जाल (salvadora olcoides) सूक्ष्म जलवायु में विलुप्त होता एक महत्वपूर्ण वृक्ष है. इसकी प्रतिष्ठा इस बात से भी लग सकती है, कि महाभारत के करणपर्व के अध्याय 30 में श्लोक 24 में इसका वर्णन किया गया है. गुरु नानक जन्मतिथि में जाल वृक्ष का उल्लेख मिलता है, जब गुरु धूप से बचने के लिए इसका उपयोग करते थे. इस पेड़ की लंबाई 18 से 30 फीट व तने की चौड़ाई 10 फीट तक मिल जाती है. वृक्ष की नई पत्तियां चैत्र-वैशाख में आना शुरू होती है, तथा जेठ मास तक उस की सतह मोटी व शुष्क हो जाती है, जो ग्रीष्म ऋतु में वृक्ष उत्सर्जन को कम करने में सहायक होती हैं. इस वृक्ष को लवणीय भूमि, शुष्क जलवायु व बंजर होती जमीन पर फलने फूलने का मुख्य कारण है. वैशाख महीने में जाल वृक्ष पर हरे व सफेद रंग के फूल आने शुरू होते हैं और जेठ आषाढ़-माह तक पीले लाल रंग के साथ पककर तैयार हो जाती हैं.
मवेशियों के लिए हरे चारे के रूप में इस्तेमाल की जाती हैं पत्तियां
जाल के वृक्ष की हरी पत्तियां मवेशियों के लिए हरे चारे के रूप में इस्तेमाल की जाती हैं तथा सूखी पत्तियों को भविष्य में चारे के लिए भंडारण किया जाता है. जाल के पौधे की लकड़ी कमजोर व हल्की होती है. घनी टहनियों से सुशोभित जाल के पेड़ का तालाबों, भूमि बंजर व शुष्क जलवायु में विशेष महत्व रखता के लिए है. सघन पत्तियों और तने के बने कोटर बहुत सारे स्थानीय पक्षियों के लिए उत्तम निवास स्थान प्रदान करते हैं. जाल वृक्ष की संख्या कम होने के कारण मोर, तोते, चिड़िया, जंगली बिल्ली, कोयल आदि के भी निवास स्थान की कम हुए हैं, जिसके कारण ये या तोदूसरे स्थानों पर पलायन कर गए या विलुप्त प्रजातियों में शुमार हो गए हैं.
कई तरह से है उपयोगी
स्थानीय निवासी वृक्ष की टहनियों को दांत साफ करने के लिए एवं जड़ का इस्तेमाल बर्तन साफ करने में करते हैं. इसकी लकड़ी की राख का इस्तेमाल ऊंट, गाय, भैंस, बकरी आदि के काटे गए के स्थान पर इस्तेमाल करते हैं.
बढ़ाता है रोग प्रतिरोधक क्षमता
इसके औषधीय गुण बीमारी फैलाने वाले जीव व सूक्ष्मजीवों के लिए रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने का काम करते हैं. राख छाले व कटी-फटी चरम पर औषधि के रूप में की जाती है. इस वृक्ष छाल मवेशियों को जलन व पेट की बीमारियों से बचाती है.
मानव चिकित्सा में भी इसका प्रयोग अग्रणीय
इसकी जड़ की छाल व पत्तियों से बने चूर्ण को छाले, बवासीर, खासी, गठियाबाव, बुखार, आंखों के संक्रमण आदि रोगों के उपचार में लिया जाता है. पक्षियों द्वारा इसके बीजों का दूसरे स्थानों पर परिवहन होने के बावजूद उनके अंकुरण की संभवना ना के बराबर होती है. जाल का पुनर्जन्म मुख्य रूप से जड़ व प्राकृतिक लेयरिंग से होता है, लेकिन इसका विकास बहुत धीरे-धीरे होता है और इनकी नई अंकुरित कोपलों को मवेशी आसानी से खा जाते हैं. बेमेल नर व मादा पुष्पों में परागण बहुत समय तक जिंदा न रहना जो धरती पर घटती इसकी संख्या का महत्वपूर्ण कारण है. लकड़ी व औषधि के लिए वृक्ष की अंधाधुंध कटाई भी इसकी घटती संख्या के लिए जिम्मेदार है.
बढ़ती जनसंख्या के लिए अधिक से अधिक जमीन पर कृषि कार्यों, शहरी और औद्योगिकरण के लिए भूमि अधिग्रहण ने भी इस वृक्ष के निवास स्थान को हड़पने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. कृषि विविधीकरण स्थानीय पशु-पक्षियों की घर वापसी, टूटती भोजन श्रृंखला, जलवायु परिवर्तन के संरक्षण के लिए हमें इस मूल्यवान वृक्ष को विलुप्त होने से बचाना मनुष्य जाति के लिए अहम है. इसके औषधीय गुण स्थानीय लोगों व पशु पक्षियों के स्वास्थ्य संरक्षण में अहम भूमिका अदा करता है. इसलिए इस प्रचार-प्रसार व महत्व को आज के युवाओं में समझना और भी महत्वपूर्ण है ताकि वे भी इस गुणों से युक्त वृक्ष को बचाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे सकें. कृषि विशेषज्ञों, वातावरण विशेषज्ञों व जैवप्रौद्योगिकी से जुड़े लोगों को एक साथ मिलकर सामरिक महत्व के वृक्ष को बचाने व इसे बढ़ावा देने के लिए मिलकर काम करना अनिवार्य हो गया है.
लेखक- डॉ मोहिंदर सिंह, डॉ सोनिया गोयल
SGT यूनिवर्सिटी, गुरुग्राम
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