गन्ना एक प्रमुख व्यवसायिक बहुवर्षीय फसल है. विषम परिस्थितियां भी गन्ना की फसल को बहुत अधिक प्रभावित नहीं कर पाती. इन्ही विशेष कारणों से गन्ना की खेती अपने आप में सुरक्षित व लाभ की खेती है. गन्ना भारत की महत्वपूर्ण नकदी फसल होने के कारण देश की अर्थव्यवस्था में अहम भूमिका अदा करती है.
देश की बढ़ती जनसंख्या की चीनी की मांग को पूरा करने के लिए वर्ष 2030 में लगभग 33 मिलियन टन चीनी की आवश्यकता होगी, जबकि वर्तमान में वार्षिक चीनी उत्पादन लगभग 25 मिलियन टन है. लगातार सघन खेती और खादों के असंतुलित प्रयोग से भारत की भूमि में जैविक पदार्थ एवं आवश्यक पोषक तत्व की कमी हो रही है.
गन्ने की अधिक उपज प्राप्त करने के लिए आवश्यक पोषक तत्व उचित मात्रा में उपलब्ध होने चाहिए. यदि एक पोषक तत्व की कमी होती है, तो अन्य पोषक तत्व पर्याप्त मात्रा में होने पर भी पौधे की वृद्धि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है.
गन्ने के लिए आवश्यक पोषक तत्व (Essential nutrients for sugarcane)
पौधों के सामान्य विकास एवं वृद्धि हेतु कुल 17 पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है. कार्बन, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन वातावरण और जल से मिलते हैं, जबकि नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश प्रमुख पोषक तत्व हैं. कैल्शियम, मैगनीशियम, सल्फर इन्हें गौण अथवा द्वितीयक पोषक तत्व कहते हैं. जिंक, आयरन, बोरान, मैंगनीज, कॉपर, मोलिब्डेनम क्लोरीन अन्य स्त्रोतों से पूरा किया जाता है. इनमें से किसी एक पोषक तत्व की कमी होने पर उपज एवं गुणवत्ता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है और भरपूर फसल नहीं मिलती.
संतुलित पोषक तत्वों का उपयोग जरुरी (Balanced Nutrients required to use)
किसान भाई अपने खेत में फसल की बुवाई से पहले मिट्टी की जांच जरुर करें. इसके बाद पोषक तत्वों का प्रयोग करें. इससे फसल के उपज एवं गुणवत्ता बढ़ेगी, साथ ही मिट्टी में उपस्थित पोषक तत्वों के भंडार भी बढ़ेंगे. मिट्टी की उर्वरता शक्ति को बनाए रखने के लिए संतुलित पोषण की मुख्य भूमिका है.
पोषक तत्वों जैसे, लौह, जिंक, कापर की उचित मात्रा के प्रयोग से फसल को फायदा होता है. यह पोषक तत्व की अत्यधिक मात्रा में उपस्थित अन्य तत्वों के अवशोषण को प्रभावित करते हैं. मान लें कि फास्फोरस एवं पोटेशियम उर्वरक न हो, तो पौधों में नाइट्रोजन की प्रति अनुक्रिया कम होती रहती है, तो वहीं अगर नाइट्रोजन के साथ फास्फोरस एवं पोटेशियम को उचित मात्रा में प्रयोग किया जाए, तो फसल की पैदावार को बढ़ाया जा सकता है. इसके अलावा पोटाश, गंधक समेत सूक्ष्म पोषक तत्वों का भी आवश्यकतानुसार प्रयोग कर सकते हैं.
प्राथमिक पोषक तत्वों का प्रबंधन (Primary nutrient management)
अगर उर्वरकों का प्रयोग मिट्टी की जाँच के उपरांत किया जाए तो उससे कम लागत में अच्छी उपज ली जा सकती हैं. फसल के पकने की अवधि लम्बी होने कारण खाद एवं उर्वरक की आवश्यकता भी अधिक होती है. अतः खेत की अंतिम जुताई से पूर्व 20 टन सड़ी गोबर/कम्पोस्ट खाद खेत में समान रूप से मिलाना चाहिए.
इसके अतिरिक्त, 300 किलो नत्रजन (650 कि.ग्रा. यूरिया), 85 कि.ग्रा. स्फुर (500 कि.ग्रा. सिंगल सुपर फास्फेट) एवं 60 कि. पोटाश (100 कि.ग्रा. म्यूरेट आप पोटाश) प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करना चाहिए.
स्फुर एवं पोटाश की पूरी मात्रा बुवाई के समय प्रयोग करें एवं नत्रजन की मात्रा शरदकालीन गन्ने में ऩत्रजन की कुल मात्रा को चार समान भागों में विभक्त कर बोनी के क्रमशः 30, 90, 120 एवं 150 दिन में प्रयोग करें. बसन्तकालीन गन्ने में नत्रजन की कुल मात्रा को तीन समान भागों में विभक्त कर बोनी क्रमशः 30, 90 एवं 120 दिन में प्रयोग करें. नत्रजन उर्वरक के साथ नीमखली के चूर्ण में मिलाकर प्रयोग करने में नत्रजन उर्वरक की उपयोगिता बढ़ती है साथ ही दीमक से भी सुरक्षा मिलती.
सूक्ष्म पोषक तत्वों का प्रबंधन (Micronutrient management)
रासायनिक उर्वरकों के अधिकाधिक प्रयोग ने जैविक खादों के उपयोग को महत्वहीन बना दिया है, जिससे मृदा में जीवांश पदार्थ की मात्रा कम होने के साथ-साथ सूक्ष्म पोषक तत्वों की उपलब्धता में भी कमी आ गई है. मृदा के असंतुलित दोहन के चलते भी जिंक, सल्फर, आयरन, बोरॉन, मोलिब्डेनम जैसे सूक्ष्म तत्वों की कमी हो गई है, जिसके कारण फसलों में अनेक रोग पैदा हो रहे हैं. आज स्थिति ये है कि रासायनिक उर्वरकों के भरपूर प्रयोग के बावजूद वांछित पैदावार नहीं मिल रही है.
दूसरी फसलों की तरह गन्ने की फसल के लिए भी सभी सूक्ष्म पोषक तत्वों की इष्टतम वृद्धि और उत्पादन के लिए आवश्यकता होती है. ये तत्व गुणवत्ता वाले गन्नों के उत्पादन के लिए भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं. गन्ने की फसल उच्च जैवभार (Biomass) उत्पादक है. अतः यह सभी सूक्ष्म पोषक तत्वों की उच्च मात्रा को खेत से निकालकर ले जाती है. इसके अलावा, आमतौर पर एक बार रोपित की गई गन्ने की फसल 3 वर्ष तक खेत में रहती है, जिसके कारण सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी के लक्षण इसमें आमतौर पर देखे जाते हैं.
मृदा की आदर्श अवस्थाओं में 25-50 कि.ग्रा. फेरस सल्फेट से मृदा के उपचार की सिफारिश की जाती है. लोहे की कमी के कारण होने वाले क्लोरोसिस को ठीक करने के लिए 2.5 टन कार्बनिक खाद/हेक्टेयर में 125 कि.ग्रा. फेरस सल्फेट को मिलाकर प्रयोग करना अति उत्तम है. बोरॉन की कमी को दूर करने हेतु 10 से 15 कि./हें. बोरेक्स उर्वरक का प्रयोग करना चाहिए या इसकी पूर्ति के लिए बुवाई के 10 दिन बाद 14 कि./हे. बोरेक्स अथवा 9 कि./हें. बोरिक एसिड पौधों के चारों ओर डालकर मिट्टी में अच्छी तरह मिला देना चाहिए.
पर्णीय छिड़काव के लिए 0.2 प्रतिशत बोरेक्स के साथ 0.3 प्रतिशत बुझा चूना का 2-3 बार छिड़काव करें या 0.125 प्रतिशत बोरिक एसिड, 1.0 मि.ली. टीपाल एवं 12.0 ग्राम कैल्शियम क्लोराइड को प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर 10-12 दिनों के अंतर पर 2-3 छिड़काव करें.
निम्न बातों का भी रखें ख्याल (Also take care of the following things)
1. किसान अपने खेत में दलहनी फसलों को भी उगाएं.
2. खेत में गहरी जड़ों वाली फसल के बाद उथली जड़ों वाली फसल की खेती करना चाहिए.
3. किसान भाई खेत में अधिक पानी वाली फसल करने के बाद कम पानी वाली फसलों को लगाएं. जैसे, धान के बाद मटर, मसूर, सरसों और चना आदि.
4. खेत में लंबी अवधि की फसल की पैदावार लेने के बाद कम समय वाली फसल की खेती करें, जैसे, गेहूं के बाद दलहनी फसलों की खेती करें.
5. मिट्टी में उर्वरता शक्ति को बने रखने के लिए लंबी और जल्दी से बढ़ने वाली फसलों के बाद बौनी फसलों को लगाएं, क्योंकि गन्ने के बाद चारा फसलों को उगाने से मिट्टी की उर्वरता घटती है, इसलिए गन्ने के बाद दलहनी फसलों की खेती करें. इससे मिट्टी की उर्वरता शक्ति बढ़ती है.
लेखक: डॉ. शिशुपाल सिंह
कृषि विभाग, वाराणसी उत्तर प्रदेश
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