भारत आज हर क्षेत्र में अपना परचम लहरा रहा है, पशुपालन में अपने विश्वगुरु भारत की, एक प्रमुख पहचान रही है. साथ ही पशुपालन से होने वाले, दूध प्रोडक्ट्स भी विदेशो में सप्लाई किये जाते हैं, इसके साथ ही भारत को दूध उत्पादन के स्थान पर एक अहम भूमिका दी गई है. परन्तु पशुओ में कुछ विशेष रोग होते हैं, जो दूध उत्पादन को कम करके पशु के स्वास्थ को प्रभावित करते हैं, जैसे- ऍफ़ ऍम डी, क्षय रोग, ब्रुसेल्ला इत्यादि. इन्हे में से आज हम एक प्रमुख रोग के बारे में पशुपालक तथा किसान बंधुओं को बताना चाहते है, जिसे हम क्षय रोग के नाम से जानते हैं.
क्षय रोग क्या है ?
क्षय रोग पशुओं का प्रमुख रोग होता है जिसे हम आम भाषा में टीबी बोलते हैं, यह शरीर के प्रमुख अंगों को प्रभावित करता है. पशुओं में होने वाला यह रोग इंसानो में बहुत आसानी से फैलता है.
क्षय रोग किससे होता है ?
यह रोग पशुओं में “माँइक्रोबक्टेरियम बोविस” नामक जीवाणु से होता है.
क्षय रोग किसमें होता है ?
प्रमुखतः यह रोग गाय, भैंस में अधिक फैलता है, घोड़ा, खच्चर, बिल्ली इत्यादि भी इस रोग से प्रभावित होते है, यह रोग जंगली जानवरों में भी देखने को मिल सकता है. यह एक “जूनोटिक रोग” है जो जानवरों से इंसानों में फैलता है.
क्षय रोग कैसे फैलता है ?
यह रोग सबसे अधिक श्वास, आहार नली, पानी, भोजन तथा दूध से फैलता है. स्वस्थ जानवर जो संक्रमित जानवर के पास रहते है, वे स्वयं के द्वारा संक्रमित होते हैं.
क्षय रोग अवधी-
क्षय रोग की अवधि पशुओं में कुछ महीनों से लेकर काफी वर्षों तक होती है.
क्षय रोग लक्षण- रोग की प्रारंभिक अवस्था में पशु में बेचैनी, भोजन के प्रति अरुचि,बुखार,सूखी खांसी आने के साथ-साथ पशु कमजोर होता जाता है , पशु की हड्डियां स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगती है , साँस लेने में कठिनाई,इत्यादि लक्षण देखने को मिल सकते हैं.
क्षय रोग के प्राइमरी निष्कर्ष – पशुओ के शरीर में नोड्यूल बनने लगते हैं, तथा नोड्यूल बनने के कारण पशु की चमड़ी पर मोती नुमा आकर के उभार दिखाई देते है, जिस कारणवश इस रोग को “पर्ल्स डिजीज” भी बोला जाता है.
क्षय रोग निदान - पशुओं में रोग की पहचान के लिए “ट्यूबरक्युलिन इंजेक्शन” को पशुओं की गर्दन पर इंट्राडर्मल लगाने के बाद खाल की मोटाई 72 घंटे बाद वेर्नियर कैलिपर से नापते हैं, यदि पशुखाल की मोटाई 5 किलोमीटर से अधिक हो तो, पशु के क्षय रोग से संक्रमित संभावना अधिक होती है .
क्षय रोग उपचार - इस रोग का उपचार उचित, “एंटीबायोटिक्स” द्वारा, सभी पशुपालक तथा किसान बंधू, पशु चिकित्सक की देख-रेख में ही करें.
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रोग से बचाव एवं रोकथाम में उपाय योजना-
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पशु को खरीदने से पहले “ट्यूबरक्युलिन टेस्ट” करवाना चाहिए.
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पशु के रहने का स्थान साफ, स्वच्छ एवं सूर्य का प्रकाश रहित हो.
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पशु की देखभाल -करने वाला व्यक्ति रोग मुक्त होना चाहिए.
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रोगी पशु के गोबर, मल-मूत्र तथा चारे को जला देना उत्तम होता है, या स्वास्थ्थ सुरक्षा हेतु, संक्रमित चीजे, किसी गहरे गड्ढे में गाड़ देना चाहिए.
लेखक :
1) डॉ ऋषिकेश कंटाले
"असिस्टंट प्रोफेसर"
आर आर व्हेटरनरी अँड अॅनिमल सायन्स कॉलेज, राजस्थान
2) यतीन शर्मा
"बीव्हीएसी अँड ए. एच" (विद्यार्थी)
आर आर व्हेटरनरी अँड अॅनिमल सायन्स कॉलेज, राजस्थान
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