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छिने हुए बचपन की राख में, क्या तुमने सपनों की चिंगारी देखी है?: विश्व बाल श्रम निषेध दिवस पर आत्मचिंतन

विश्व बाल श्रम निषेध दिवस पर एक भावनात्मक और विवेकपूर्ण दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है. इसमें बाल श्रम की भयावहता, सरकारी उदासीनता, जनजातीय संदर्भ, सुधार गृहों की सच्चाई और बच्चों के अधिकारों की बात करते हुए जमीनी समाधान और नीति सुधार की आवश्यकता को रेखांकित किया गया है.

Snatched Childhood
विश्व बाल श्रम निषेध दिवस (Image Source: Adobe Stock)

12-जून. एक बार फिर विश्व बाल श्रम निषेध दिवस आ गया है. कैलेंडर के इस दिन को हम कैंडल मार्च, हैशटैग,सौशल-मीडियाई क्रान्तिकारी घोषणाएं और ब्रैनस्टार्मिंग विमर्श के उजास से रोशन करते हैं और फिर अगली सुबह सब कुछ जस का तस…यानी बाल श्रमिक वहीं हैं, चाय की दुकानों पर, ईंट भट्टों में, मैकेनिक शेड के कोनों में, और भीड़भरी ट्रेनों में चाय या पॉलिश की आवाज लगाते हुए.

जब देश का प्रधानमंत्री भी बचपन में श्रमिक रहा हों: हम गर्व से कहते हैं कि हमारे देश के यशस्वी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वयं अपने बाल्यकाल में रेलवे स्टेशन पर चाय बेचकर जीवन की कठोर पाठशाला में शिक्षा प्राप्त की. यह अनुभव निश्चित ही उन्हें बाल श्रमिकों के दर्द से गहरे जुड़ाव की शक्ति देता है. हमें विश्वास है कि वे इस विषय की संवेदनशीलता को और बेहतर ढंग से समझ सकते हैं और चाहें तो इसे भारत से जड़मूल से उखाड़ सकते हैं.

परंतु यह भी सच है कि जब बाल श्रमिकों की वास्तविकता सरकार की फाइलों से बाहर झांकती है, तो उन आँखों में 'चाय' नहीं, भूख, पीड़ा और छिने हुए बचपन की परछाइयाँ नजर आती हैं.

  • यह ‘श्रम आधारित शिक्षा’ है — ‘शोषण आधारित बाल श्रम’ नहीं.
  • यदि कानून की भाषा जनजातीय जीवन की प्रकृति नहीं समझेगी, तो वह विकास नहीं, विघातक हस्तक्षेप बन जाएगी.
  • “बाल श्रम रोकने के नाम पर अगर आप बाल ज्ञान को मारते हैं, तो आप सिर्फ एक पीढ़ी नहीं बल्कि एक परंपरा को समाप्त कर रहे हैं.”

 आँकड़े बोलते हैं... लेकिन नीति मौन है :

  • ILO-UNICEF की रिपोर्ट (2021): भारत में 1 करोड़ से अधिक बाल श्रमिक.
  • 2022 में सरकारी रिपोर्ट: केवल 1% से भी कम बच्चे पुनर्वास योजनाओं तक पहुंचे.
  • ‘बचपन बचाओ आंदोलन’, ‘प्रथम’ और ‘सेव द चिल्ड्रन’ जैसे संगठन ज़मीनी स्तर पर कुछ कर रहे हैं, लेकिन ये सारे प्रयास रेगिस्तान में प्याले भर जल जैसे हैं.

 ‘सुधार गृह’ बनते जा रहे हैं अपराध की प्रयोगशालाएं:

बाल संरक्षण गृहों की स्थिति कई बार डरावनी होती है. वहाँ सुधार की जगह अपराध की ट्रेंनिंग मिलती है. राष्ट्रीय बाल अधिकार आयोग ने पाया कि 35% सुधार गृहों में बच्चों को शारीरिक या मानसिक शोषण झेलना पड़ता है.

क्या इन स्थानों से बच्चे "सुधर कर" लौटते हैं या "बदलकर"?

भीख मांगते बच्चे और अदृश्य माफिया : हमें उन बच्चों की कहानी भी देखनी चाहिए जो ट्रैफिक सिग्नलों पर भीख मांगते हैं या कचरा बीनते हैं. ये केवल गरीबी नहीं बल्कि  एक संगठित आपराधिक गिरोह की कड़ी है, जो बच्चों को अपहरण कर, विकलांग बनाकर, या भय दिखा कर सड़कों पर उतारता है.

सरकारी तंत्र, अक्सर इस विषय पर मौन साध लेता है. कोई बच्चा मज़े से मजदूर नहीं बनता. बच्चों को हाथ में खिलौनों के बजाय फावड़ा, किताबों के बजाय कप प्लेट क्यों पकड़ाने पड़ते हैं? क्योंकि पिता बीमार हैं, मां अकेली है, घर में कमाने वाला कोई नहीं है, रसोई में चूल्हा नहीं जलता. अब बच्चा काम नहीं करेगा तो घर में खाना नहीं बनेगा. ऐसे में उसे स्कूल भेजने से पहले रसोई और राशन की गारंटी ज़रूरी है. हमें नहीं भूलना चाहिए कि "एक भूखा बचपन किताबों से नहीं, रोटियों से शुरू होता है."

संकल्प के लिए समय यही है:

विश्व बाल श्रम निषेध दिवस केवल भाषणों का दिन न बने, इसके लिए हमें ज़मीनी बदलाव की ओर कदम बढ़ाने होंगे:

  • बाल श्रमिक परिवारों के लिए सामाजिक सुरक्षा योजना हो.
  • शिक्षा और श्रम के बीच सांस्कृतिक रूप से संतुलित नीति बने.
  • बाल सुधार गृहों में निगरानी, पारदर्शिता और न्याय प्रणाली हो.
  • NGO और ग्राम स्तरीय जागरूकता अभियान को नीति में जगह मिले.

अंत में “बच्चे ईश्वर का यह संदेश हैं कि वह अभी मनुष्य से निराश नहीं हुआ'’”: रवींद्रनाथ ठाकुर

तो आइए, इस ईश्वर के संदेश की रक्षा करें. हर बच्चे को वो बचपन मिले जो किताबों, रंगों, खेल और सपनों से सजा हो,  न कि मजदूरी, गाली और ग्रीस से क्योंकि बचपन खोने से केवल एक जीवन नहीं बल्कि एक सभ्यता पीछे लौटती है.

English Summary: World Day Against Child Labor Special Story on snatched childhood spark of dreams Introspection Published on: 09 June 2025, 06:26 IST

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