दुनिया में अकाल-बाढ़, भुखमरी, कृषि संकट, महामारी जैसी प्राकृतिक विपदायो से मानव सभ्यता की तबाही बार-2 देखीं गयी है लेकिन पिछले 30 साल में, कृषि उपज की बम्पर पैदावार के बावजूद,लाखो अन्नदाता-किसानो द्वारा आत्म हत्या, देश में कृषि की भयानक बदहाली का व्याख्यान कर रही हैI पिछले 6 दशकों में, भारत में कृषि उपज 5 गुना बढ़ने के बावजूद किसान बेहाल हैं I आज किसानो में हताशा चरम पर है जो धीरे-2 आक्रोश में बदल रही है पिछले साल, मध्य प्रदेश,राजस्थान व् दूसरे प्रदेशो में किसानो द्वारा हिंसक आंदोलन, लाखो किसानो का मुंबई पदयात्रा करना, जो सिर्फ सरकार को जगाने के लिये ही नहीं, बल्कि आने वाले तूफ़ान की तरफ इशारा भी करती हैI इतिहास गवाह है फ्रांस,रूस,चीन इत्यादि देशों में खुनी क्रांतिया, सरकार द्वारा किसानो के शोषण के कारण हुई थीI
सरकार द्वारा प्रस्तुत आर्थिक समीक्षा दर्शाती है की,देश में कृषि उपज की बम्पर पैदावार के बावजूद किसान की हालत ओधोगिक क्षेत्र के मजदुर से भी बदतर है श्री रमेश चंद व् साथियो द्वारा किये अध्यन-एस्टीमेट और एनालिसिस ऑफ़ फार्म इनकम इन इंडिया के अनुसार साल 1983-84 से 2011-12 के बीच, एक आम किसान की सालाना आय 4286 रूपये से बढ़ कर 78264 रूपये हुई है जब की उधोग मजदूर की आय में 2,786 से 2,46,514 रूपये की बढ़ोतरी हुई है यानि उधोग मजदूर की सालाना आय में 88.5 प्रतिशत बढ़ोतरी जबकि आम किसान-कृषि मजदूर की आय में लगभग 20 प्रतिशत बढ़ोतरी दर्ज हुई जिसके बुरे प्रभाव से 15 प्रतिशत किसानो-मजदूरो ने कृषि को त्याग कर शहरो में उद्योगिक मजदूर बनने पर मजबूर हूए।
वर्तमान में खेती घाटे के सौदा बन कर रह गयी, इस के मुख्य कारण,मौसम आधारित खेती, अलाभकारी छोटी कृषि जोत,फसल उत्पादन के बढ़ते हुए खर्चे, उपज के लाभकारी मूल्य नहीं मिलना रहे है। देश में 85% लघु और सीमान्त किसान हैं जो लगभग एक हेक्टेयर छोटी जोतों पर खेती करते है। संसद में पेश, केंद्रीय बजट-2018 के आर्थिक सर्वेक्षण 2017-18 में बताया गया की, देश में 64% सीमांत किसान के हर परिवार पर औसतन 47,000 रुपये का कर्ज है।
भारत के सकल घरेलू उत्पाद में, कृषि क्षेत्र का योगदान 15 प्रतिशत व् रोजगार में 50 प्रतिशत है जबकि पिछले 50 सालो में सरका री प्रोत्साहनों के बावजूद, उत्पादन उद्योग का रोजगार में योगदान मात्र 15 प्रतिशत है। इकोनॉमिक्स टाइम्स (8फरवरी 2018) के अनुसार, प्रधानमंत्री ने पार्लियामेंट में माना की, औद्योगिक घरानो पर बैंको का 52 लाख करोड़ बकाया है जिसमे 82 प्रतिशत गैर-निष्पादित संपत्तियां(NPA) है। टीवी चैनल न.डी.टी.वी. के अनुसार बैंको ने पिछले 3 सालो में औद्योगिक घराने के 2.4 लाख करोड़ NPA माफ किये है। इस के बावजुद प्रमुख उद्योगपतियो द्वारा बैंको से धोखाधड़ी करके देश से भाग जाना, सरकार की आर्थिक नीतियों की विफलता ही दर्शाती है। इस के विपरीत, किसानो पर सिर्फ 12.6 लाख करोड़ रुपया बकाया है। लेकिन दुर्भाग्य से किसानो व् खेती की बदहाली के लिये, सरकार की उदासीन कार्यशीलता ही सबसे ज्यादा जिम्मेदार रही है.
कृषि उपज समर्थन मूल्य(एम.एस.पी.) बना - किसानो के शोषण का हथियार
आज़ादी के बाद, भारत में बढ़ती जनसंख्या, लगातार भयंकर सूखे व् पाकिस्तान के खिलाफ 1965 युद्ध के समय, अमेरिका द्वारा पी.ल.-480(P.L.-480) समझौते को तोड़ने से पैदा हुए खाद्यान संकट की वजह से, देश के हताश शीर्ष नेतृत्व ने दुनिया में हरित क्रांति के नायक डॉ नॉर्मन बोरलॉग द्वारा विकसित गेंहू की बोनी किस्मे को सिम्मयट(CIMMYT) मेक्सिको से आयात कर भारत में हरित क्रांति का शुभआरम्भ साल 1966-67 में किया और अंतर्राष्ट्रीय चावल अनुशंधान संसथान मनीला से, चावल की ज्यादा पैदावार देने वाली बोनी किस्मो का आयात कर हरित क्रांति को साल 1967-80 के बीच आगे बढ़ाया जिसमे भारतीय किसानो का भी अहम् योगदान रहा. हरित क्रांति के फायदों को जनता में पहुंचाने के लिये, देश में सार्वजानिक वितरण प्रणाली की स्थापना की, इसको सुचारु रूप से चलाने के लिये की सरकारी खरीद की व्यवस्था की गयी इन सब के लिए देश में प्रथम कृषि मूल्य आयोग की स्थापना 1 जनवरी 1965 को की गयी ताकि किसानो को उचित कीमतों का आश्वासन दिया जा सके जो 1985 के बाद, कृषि लागत व् मूल्य आयोग के नाम से जाना जाता है कृषि मूल्य नीति का अंतर्निहित उद्देश्य खाद्य सुरक्षा बनाए रखने व् उत्पादकों-उपभोक्ताओं की रक्षा व् किसानों की आय में वृद्धि करना है जो मुख्यता तीन उपकरणों से मिल कर बनता है:- खरीद न्यूनतम समर्थन मूल्य, बफर स्टॉक्स और पब्लिक डिस्ट्रिब्यूशन सिस्टम (पीडीएस)। कृषि मूल्य नीति ने हरित क्रांति के शुरुआती दौर(1965-1985) में कृषि विकास व् किसानो की खुशहाली में प्रमुख भूमिका निभाईI जिससे, किसानों को आधुनिक प्रौद्योगिकियों और बेहतर कृषि पद्धतियों को अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया गया और जल्दी ही, किसानों ने बड़े पैमाने पर उत्तम बीज, रासयनिक खाद, टूबवेल सिचाई, खेती के मशीनीकरण को अपनाकर उभरती हुई कृषि उत्पादन मांग के साथ उत्पादकता और समग्र उत्पादन में, भारत को न केवल आत्मनिर्भर बनाया अपितु निर्यातक देश भी बनाया । कृषि मूल्य नीति के प्रभाव से फसल चक्र में बड़े बदलाव हुए जब किसानो ने परम्परागत टिकाऊ खेती को छोड़ कर, सरकारी खरीद वाली महंगी कृषि उत्पादन पद्धतियों (चावल- गेंहू-गन्ना फसल चक्र)को अपनाया, जिसके के प्रभाव से मोटे अनाज, दालों और तिलहन उत्पादन पर विपरीत असर भी पड़ा और दुष्प्रणाम स्वरूप, दालों व् तिलहन के आयात में वृद्धि हुई। किसानो की कड़ी मेहनत-हरित क्रांति तकनीक-न्यूनतम समर्थन मूल्य ने देश को खाद्य उत्पादन में आत्मनिर्भरता दी व् बार-2 आने वाली सूखा-बाढ़ प्राकृतिक विपदायो से तो बचाया, लेकिन नई उत्पादन पद्धतियों के महंगी होने से कृषि लागत में वृद्धि की वजह से किसानो की आमदनी में भारी कमी होती गयी।
कृषि मूल्य नीति की सर्वोच्च प्राथमिकता, उत्पादन अधिकतम करने व् उपज की कीमतों में किसी भी तेज गिरावट के संकट में सरकार द्वारा बाजार में हस्तक्षेप माध्यम से समर्थन देने व् भारतीय कृषि को एक लाभकारी क्षेत्र बनाने के लिए प्रयास करना था लेकिन 1990 के बाद, आर्थिक सुधारो व् उपभोक्ता मुद्रास्फीति काबू के नाम पर, सरकार ने कृषि को नजर अंदाज किया व् समर्थन मूल्य को किसानो के शोषण का माध्यम बनाया। जिससे सात करोड़ किसानो-मजदूरों को कृषि छोड़ कर गांव से शहर में पलायन करने व् उद्योगिक मजदुर बनने पर मजबूर हुए और आज देश वर्तमान कृषि संकट से जूझ रहा है जहा देश में खाद्यान उत्पादन की आत्म निर्भरता होते हुए भी, किसान आत्महत्या, प्रदर्शन व् आंदोलन को मजबूर है।
भारत के कृषि लागत-मूल्य आयोग के आंकड़े (संलग्न तालिका-1 व् ग्राफ़) दर्शाते है कैसे सरकार ने वर्ष 1985 के बाद समर्थन मूल्य को, किसानो के खिलाफ दुरुपयोग करते हुए समर्थन मूल्यो को लागत से कम घोषित कर, किसानो से सस्ते में कृषि उपज खरीदती रही और घोषित समर्थन मूल्य को वैधानिक न बनाकर व् कृषि उपज मंडी मे व्यापारियों पर लागु न करके, उन्हें भ्र्स्ट फ़ायदा लेने व् किसानो को लूटने की खुली छूट दी गयीI सरकारी गलत नीतियों ने, किसानो को आर्थिक तौर पर इतना कमजोर कर दिया की, आज 10 हेक्टेयर(25 एकड़) चावल-गेंहू खेती वाले किसान की शुद्ध आय,सिर्फ 1,50,000 रूपये वार्षिक है जो सातवे वेतन आयोग में निचले स्तर के कर्मचारी के वेतन से भी कम है जिसे 20,000 रूपये प्रतिमाह बेसिक वेतन के हिसाब से वार्षिक 2,40,000 रूपये से ज्यादा मिलते है.
विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार भारत में 1969- से 2018 तक, उपभोक्ता मुद्रास्फीति(CPI-WPI) में औसत बदलाव दर 7 प्रतिशत रही, परन्तु सरकार ने इस दर से समर्थन मूल्य को नहीं बढ़ाया,सिवाय चुनावी सालो में जब सरकार ने लोकलुभावन वायदे के रूप में, किसानो को लाभकारी समर्थन मूल्य दिए लेकिन चुनाव के अगले ही साल इस मूल्य वृद्धि को वापिस लेकर, किसानो के खिलाप दुर्भावना नीति को जारी रखा जैसा की साल 2009-10 व् 2010-11 के समर्थन मूल्य से साबित होता है I भारत के अलावा दुनिया के इतिहास में शायद ही किसी दूसरी लोकतंत्रीय सरकार ने, उत्पादन लागत से कम पर अनाज ख़रीदकर, किसानो का ऐसा निकृष्टतम शोषण किया होगाI इसी तथ्य को स्वीकार करते हुए देश के वर्तमान शीर्ष नेतृत्व व् राजनितिक दलों ने 2014 के संसदीय चुनावी में वादा किया था कि स्वामीनाथन की अध्यक्षता वाले राष्ट्रीय किसान आयोग-2006 की सिफारिश के मुताबिक कृषि लागत का डेढ़ गुना समर्थन मूल्य दिया जाएगा (50% profits over C-2 cost)। लेकिन पिछले चार सालो में इस पर कोई करवाई न करके सरकार ने किसानो को फिर धोखा दिया हैI
तथ्य यह भी है देश के कुल कृषि उत्पादन में केवल 6 प्रतिशत (चावल-गेंहू-गन्ना इत्यादि) को न्यूनतम समर्थन मूल्य का लाभ मिलता है जो सरकार खरीदती हैI बाकि 94 प्रतिशत कृषि उत्पादन बिचोलियो-व्यापारियों द्वारा ख़रीदा जाता हैI जो प्रशासन से भ्रस्ट सांठ-गांठ कर कृषि उपज को सस्ते में खरीदकर, उपभोग्ताओ को कई गुना महंगा बेचकर मोटा लाभ कमाते हैI एक तरफ सरकार ने समर्थन मूल्य को लागत से भी कम निर्धरित कर किसानो को लुटा, फिर कृषि समर्थन मूल्य को अधिनियमित वैधानिक नहीं करके, बिचोलियो व् व्यापारियों को किसानो को लूटने की खुली छूट दीI एक अनुमान के अनुसार, अनाज खरीद पर बिचोलियो का लाभ 30-60 प्रतिशत व् दालों, फल-सब्जियों के व्यापार में ये लाभ किसान को दी गयी खरीद कीमत के 500 प्रतिशत से ज्यादा होता है जिससे कृषि विपणन मंडी में बिचोलियो द्वारा वर्षो से किसान का शोषण होता रहा और सस्ती कृषि उपज का लाभ, उपभोगताओं को भी नहीं मिल पाया I पिछली सरकारे, बार-2 कर्ज माफ़ी देकर किसानो को बहकाती रही है जो की इस समस्या के स्थायी समाधान नहीं, यह बात किसानो को भी समझचुकी है इस लिये किसान लाभकारी समर्थन मूल्य (स्वामीनाथन आयोग रिपोर्ट-2006) लागु करनवाने की मांग कर रहे है जिसके अनुसार कृषि उपज के समर्थन मूल्य निर्धारण में लागत(C-2) पर 50 प्रतिशत लाभ शामिल होना चाहिए I महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि जब सरकार द्वारा घोषित समर्थन मूल्य कृषि उपज के 94 प्रतिशत उत्पादन पर लागु नहीं हो, तब अधिनियमित वैधानिक समर्थन मूल्य के अभाव में स्वामीनाथन रिपोर्ट लागु करने की मांग भी सिर्फ खोखली उम्मीद है जो लागु होने पर भी, किसानो के लिये एक बार फिर धोखा ही साबित होगी I
वैधानिक समर्थन मूल्य (MSP-STATUTORY): भारतीय किसान व् कृषि की जीवन रेखा
भारत आज भी एक कृषि प्रधान है भारतीय अर्थव्यस्था बम्पर कृषि उत्पादन के बावजूद, गहरे आर्थिक संकट में फँसी हुई है । लोकसभा में कृषि मंत्री राधामोहन सिंह ने बताया कि साल 2014 से 2016 के दौरान ऋण, दिवालियापन एवं अन्य कारणों से क़रीब 36 हज़ार किसानों एवं कृषि श्रमिकों ने आत्महत्या की I किसान कृषि उत्पादन को समर्थन मूल्य से कम कीमत परबेचने को मजबूर हो रहे है। पुरे वर्ष किसानो द्वारा सड़को पर फेके जा रहे आलू, प्याज, टमाटर, फल-सब्जियों, गन्ना व् कपास क़े दुखदायी समाचारो से देश के समाचार पत्र भरे रहे, इस लिये नीति नियंताओं के सामने बड़ी चुनौती है की कैसे कृषि दाम नीति के साथ-2 किसान आय नीति को भी सुनिश्चित करे, जिससे देश के किसान-कृषि-देश की खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित किया जा सके।
पिछले 30 सालो में, किसानों की खुशहाली की बात सभी करते रहे हैं किंतु उनकी मूलभूत समस्या ज्यों की त्यों बनी रही और सरकारे,किसानो के कर्ज माफ़ी पर उन्हें बहकाती है जो इस समस्या का कोई स्थाई समाधान नहीं है पिछले कई सालो में किसान की वास्तविक आय में सिर्फ 0.44% सालाना वृद्धि दर्ज हुई है । अब कृषि संकट की भयंकता को देखते आनन् फन्नन् में, सरकार ने किसानों की आय दोगुनी करने का खोखला वादा बजट-2018 में दोहराया, जो आज की कृषि नीति में लगभग असंभव ही मालूम पड़ता है। कियोकि किसी नई कृषि तकनीक इतने कम समय में उत्पादन को दुगना करने की क्षमता नहीं और कोई भी सरकार कृषि मूल्य को दुगना करके मुद्रास्तिथि को बेलगाम बढ़ाने का जोखिम नहीं उठाएगी।
अब इस पेचीदा परिस्थिति से निबटने के लिये एक मात्र समाधान, “समर्थन मूल्य को वैधानिक- कानून अधिनियमित” करना हो सकता है । संसद में बजट-2018 प्रस्तुती पर, माननीय प्रधान मंत्री व् वित्त मंत्री ने कृषि उत्पादन समर्थन मूल्य को स्वामीनाथन रिपोर्ट-2006 के अनुसार लाभकारी बनाने का आश्वासन दिया है जिसे अगर ईमानदारी से सी-2 लागत (C-2 cost) पर लागु करे तो किसानो को 20-40 प्रतिशत का फायदा होगा और इसी को आगे बढ़ाते हुए समर्थन मूल्य को वैधानिक अधिनियमित करने से किसानो को 40-200 प्रतिशत अतिरिक्त लाभ व् बिचोलियो-व्यापारियों द्वारा किये जा रहे गैर कानूनी शोषण से किसानो को मुक्ति मिलेगी। अधिनियमित वैधानिक समर्थन मूल्य का मतलब "कृषि उपज मंडी में समर्थन मूल्य से कम पर खरीद-फरोख्त दंडनिय हो(अधिकतम खुदरा मूल्य अधिनियम-2006(MRP-Act) तर्ज पर), जिससे देश में कृषि व् किसान को निम्नलिखित स्थाई व् दूरगामी फायदे होंगे :-
वैधानिक समर्थन मूल्य से, पुरे वर्ष कृषि उपज मंडी में सभी कृषि उत्पादनो के न्यूनतम मूल्य सुनिश्चित हो जायेंगे । जबकी ये सुविधा, अभी भारत के कुल कृषि उत्पादन के सिर्फ 6 प्रतिशत खरीद सरकारी वाले उत्पादनो (चावल,गेंहू इत्यादि) पर लागु होती है बाकि 94 प्रतिशत कृषि उत्पादन को बिचोलिये सस्ते दामों पर खरीद कर किसानो का शोषण करते है। वैधानिक समर्थन मूल्य से, किसान कृषि उत्पादन की आपदा बिक्री(distress sale) से बचेगा कियोकि तब वह अपनी सुविधा व् जरूरत को ध्यान में रखते हुए, पुरे वर्ष में उचित समय पर ही अपने उत्पादन को कृषि उपज मंडी में बेचेगा जिससे उसकी आमदनी में कई गुना फायदा होगा। जबकि आज उसे अपनी उपज फसल कटाई के तुरंत बाद आनन् फांनन में बेचनी पड़ती है कियोकि सरकारी खरीद वर्ष में सिर्फ कुछ सप्ताह के लिये होती है। देश में किसी फसल का पूरा उत्पादन इतने कम समय में एक साथ आने से, कृषि मंडियों की व्यवस्था भी चरमरा जाती है जिस से किसान परेशान हो कर अपनी उपज सस्ते में बिचोलियो -व्यापारियों को बेचने पर मजबूर हो जाता। वैधानिक समर्थन मूल्य से विदेशो की तर्ज पर, कृषि भंडारण-विपणन में क्रन्तिकारी सुधार लाने में सहयता मिलेगी। जिस में सरकार, कृषि सहकारी समितियों को भंडारण सुविधाएं विकसित करने में सहायता देकर, कृषि उत्पादन विपणन की जिम्मेदारी भी तय क़र सकती है। जो बिचोलियो को कृषि विपणन से हटाने में सहायक होगा और बिचोलियो द्वारा कमाये जा रहे 30-500 प्रतिशत भ्र्स्ट मुनाफा ख़त्म होने का सीधा लाभ उपभोगताओं को भी मिलेगा । वैधानिक समर्थन मूल्य से, फसल विविधीकरण में भी फायदा होगा कियोकि पुरे वर्ष न्यूनतम मूल्य सुनश्चित हो जाने पर, किसान कम सिचाई पानी व् कम खर्चे में उगाये जा सकने वाले मोटे अनाज(ज्वार,बाजरा,जौ इत्यादि), दलहन व् तिलहन फसलों को बराबर अहमियत देगा कियोकि यह फसले कम लागत में अच्छी आमदनी देती है जिससे इन फसलों का उत्पादन बढ़ाने और देश के आयत को भी कम में करने में में सहायता मिलेंगी। वैधानिक समर्थन मूल्य से, सरकार पर कोई अतिरिक्त आर्थिक भार नहीं पड़ेगा कियोकि कृषि उत्पादन की सरकारी खरीद तो अभी भी न्यूनतम समर्थन मूल्य पर ही होती है । वैधानिक समर्थन मूल्य से, देश में कृषि उत्पादन मूल्यों व् मुद्रास्तिथि में कोई वृद्धि नहीं होगी, कियोकि कृषि उत्पादन उपभोक्ता सूचक (CPI) अंक व् थोक सूचक अंक (WPI) वर्ष के अधिकतर समय पर न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) से ज्यादा ही रहते है। परन्तु किसानो का बिचोलिये द्वारा पिछले 70 सालो से किये जा रहे शोषण जरूर रुकेगा।
दुनिया के सभी देश खाद्य सुरक्षा को लेकर गंभीर है जो भारत में ग्रामीण रोजगार सुरक्षा से भी जुडी है आज देश में करोड़ो बेरोजगार युवाओं की समस्या का हल, पश्चिमी अर्थशास्त्र सिद्धांत पर सरकारी संसाधनों व् बैंको के लुटेरे उद्योगपति और शहरो में पलायन कर गंदी बस्ती बसाने वाले खोखले सिद्धांत नहीं, बल्कि कृषि आधारित अर्थव्यवस्था व् ग्रामीण उद्योग की सख्त जरूरत है। इस दिशा में वैधानिक समर्थन मूल्य. कृषि व् किसान को भ्र्स्ट मंडी बोर्ड अधिकारियो, बिचोलियो व् व्यपारियो के शोषण से मुक्ति दिलाएगा और सरकार व् उपभोगता पर बिना आर्थिक बोझ डाले, किसानो की आय को दुगना करने, फसल विविधीकरण व् कृषि विपणन में क्रन्तिकारी सुधार लाने में राम बाण साबित होगा।
डॉ वीरेंदर सिंह लाठर , पूर्व प्रधान वैज्ञानिक , ICAR- IARI NEW DELHI भारतीय कृषि अनुसधान संस्थान, नयी दिल्ली.
Share your comments