सूख जाते हैं. कन्दो को आधुनिक मशीनों द्वारा सुखाने हेतु 60ᴼतापमान के गर्म वायु का संचरण भी लाभकारी पाया गया. हल्दी की प्रजाती और अन्य परिस्थितियों के अनुसार सूखने की उपरान्त की, हल्दी गीली गीली हल्दी की तिलना में केवल 15-30% ही शेस रह जाती है.

हल्दी की पॉलिशिंग

सूखने के उपरान्त प्राप्त हुई हल्दी देखने में लुभावनी नहीं दिखती अत: इसके बाहरी आवरण को आपस में रगड़ा जाता है. जिससे कन्दो के बाहरी आवरण पर चमक पैदा हो जाती है. इस क्रिया द्वारा रंग चढ़ाने को पोलिशिंग कहते हैं इसके लिये हस्तचलित/ मशीन से चलाने वाले ड्रम/पॉलिश भी प्रचलन में हैं

इन ड्रमों को घमने से सूखी हल्दी की गांठे आपस में और ड्रम की दीवार से घर्सन करती है जिससे पोल्शिंग की प्रक्रिया पूर्ण हो जाती है.

हल्दी की रंगाई

हल्दी का अच्छा रंग ग्राहकों को आकर्षित करता है अतः हल्दी की गहराई के लिये सूखी गांठो में 2 लिकोग्राम प्रति कुंटल की दर से हल्दी पावड़ा मिलाया जाता है इस प्रक्रिया को हल्दी की रंगाई कहते है.

बीज संग्रहण

कुदाई के उपरान्त प्राप्त हल्दी के कन्दो को विक्री के लिए बाजार भेजा जाता है तथा आवश्यकतानुसार कुछ भाग अगले साल बुवाई हेतु बीज स्वरूप रखा जा सकता है. इन कन्दो को एक गहरे गड्ढ़े में रखा जाता है संग्रहित करने से पूर्व इन कन्दो को 0.25% इन्डोफिल एन-15, 0.15% बाविस्टीन, 0.05% मेलाथियान से 30 मिनट तक उपचारित करना चाहिए. उपचारित करने के पश्चात् इन कन्दो को छाए में सुखाया जाता है. रखने हेतु गड्ढ़ा खोदते सयम यह ध्यान रखना चाहिए की ये गड्ढ़े सूर्य की धीमी रोशनी से दूर रहे गड्ढ़ा प्रायः 1 मीटर लम्बा तथा 30 सेन्टीमीटर गहरा समतल आकार में होना चाहिए.

वीपणन

भारत में पैदा की गई हल्दी की 90% खपत देश में ही हो जाती है. बाकी का बचा हुआ 10% अन्य देशों में निर्यात किया जाता है जसमे श्रीलंका, दक्षिण-अफ्रीका, ईरान और ब्रिटेन प्रमुख देश हैं. खुदरा बाजार में हल्दी की आजकल कीमत 90-100 रूपये प्रति किलोग्राम से भी ज्यादा है. देश के विभिन्न भागो में किये गये परीक्षणों तथा उनसे प्राप्त परिणाम से यह स्पष्ट सन्देश मिलता है की लगातार धान फसलों को उगाने से मृदा में किसी ना किसी सूक्ष्म पोषक तत्व की कमी होने के कारन फसलों की उपज प्रभावित हो रही है, लगातार घटते प्रति वयक्ति जोत आकार के कारन भी किसान खेतो में अधिक लाभ नही पा रहे. अतः अन्य फसलों को अपना कर कृषि में उपज व आय को बढ़ाया जा सकता है. सनुक्त फसल चक्र के अनुसार खेती करने से किसानों को अधिक आय प्राप्त होकर वे खुशहाल जीवन व्यतित कर सकेंगे.

 

लेखक:

अनुपमआदर्श, सरैयाकेन्द्रविज्ञानकृषि, प्रक्षेत्रप्रबंधक मुजफ्फरपुर बिहार(843126)

अरविन्दभाईपटेल,वरीयअनुसंधानसहायकबि॰कृ॰वि॰वि॰सबौर, बिहार(813210)

तेजप्रताप, वरीयअनुसंधानसहायककृषिविज्ञानकेन्द्रसिरसऔंगाबाद(824112)

संतोषकुमारदुबे,बि॰कृ॰वि॰वि॰सबौर, बिहार(813210)

डॉ॰ चन्दन कुमार सिंह (शोध सहायक)वनस्पतिसंगरोधकेन्द्र,अमृतसर,पंजाब

English Summary: Turmeric scientifically Published on: 03 August 2018, 09:11 IST

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