1. Home
  2. बागवानी

किसान भाई इसकी खेती आपको कर देगी मालामाल...

भारत में स्ट्राबेरी की खेती सर्वप्रथम उत्तर प्रदेश तथा हिमाचल प्रदेश के कुछ पहाड़ी क्षेत्रों में 1960 के दशक से शुरू हुई, परन्तु उपयुक्त किस्मों की अनुउपब्धता तथा तकनीकी ज्ञान की कमी के कारण इसकी खेती में अब तक कोई विशेष सफलता नहीं मिल सकी।

भारत में स्ट्राबेरी की खेती सर्वप्रथम उत्तर प्रदेश तथा हिमाचल प्रदेश के कुछ पहाड़ी क्षेत्रों में 1960 के दशक से शुरू हुई, परन्तु उपयुक्त किस्मों की अनुउपब्धता तथा तकनीकी ज्ञान की कमी के कारण इसकी खेती में अब तक कोई विशेष सफलता नहीं मिल सकी। आज अधिक उपज देने वाली विभिन्न किस्में, तकनीकी ज्ञान, परिवहन शीत भण्डार और प्रसंस्कण व परिरक्षण की जानकारी होने से स्ट्राबेरी की खेती लाभप्रद व्यवसाय बनती जा रही है। बहुद्देशीय कम्पनियों के आ जाने से स्ट्राबेरी के विशेष संसाधित पदार्थ जैसे जैम, पेय, कैंडी इत्यादि बनाए जाने के लिये प्रोत्साहन मिल रहा है।

जलवायु :

भारत में स्ट्राबेरी की खेती शीतोष्ण क्षेत्रों में सफलतापूर्वक की जा सकती है। मैदानी क्षेत्रों में सिर्फ सर्दियों में ही इसकी एक फसल ली जा सकती है। पौधे अक्टूबर-नवम्बर में लगाए जाते है, जिन्हें शीतोष्ण क्षेत्रों से प्राप्त किया जाता है। यहाँ फल फरवरी-मार्च में तैयार हो जाते है।

भारतीय कृषि अनुसन्धान संस्थान के क्षेत्रीय केन्द्र शिमला में किये गए शोध यह सिद्ध करते हैं कि दिसम्बर से फरवरी माह तक स्ट्राबेरी की क्यारियाँ प्लास्टिक शीट से ढँक देने से फल एक माह पहले तैयार हो जाते हैं और उपज भी 20 प्रतिशत अधिक हो जाती है। अधिक वायु वेग वाले स्थान इसकी खेती के लिये उपयुक्त नहीं है। इन स्थानों पर वायु रोधक प्रावधान होना चाहिए।

 

भूमि का चुनाव तथा खेत की तैयारी :

इसकी खेती हल्की रेतीली से लेकर दोमट चिकनी मिट्टी में की जा सकती है, परन्तु दोमट मिट्टी इसके लिये विशेष उपयुक्त होती है। रेतीली भूमि में जहाँ पर्याप्त सिंचाई के साधन उपलब्ध हों, इसकी खेती की जा सकती है। अधिक लवणयुक्त तथा अपर्याप्त जल निकास वाली भूमि इसकी खेती के लिये उपयुक्त नहीं हैं।

हल चलाकर मिट्टी भुरभुरी बना ली जाती है। सतह से 15 सेमी उठी हुई क्यारियों में इसकी खेती अच्छे ढंग से की जा सकती है। पहाड़ी ढलानों में सीढ़ीनुमा खेतों में क्यारियाँ 60 सेमी चौड़ी तथा खेत की लम्बाई स्थिति अनुसार तैयार की जाती है।

सामान्यतया 150 सेमी लम्बे तथा 60 सेमी चौड़ी क्यारी में दस पौधे रोपे जाते हैं। खाद तथा उर्वरकों की मात्रा मिट्टी की उपजाऊ शक्ति व पैदावार पर निर्भर है। ऐसी क्यारियों में अच्छी तरह गली-सड़ी 5-10 किलोग्राम गोबर की खाद और 50 ग्राम उर्वरक मिश्रण - कैन, सुपर फास्फेट और म्युरेट आफ पोटाश 2:2:1 के अनुपात में देने की सिफारिश की जाती है। यह मिश्रण वर्ष में दो बार, मार्च तथा अगस्त माह में दिया जाता है। मैदानी क्षेत्रों में इसकी खेती 60-75 सेमी चौड़ाई वाली लम्बी क्यारियाँ बनाकर, जिसमें दो कतारें लगाई जा सकें, या मेढ़े बनाकर उसी प्रकार की जा सकती है जिस प्रकार टमाटर या अन्य सब्जियाँ उगाई जा सकती हैं।
 

पौधे लगाने की विधि :

पहाड़ी क्षेत्रों में पौधे अगस्त-सितम्बर तथा मैदानी क्षेत्रों में अक्टूबर से नवम्बर तक लगाए जाते हैं। पौधे किसी प्रमाणित व विश्वस्त नर्सरी से ही लिये जाने चाहिए, जिससे इसकी जाति की जानकारी मिले और रोग रहित भी हों। पौधे लगाने से पहले पुराने पत्ते निकाल दिये जाने चाहिए, और एक दो नए उगने वाले पत्ते ही रखने चाहिए।

मिट्टी से होने वाले रोगों से बचने के लिये पौधों की जड़ों को एक प्रतिशत बोर्डो मिश्रण या कापर आक्सीक्लोराइड (0.2 प्रतिशत) या डाइथेन एम 45 (0.2 प्रतिशत) के घोल में 10 मिनट तक उपचारित करके छाया में हल्का सुखा लेना चाहिए। क्यारियों में कतार-से-कतार तथा पौधे-से-पौधे का अन्तर 30 सेमी रखा जाता है।

पौधा लगाने के समय क्यारियों में लगभग 15 सेमी गहरा छोटा गड्ढा बनाकर पौधा लगाकर उपचारित जड़ों के इर्द-गिर्द को अच्छी तरह दबा दिया जाता है ताकि जड़ों तथा मिट्टी के बीच वायु न रहे। पौधे लगाने के बाद हल्की सिंचाई आवश्यक है।


 

उन्नत किस्में :

उन्नत किस्मों में मुख्य ट्योगा, टोरे, एन आर राउंड हैड, रैड कोट, कंटराई स्वीट आदि है, जो सामान्यतया छोटे आकार के फल देती है। इनमें अच्छा आकार टोरे तथा एन आर राउंड हैड का ही है जिसके फल का वजन 4-5 ग्राम होता है। आजकल बड़े आकार वाली जातियाँ देश में आयात की जा रही है जिनमें चाँडलर कनफ्यूचरा, डागलस, गारौला, पजारों, फर्न, ऐडी, सैलवा, ब्राईटन, बेलरूबी, दाना तथा ईटना आदि प्रमुख है।

स्ट्राबेरी की उपज इसकी जाति और जलवायु पर निर्भर करती है। सामान्यतया इसकी उपज 200-500 ग्राम प्रति पौधा मिल जाती है। यद्यपि विदेशों में अधिकतम 900-1000 ग्राम प्रति पौधा ली जा चुकी है। 

सिंचाई और देखभाल :

स्ट्राबेरी के पौधों की जड़ें गहरी होती हैं इसलिये जड़ों के निकट नमी की कमी से पौधों को क्षति हो सकती है और पौधे मर भी सकते हैं। सिंचाई की थोड़ी सी कमी से भी फलों के आकार और गुणवत्ता पर बुरा प्रभाव पड़ता है।

स्ट्राबेरी की फसल को बार-बार परन्तु हल्की सिंचाई चाहिए। सामान्य परिस्थितियों में शरद ऋतु में 10-15 दिन तथा ग्रीष्म में 5-7 दिन के अन्तराल में सिंचाई आवश्यक है। ड्रिप (बूँद-बूँद) सिंचाई विधि विशेष लाभप्रद है। सिंचाई की मात्रा मिट्टी की अवस्था तथा खेत की ढलानो पर निर्भर रहती है।

स्ट्राबेरी की क्यारियों को सूखी घास या काले रंग की प्लास्टिक की चादर से ढँकने के विशेष लाभ है। सूखी घास की मोटाई 5-7 सेमी आवश्यक है। विभिन्न अनुसन्धानों द्वारा यह प्रमाणित किया गया है कि इस विधि द्वारा मिट्टी में अच्छी नमी रहती है, खरपतवार भी नियंत्रित रहते हैं, पाले के कुप्रभावों को भी कम करती है और फलों का सड़ना कम हो जाता है। पकने वाले फलों को सुखी घास से ढँकने से पक्षियों द्वारा नुकसान भी कम हो जाता है। 

ओलावृष्टि प्रभावित क्षेत्रों में क्यारियों पर ओलारोधक जालों का प्रयोग किया जा सकता है। जिस पौधे से फल लेने हों उनमें से रन्नज काट देने चाहिए अन्यथा भरपूर फसल नहीं भी आ सकती है और फलों का आकार भी छोटा रह जाता है, जिसका प्रभाव विक्रय मूल्य पर पड़ता है। स्ट्राबेरी का पौधा पहले वर्ष से ही फल देने लग जाता है।

शीतोष्ण क्षेत्रों में एक पौधे की लाभप्रद फसल तीन वर्ष तक ली जा सकती है, परन्तु सबसे अधिक उपज दो वर्ष की आयु का पौधा देता है। कृषक अपने खेतों में स्ट्राबेरी इस क्रम में लगाएँ ताकि अधिक-से-अधिक क्यारियाँ 2 या 3 वर्ष की आयु के पौधों की हों और तीन वर्ष से अधिक आयु वाली क्यारियों में पुनः पौधा रोपण कर दें।
 

कीट व रोग नियंत्रण :

स्ट्राबेरी की खेती को कई कीट व रोग क्षति पहुँचाते हैं। कीटों में तेला, माइट, कटवर्म तथा सूत्रकृमि प्रमुख है। डीमैथोयेट, डिमैटोन, फौरेट का प्रयोग इन्हें नियंत्रण में रखता है। फलों पर भूरा फफूँद रोग तथा पत्तों पर धब्बों वाले रोगों का नियंत्रण डायाथयोकार्बामेट पर आधारित फफूँदनाशक रसायनों के छिड़काव से किया जा सकता है।

फल लग जाने के बाद किसी भी फफूँद व कीटनाशक रसायनों का छिड़काव नहीं करना चाहिए। यदि किन्हीं आपातकालीन परिस्थितियों में करना भी पड़े तो छिड़काव विशेष सावधानी से किया जाना चाहिए। तीन वर्ष तक स्ट्राबेरी की खेती करने के बाद खेतों को कम-से-कम एक वर्ष तक खाली रखने या गेहूँ, सरसों, मक्का तथा दलहन फसलों का फसल चक्र अपनाने से कीट, सूत्र-कृमि तथा अन्य रोगों का प्रकोप कम हो जाता है। 

तुड़ाई :

मार्च से मई तथा मैदानी क्षेत्रों में फरवरी के आखिरी सप्ताह से मार्च माह तक फल पकने शुरू हो जाते हैं। पकने के समय फलों का रंग हरे से लाल रंग में बदलना शुरू हो जाता है। फल का आधे से अधिक भाग का लाल रंग होना, तुड़ाई की उचित समय होता है। फलों की तुड़ाई विशेष सावधानी तथा कम गहरी टोकरियों से ही करनी चाहिए। रोगी व क्षतिग्रस्त फलों की छँटनी अवश्य करनी चाहिए। फल तोड़ने के तुरन्त बाद दो घंटे शीत भण्डारण करने से फलों की भण्डारण अवधि बढ़ जाती है।

English Summary: strawberry farming Published on: 08 April 2018, 11:38 IST

Like this article?

Hey! I am . Did you liked this article and have suggestions to improve this article? Mail me your suggestions and feedback.

Share your comments

हमारे न्यूज़लेटर की सदस्यता लें. कृषि से संबंधित देशभर की सभी लेटेस्ट ख़बरें मेल पर पढ़ने के लिए हमारे न्यूज़लेटर की सदस्यता लें.

Subscribe Newsletters

Latest feeds

More News