पौधों की वृद्धि के लिए मिट्टी की भौतिक, रसायनिक एवं जैविक शक्ति को सुरक्षित रखना अति आवश्यक है। भूमि पौधों द्वारा उपयोग में लाये जाने वाले पोषक तत्वों का असीमित भण्डार नहीं है। किसान भाई कई सदियों से प्रकृति द्वारा दी गई इस अमूल्य धरोहर को फसलोत्पादन हेतु उपयोग में ला रहे है। अधिकतम उत्पादन लेने एवं अविवेकपूर्ण भूमि का प्रबन्ध किये जाने से मिट्टी की उर्वरता अत्यधिक प्रभावित हुई है, परिणामस्वरूप मिट्टी में कई प्रकार के विकार उत्पन्न होने लगे है जैसे मिट्टी की बनावट बदल जाना, कई सूक्ष्म तत्वों का अभाव हो जाना। अतः भूमि से अधिकाधिक फसलोत्पादन लेने के साथ-साथ मिट्टी की उर्वरता भी बनाये रखने के लिए किसान भाइयों को कुछ कार्य निम्न प्रकार से अवश्य करना चाहिए।
उर्वरकों को सही चुनाव- उर्वरकों का प्रयोग फसल एवं भूमि की बनावट के आधार पर ही आवश्यकतानुसार करना चाहिए। उर्वरकों की आवश्यक मात्रा का जानकारी के लिये मिट्टी की जांच कराना जरूरी होता है। जांच कराने हेतु मिट्टी का नमूना समतल खेत से खुरपी की सहायता से मृदा सतह को साफ करके लगभग 6 इंच की गहराई तक लेना चाहिए। नमूना कई स्थानों से (एक एकड़ खेत में 6-8 स्थानों पर) लेकर छाया, में सुखाकर चैथाई करने की विधि द्वारा लगभग आधा कि0ग्रा0 मृदा नमूना तैयार कर लेते है। इस नमूने को पालीथीन या साफ कपड़े की थैली में भरकर आवश्यक सूचनायें जैसे, नाम, पता, खेत का नम्बर आदि लिखकर मिट्टी परीक्षण हेतु प्रयोगशाला में भेज देना चाहिए। क्षारीय भूमियों में अम्लीय स्वभाव वाली (जैसे अमोनियम सल्फेट तथा अम्लीय भूमियों में क्षारीय स्वभाव वाले उर्वरकों का प्रयोग करना चाहिए।
जल निकास की समुचित व्यवस्था- भूमि में उचित जलनिकास की व्यवस्था न होने पर मिट्टी में उपस्थित खाद्य पदार्थ रिसाव द्वारा नष्ट हो जाते हैं तथा भूमि की निचली सतह पर उपस्थित हानिकारक तत्व भी मृदा की ऊपरी सतह पर इकट्ठा हो जाते हैं.
लगातार जल भराव की स्थिति में उचित वायु संचार भी नही हो पाता है जिससे कि मृदा में कार्बनडाई आक्साइड की मात्रा बढ़ जाने के कारण जड़ों के विकास में बाधा पड़ती है और पौधों का विकास पूर्ण रूपेण नहीं हो पाता है। अतः भूमि में जल विकास की समुचित व्यवस्था करना अति आवश्यक है।
मृदा में नमी का संरक्षण- मिट्टी में नमी का कम या अधिक होना भी मृदा की उर्वरता को प्रभावित करता है। मृदा में नमी को सुरक्षित रखने के लिए वर्षा के पानी को खेत में रोकना चाहिए, सूखे क्षेत्रों में परती छोड़ना चाहिए, उचित समय पर जुताई करना चाहिए, मृदा में कार्बनिक पदार्थ की मात्रा बढ़ाना चाहिए, खरपतवारों को नष्ट करते रहना चाहिए, आदि कार्य समय समय पर करना आवश्यक रहता है।
खेत का समतलीकरण- भूमि की उर्वरता सुरक्षित रखने के लिए खेत को समतल होना भी आवश्यक रहता है अन्यथा बरसात के दिनों में या सिचाई करने पर खेत की ढाल की ओर पानी के साथ-साथ मिट्टी एवं पोषक तत्व बहकर नष्ट हो जाएंगे।
प्रयोगों द्वारा यह पाया गया है कि यदि खेत में दो प्रतिशत ढाल है तो 43 टन प्रति एकड़ सतह की मिट्टी बह जाती है। अतः किसान भाइयों की मिट्टी का कटान रोकने के लिए खेत के चारों ओर मजबूत बांध बनाना चाहिये। ढालू भूमि के ऊपरी भाग पर घास उगाना चाहिए। ढाल के विपरीत दिशा में जुताई करना चाहिए। बरसात में शीघ्र पकने वालों फलीदार फसले उगाना आदि उपाय करना चाहिए।
संतुलित उवरकों का प्रयोग आवश्यक- मिट्टी में सभी पोषक तत्वों के आपसी संतुलन बनाये रखने के लिए सदैव संतुलित उर्वरको का प्रयोग करना चाहिए। तत्वों के आपसी संतुलन विगड़ जाने से पौधों की वृद्धि पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है इसलिए आवश्यकतानुसार सभी उर्वरको की उचित मात्रा के साथ-साथ सूक्ष्म तत्वों की पूर्ति हेतु जिंक सलफेट, फेरसल्फेट आदि का भी प्रयोग करना चाहिए, जिसकी कमी से धान में खैरा रोग व सफेदा रोग लग जाता है।
कार्बनिक खादों का प्रयोग अति आवश्यक- भूमि में रसायनिक उर्वरकों जैसे यूरिया, डाई अमोनियम फास्फेट, म्यूरेट आफ पोटाश के साथ-साथ कार्बनिक खादे जैसे गोबर की खाद, तथा विभिन्न फसलों के अवशेषों का भी प्रयोग करना चाहिए। केवल रसायनिक उर्वरकों के लगातार प्रयोग करने से मिट्टी फसलोत्पादन के अयोग्य हो सकती हैं। कार्बनिक खादों में लगभग सभी खाद्य तत्वों के मौजूद रहने से इसके प्रयोग के परिणाम स्वरूप मृदा उर्वरता में वृद्धि होती है। हरी खादे उगाने से मिट्टी की निचली सतह पर मौजूद पोषक तत्व ऊपरी सतह पर आ जाते है जिससे कि भूमि में कार्बनिक पदार्थ की मात्रा में भी बढ़ोत्तरी हो जाती है।
फसल चक्र अपनाये- भूमि की पोषक तत्व क्षमता का भरपूर उपयोग करने हेतु फसल चक्र को अपनाना आवश्यक होता है। जैसे अधिक गहराई तक जड़ वाली फसले उगानी चाहिए इस प्रकार मृदा के विभिन्न क्षेत्रों में उपलब्ध पोषक तत्वों का भरपूर उपयोग हो जाता है एवं खाद्य तत्वों की कमी भी एक निश्चित क्षेत्र में नही होने पाती है।
दलहनी फसलें भी उगायें- अन्य फसलों के साथ-साथ दलहनी फसलों को भी उगाना चाहिए क्योंकि इन फसलों की जड़ों में सहजीवी जीवाणु वायुमण्डल से नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करते है। दलहनी फसले जैसे बरसीम, रिजका, मटर, चना, लोविया, सनई, ढैचा, ग्यार, मूग, व उरद आदि है। अनुकूल परिस्थितियों में ये फसले लगभग 40 किग्रा से 150 किग्रा0 तक नाइट्रोजन प्रति एकड़ प्रति वर्ष जमा करती हैं।
खरपतवारों का नियन्त्रण- खेत में उगे खरपतवार, फसलों के साथ, प्रकाश, नमी एवं खाद्य पदार्थों के लिए प्रतिस्पर्धा करते है। अतः इनकी बढ़वार पर नियन्त्रण पाने के लिए किसान भाइयों को स्वच्छ बीज का इस्तेमाल करना चाहिए, खरपतवारों को पकने के पहले काट लेना चाहिए, गर्मियों में खेत की जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से कर देना चाहिए। इस प्रकार से भूमि की उर्वरा शक्ति बरकरार रहेगी।
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