
भारत में पशुपालन केवल आजीविका का माध्यम नहीं, बल्कि संस्कृति, परंपरा और ग्रामीण अर्थव्यवस्था की नींव भी है. लेकिन इस क्षेत्र को कई बीमारियाँ समय-समय पर चुनौती देती हैं, जिनमें से खुरपका-मुंहपका रोग सबसे घातक, तीव्रता से फैलने वाला और आर्थिक दृष्टि से नुकसानदायक माना जाता है. यह रोग अत्यधिक संक्रामक विषाणुजनित रोग है, जो विशेषकर खुरदार पशुओं जैसे गाय, भैंस, बकरी, भेड़ व सुअर में पाया जाता है.
इस रोग को देश के विभिन्न भागों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है, जैसे — एफएमडी, खुरमुही, खरेडू, खुरपा आदि. इसकी सबसे ख़तरनाक विशेषता यही है कि यह तेजी से एक पशु से दूसरे में फैलता है, और कुछ ही दिनों में पूरा गांव या झुंड इसकी चपेट में आ सकता है. यह रोग अति सूक्ष्म विषाणु — अपैथोवायरस — के कारण होता है, जो पिकॉर्नाविरिडे नामक विषाणु परिवार से संबंधित है. यह विषाणु सात प्रकार का होता है — O, A, C, SAT1, SAT2, SAT3 तथा ASIA-1. भारत में प्रचलित मुख्य प्रकार हैं: O, A और ASIA-1.
रोग का प्रसार कैसे होता है?
यह रोग रोगी पशु के दूध, लार, मल, मूत्र, वीर्य, और सांस के माध्यम से निकलने वाले वायरस के कारण फैलता है. एक स्वस्थ पशु यदि सीधे या परोक्ष रूप से इनसे संपर्क में आता है तो वह संक्रमित हो सकता है. रोग का प्रसार श्वसन द्वारा, भोजन-पानी के माध्यम से, तथा दूषित चारे, बर्तनों, कपड़ों व वाहनों से भी हो सकता है.
यह विषाणु अत्यधिक आद्रता वाली हवा में 250–300 किलोमीटर तक वायुवाहित होकर भी फैल सकता है. वैज्ञानिक अनुसंधानों में यह भी पाया गया है कि इंसान के कपड़े, जूते या हाथों में यह विषाणु कुछ समय तक जीवित रहकर अप्रत्यक्ष रूप से रोग फैला सकता है. इसलिए सावधानी अत्यंत आवश्यक है.
रोग के लक्षण
खुरपका-मुंहपका के लक्षण सामान्यतः संक्रमण के 3 से 7 दिनों के अंदर प्रकट होते हैं. शुरू में पशु को तेज बुखार (105–107°F) आता है. दूध देने वाले पशुओं में दूध उत्पादन में अचानक गिरावट आ जाती है. पशु आहार छोड़ देता है, मुंह से झागदार लार टपकने लगती है, और मुंह में जीभ, मसूड़ों व होठों पर फफोले बन जाते हैं, जो बाद में फटकर घावों में बदल जाते हैं. मुंह में घाव होने से पशु जुगाली करना और खाना छोड़ देता है, जिससे शरीर में कमजोरी आने लगती है. खुरों में भी गंभीर घाव हो जाते हैं जिससे पशु चलने में असमर्थ हो जाता है. कई बार थनों पर भी फफोले बन जाते हैं. यदि समय रहते इलाज न हो तो कम उम्र के बछड़ों और मेमनों में यह रोग जानलेवा हो सकता है.
रोग की पुष्टि
अधिकांश मामलों में पशु चिकित्सक लक्षणों के आधार पर ही खुरपका-मुंहपका की पहचान कर लेते हैं. हालांकि वैज्ञानिक दृष्टि से यदि फफोलों या मुंह की त्वचा का नमूना ELISA या RT-PCR जांच के लिए प्रयोगशाला में भेजा जाए तो वायरस की पुष्टि व प्रकार (O, A, Asia-1) का पता लगाया जा सकता है. नमूना संग्रहण के समय बफर ग्लिसरीन या संक्रमणरोधी माध्यम का प्रयोग किया जाता है.
रोग का उपचार
इस रोग का कोई विशिष्ट एंटीवायरल इलाज नहीं है. उपचार केवल लक्षणों से राहत दिलाने के लिए किया जाता है. सबसे पहले रोगी पशु को स्वस्थ पशुओं से तुरंत अलग कर देना चाहिए. मुंह के घावों को बोरिक एसिड (15 ग्राम प्रति लीटर पानी), पोटेशियम परमैंगनेट (1 ग्राम प्रति लीटर) या फिटकरी (5 ग्राम प्रति लीटर) से साफ करें. खुरों के घावों को पोटाश/ पोटेशियम परमैंगनेट के घोल से धोकर किसी एंटीसेप्टिक क्रीम से उपचारित किया जाना चाहिए. पशु चिकित्सक की सलाह अनुसार बुखार व दर्द कम करने वाली दवाएं दी जा सकती हैं. इस दौरान पशु को पौष्टिक आहार, स्वच्छ पानी, तथा आरामदायक वातावरण देना आवश्यक है.
रोकथाम व बचाव
खुरपका-मुंहपका से बचाव ही इसका सबसे उत्तम उपाय है. इसके लिए नियमित टीकाकरण अत्यंत आवश्यक है.
- 4 माह से अधिक उम्र के सभी पशुओं का प्राथमिक टीकाकरण करें.
- एक माह बाद बूस्टर डोज अवश्य दें.
- इसके बाद हर 6 माह में टीका दोहराएं.
- हर पशु के लिए नई सुई और सिरिंज का उपयोग करें.
- यदि नया पशु खरीदा हो तो उसे कम से कम 14 दिन तक अलग रखें.
- पशुशाला की नियमित सफाई करें और उसे 4% सोडियम कार्बोनेट से धोएं.
इसके अलावा, रोगी पशु को सामूहिक चराई, जलस्रोत व चारे से दूर रखें. उसके मल, मूत्र, चारे और बर्तन को संक्रमण मुक्त करें.
आर्थिक प्रभाव
यह रोग केवल पशु का ही नहीं, किसान की आर्थिक रीढ़ को भी तोड़ सकता है. दूध उत्पादन में गिरावट, पशु की कार्य क्षमता में कमी, बाज़ार मूल्य में गिरावट, गर्भपात, बांझपन और मृत्यु जैसी घटनाएं छोटे किसान के लिए भारी नुकसान का कारण बनती हैं. पूरे क्षेत्र में यदि संक्रमण फैल जाए तो राज्य की पशुपालन नीति व व्यापार पर भी इसका प्रभाव पड़ता है.
किसान के लिए सलाह
- अपने पशुओं का समय पर टीकाकरण करवाएं.
- नए पशुओं को झुंड में मिलाने से पहले परीक्षण व क्वारंटीन में रखें.
- लक्षण दिखने पर तुरंत पशु चिकित्सक से संपर्क करें, न कि घरेलू उपचारों पर भरोसा करें.
- अपने गांव में पशु स्वास्थ्य शिविर आयोजित करवाने की मांग करें.
निष्कर्ष:
खुरपका-मुंहपका रोग पशुओं में तेजी से फैलने वाला रोग है, जो दूध उत्पादन और पशुओं की सेहत को नुकसान पहुंचाता है. समय पर टीकाकरण, साफ-सफाई और जागरूकता से इस रोग को रोका जा सकता है.
लेखक:
डॉ. बृज वनिता, डॉ. अंकज ठाकुर, डॉ. कल्पना आर्य
1 वैज्ञानिक (पशु विज्ञान), कृषि विज्ञान केंद्र, मंडी
2 सहायक प्रोफेसर, चौ. सरवन कुमार हिमाचल प्रदेश कृषि विश्वविद्यालय, पालमपुर
3 वैज्ञानिक ( गृह विज्ञान), कृषि विज्ञान केंद्र, मंडी
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