आर्थिक स्थिति ठीक न होने के कारण दसवीं से आगे शिक्षा जारी रखने में असमर्थ परशुराम दास को रोजगार तो नहीं, लेकिन दाम्पत्य जीवन जल्दी ही नसीब हो गया। बिहार स्थित रंगराचैक ब्लाॅक के पास छोटे से गाँव चापर में रहने वाले परशुराम को ग्रामीण परिवेश और पारिवारिक परम्परा की वजह से जिम्मेदारियों का बोझ भी जल्द ही उठाना पड़ा। कृषि जागरण के साथ उन्होंने अपनी आपबीती साझा की और अपनी उपलब्धि के बारे में विस्तृत चर्चा की। वे खुद को किसान कहलाए जाने पर गौरवांवित तो होते थे लेकिन जमीन के नाम पर सिर्फ एक एकड़ में खेती की पूरे परिवार को गुजर-बसर करना काफी मुश्किल होता था। खेत में गेहूँ, चावल व मक्का की फसल तो कई बार बोई लेकिन लाभ के नाम पर कुछ नहीं मिला। समय बदलने के साथ-साथ आर्थिक स्थिति और बिगड़ती गई। जीविकोपार्जन भी मुश्किल होने लगा। समय ने ऐसी करवट ली कि बच्चों को भरपेट भोजन मिल सके उसके लिए खेत गिरवी रखना पड़ा।
कुछ न कर पाने के कारण हालात बद से बदतर हो गए। परिवार की हालत देख समझ में आ गया कि हाथ पर हाथ रखे रहने से कुछ नहीं होगा बल्कि कुछ तो करना ही पड़ेगा। वर्ष 2011 में अपनी गिरवी रखी जमीन को भाड़े पर लेकर पपीते की खेती करने का विचार मन में आया। उन्हें इसकी प्ररेणा सधुआ गांव के पपीता कृषक उमेश मंडल से मिली थी।
उन्होंने जानकारी मिलते ही बिना समय गंवाए कुछ उन्नत किस्म के पपीते पूसा नन्हा, चड्ढा सिलेक्शन, रेड लेडी व अन्य अच्छी किस्म का चयन कर खेती करना शुरू किया। अनेक परेशानियों का सामना करना पड़ा क्योंकि शुरूआत में कम पानी की वजह से पपीते की फसल चैपट हो गई जिससे पूरी मेहनत पर पानी फिर गया। इससे मन में और उदासीनता घर करने लगी। धैर्य के सिवा अन्य कोई रास्ता भी नहीं बचा था लेकिन परशुराम ने हौंसला जुटाया और हार न मानने की कसम खाई और एक बार फिर पपीते की खेती में जुट गए। इस बार की गई मेहनत से सफलता मिली जो कि पूरे क्षेत्र में चर्चा का विषय बन गई। पपीते का उत्पादन इतना अधिक हुआ कि सभी खर्चे निकालने के बाद लगभग 5 लाख का फायदा हुआ। इसके बाद से आर्थिक स्थिति में सुधार होता गया। लगातार कड़ी मेहनत और लगन के चलते उन्होंने जमीन को कर्ज से मुक्त करा लिया और बच्चों को अच्छे स्कूल में प्रवेश दिला दिया जहां वे उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं।
परशुराम का कहना है कि पपीते की खेती करते-करते पाॅँच वर्ष बीत गए। अब तो आस-पास के किसान भी दास से प्रेरणा लेकर पपीते की बागवानी करने लगे हैं। अपनी इस उपलब्धि का श्रेय वे आत्मा कार्यालय, भागलपुर और अपनी पत्नी को देते हैं। उन्होंने बताया कि विषम परिस्थितियों में आत्मा कार्यालय का साथ सराहनीय रहा और पपीते के खेती के लिए मुझे प्रथम पुरुस्कार एवं प्रोत्साहन भी मिला। परशुराम अब छोटे-छोटे किसानों को पपीते की खेती करने के लिए प्रेरित करते हैं।
Share your comments