Soil Borne Diseases in Marigold: फूलों को खेती में गेंदा की खेती बहुत तेजी से लोकप्रिय हो रही है. भारतवर्ष के लगभग सभी राज्यों में इसकी खेती की जाती है. भारत में गेंदा की खेती लगभग 50 से 60 हजार हेक्टेयर क्षेत्रफल में की जाती हैं, जिससे लगभग 5 लाख मिट्रिक टन से अधिक फूलों का उत्पादन होता है. भारत में गेंदे की औसत उपज 9 मिट्रिक टन प्रति हेक्टेयर है. गेंदा नर्सरी से लेकर फूलों की तुड़ाई तक कई प्रकार के रोगजनकों यथा कवक, जीवाणु और विषाणु जनित रोगों से ग्रसित होता हैं. जिसकी वजह से फूलों की उपज में होने वाली कमी रोग के प्रकार, पौधों की संक्रमित होने की अवस्था एवं वातावरणीय कारकों पर निर्भर करता हैं. आजकल इनके नियंत्रण हेतु फफूंदनाशकों तथा अन्य रासायनिक पदार्थों का उपयोग अंधाधुंध हो रहा हैं, जिससे जैव-विविधता एवं पारिस्थितिक तंत्र को क्षति पहुंच रही हैं तथा मृदा की स्वास्थ्य बिगड़ रही हैं. इन्हें कम से कम क्षति पहुंचाते हुए रोगों का प्रबंधन केवल एकीकृत रोग प्रबंधन द्वारा ही संभव हैं. गेंदा की खेती में प्रमुखता से लगनेवाले रोग निम्नलिखित है..
आर्द्र पतन या आर्द्र गलन (डेम्पिंग आफ)
नर्सरी में गेंदा के नवजात पौधों को आर्द्र पतन बहुत ज्यादा प्रभावित करता है, जो एक मृदाजनित कवक रोग, पिथियम प्रजाति, फाइटोफ्थोरा प्रजाति और राइजोक्टोनिया प्रजाति द्वारा होता हैं. इस रोग के लक्षण दो प्रकार के होते हैं. पहला लक्षण पौधे के दिखाई देने के पहले बीज सड़न एवं पौध सड़न के रूप में दिखाई देता हैं, जबकि दूसरा लक्षण पौधों के उगने के बाद दिखाई देता हैं. रोगी पौधा आधार भाग अर्थात् जमीन के ठीक ऊपर से सड़ जाता है तथा जमीन पर गिर जाता है. इस रोग के कारण लगभग 20 से 25 प्रतिशत तक नवजात पौधे प्रभावित होते हैं, कभी कभी इस रोग का संक्रमण पौधशाला में ही हो जाता है तो यह क्षति शत प्रतिशत तक भी हो सकती हैं.
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कॉलर रॉट
यह एक मृदाजनित रोग है, जो फाइटोफ्थोरा प्रजाति एवं पिथियम प्रजाति से होता हैं. इस रोग से नवजात गेंदा के पौधे अधिक प्रभावित होते हैं. नये पौधों में रोग का संक्रमण होने पर पौध जमीन की सतह से गिर जाते हैं, जबकि पुराने पौधों में संक्रमण होने पर उनकी पत्तियां पीली पड़ जाती हैं तथा सभी पौधे सूख जाते हैं. रोगी पौधों के मुख्य तने आधार (कॉलर) भाग पर सड़ जाते हैं, जिस पर सफेद कवकीय वृद्धि स्पष्ट रूप से देखी जा सकती हैं. इस रोग के कारण लगभग 15 से 20 प्रतिशत तक फसल उत्पादन में कमी हो सकती हैं.
उकठा रोग या मलानि रोग (विल्ट)
गेंदा में उकठा रोग मृदाजनित रोग है, जो फ्युजेरियम ऑक्सीस्पोरम उपप्रजाति केलिस्टेफी नामक कवक द्वारा होता हैं. सामान्य तौर पर रोग के लक्षण बुवाई के तीन सप्ताह बाद दिखाई देता हैं. रोगी पौधों की पत्तियां धीरे-धीरे नीचे से पीली पड़ने लगती है, पौधों की ऊपरी भाग मुरझाने लगती है और अंत में सम्पूर्ण पौधा पीला होकर सुख जाता है. इस रोग के लिए जिम्मेदार कवक की वृद्धि के लिए तापक्रम 25 से 30 डिग्री सेल्सियस के मध्य उपयुक्त होता हैं.
गेंदा के मृदा जनित रोगों का प्रबंधन
गेंदे के पौधे को मृदा जनित रोगों से बचाने के लिए कुछ आसान उपाय हैं:
- अधिकांश गेंदे के पौधे के मृदा जनित रोग कवक बीजाणुओं के कारण होते हैं, इसलिए सही मात्रा में पानी देना अति महत्वपूर्ण है.
- संक्रमित पौधों के सभी हिस्से को एकत्र करके जला देने से मृदा जनित रोगों के प्रसार को सीमित करने में मदद मिलती है.
- खूब अच्छी तरह सड़ी हुई गोबर की खाद या वर्मी कंपोस्ट को मिट्टी में मिलाना चाहिए.
- यदि आपके पास भारी मिट्टी है, तो मिट्टी को ढीला करने के लिए रेत या अन्य कोकोपीट डालें.
- ऐसे कंटेनरों का उपयोग करें जिसमे से अच्छी तरह से पानी निकल सके.
- गेंदा लगाने से पहले रोगज़नक़ मुक्त पॉटिंग मिक्स का उपयोग करें या अपनी मिट्टी को जीवाणुरहित करें.
- यदि आपके पास अतीत में एक संक्रमित पौधा था, तो किसी भी नई पौधे की प्रजाति को स्थापित करने से पहले कंटेनरों को साफ करने के लिए ब्लीच का उपयोग करें.
- गर्मियों के दिनों में मिट्टी पलट हल से गहरी जुताई करें, ताकि रोगजनक सूक्ष्मजीवों के निष्क्रिय एवं प्राथमिक निवेशद्रव्य (प्राइमरी इनाकुलम) तेज धूप से नष्ट हो जायें. यह प्रक्रिया हर दो से तीन साल के अंतराल में करनी चाहिए.
- पूर्ववर्ती फसल अवशेषों अथवा रोग ग्रसित गेंदा के पौधों को नष्ट कर देना चाहिए.
- अनेक अखाद्य खलियों (कार्बनिक मृदा सुधारकों) जैसे करंज, नीम, महुआ, सरसों एवं अरण्ड आदि के प्रयोग द्वारा मृदा जनित रोगों की व्यापकता कम हो जाती हैं.
इन बातों का रखें विशेष ध्यान
- बुवाई हेतु हमेशा स्वस्थ बीजों का चुनाव करें. फसलों की बुवाई के समय में परिवर्तन करके रोग की उग्रता को कम किया जा सकता हैं.
- निरंतर एक ही नर्सरी (पौधशाला) में लम्बे समय तक एक ही फसल या एक ही फसल की एक ही किस्म न उगायें. संतुलित उर्वरकों का उपयोग करें.
- सिंचाई का पानी खेत में अधिक समय तक जमा न होने दें.
- गहरी जुताई करने के बाद मृदा का सौर ऊर्जीकरण (सॉइल सोलराइजेशन) करें. इसके लिये 105-120 गेज के पारदर्शी पॉलीथिन को नर्सरी बेड के ऊपर फैलाकर 5 से 6 सप्ताह के लिए छोड़ दें.
- मृदा को ढंकने के पूर्व सिंचाई कर नम कर लें. नम मृदा में रोगजनकों तथा की सुसुप्त अवस्थायें हो जाती हैं, जिससे उच्च तापमान का प्रभाव उनके विनाश के लिये आसान हो जाता हैं.
- रोगग्रसित पौधों को उखाड़कर जला दें या मिट्टी में गाड़ दें.
- बीजों को बोने से पूर्व ट्राइकोडर्मा विरिडी से उपचारित कर ले, इसके लिये ट्राइकोडर्मा विरिडी के 5 ग्राम दवा प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें अथवा स्युडोमोनास फ्लोरसेन्स का 1.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से मृदा में अनुप्रयोग करने से पद-गलन रोग के प्रकोप को काफी हद तक कम किया जा सकता हैं.
- रोग की उग्र अवस्था में कार्बेंडाजिम /क्लॉरोथैनोनिल@2ग्राम प्रति लीटर पानी में घोलकर खूब अच्छी तरह से मिट्टी को भीगा दे, जिससे रोग की उग्रता में काफी कमी आयेगी.
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