kele ki kheti: सफल केला की खेती के लिए आवश्यक है कि इसमें किए जाने वाले विशेष कृषि कार्यों को भी जाना जाय, क्योंकि बिना इसके केला की खेती से अधिकतम लाभ नहीं लिया जा सकता है. इन कार्यों में विशिष्ट कृषि पद्धतियां और कटाई के बाद की तकनीकें शामिल हैं जो केले की उपज, गुणवत्ता और समग्र लाभ को बढ़ा सकती हैं. केले की खेती के लिए यहां कुछ महत्वपूर्ण कृषि गतिविधियां है.
साइट चयन
अच्छी जल निकासी वाली मिट्टी और अच्छी धूप वाले उपयुक्त स्थान का चयन करें. केले उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में अच्छे से पनपते हैं.
भूमि की तैयारी
खरपतवार, मलबा और कंकर पत्थर को साफ करके भूमि तैयार करें. पानी और पोषक तत्वों का समान वितरण सुनिश्चित करने के लिए खेत की उचित जुताई और समतलीकरण करें.
रोपण
स्वस्थ और रोग-मुक्त सकर्स (युवा केले के पौधे) का चयन करें. उन्हें सही गहराई पर रोपें, कॉर्म (भूमिगत तना) का एक हिस्सा जमीन के ऊपर छोड़ दें. इष्टतम विकास के लिए पौधों के बीच पर्याप्त दूरी आवश्यक है.
सिंचाई
केले को लगातार और पर्याप्त पानी की आपूर्ति की आवश्यकता होती है, खासकर सूखे के दौरान. मिट्टी की नमी बनाए रखने के लिए ड्रिप सिंचाई या फ़रो सिंचाई प्रणाली अच्छी तरह से काम करती है.
उर्वरक
पोटेशियम, नाइट्रोजन और फास्फोरस से भरपूर संतुलित उर्वरक डालें. फलों की गुणवत्ता और रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए पोटेशियम का केला की खेती में विशेष महत्व है.
मल्चिंग
नमी बनाए रखने, खरपतवार की वृद्धि को नियंत्रित करने और मिट्टी की उर्वरता में सुधार के लिए केले के पौधों के चारों ओर जैविक गीली घास का उपयोग करें.
कीट और रोग प्रबंधन
कीटों और बीमारियों के लक्षणों के लिए नियमित रूप से पौधों का निरीक्षण करें. कीटों को प्रभावी ढंग से नियंत्रित करते हुए रसायनों के उपयोग को कम करने के लिए एकीकृत कीट प्रबंधन (आईपीएम) रणनीतियों को लागू करें.
अवांछित सकर (प्रकन्द) की कटाई
हिन्दी में एक कहावत है कि “केला रहे हमेशा अकेला” इस पंक्ति के अनुसार केला की अच्छी एवं आर्थिक दृष्टि से लाभदायक उपज प्राप्त करने के लिए आवश्यक है कि मातृ पौधे के आस-पास उग रहे अवान्छित केला के पौधों को हटाते रहना चाहिए. लगभग 45 दिन में एक बार इस अवान्छित पौधों को काटते रहना एक सामान्य प्रक्रिया है, दो-तीन माह के केला के बाग में उग रहे पौधों को किसी तेज धार के चाकू से काटते रहना चाहिए. बेहतर होगा कि हम इन पौधों के साथ-साथ इनके प्रकन्दों को भी काटते रहें. लेकिन इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि मातृ पौधे को किसी प्रकार का नुकसान न पहुँचे . प्रकन्दों के कटे भाग के मध्य पर 4 मीली लीटर मिट्टी का तेल (किरासन तेल) भी डालना चाहिए. जब तक मातृ पौधे में फूल न आये तब तक किसी भी अधोभूस्तारी को आगे वृद्धि नही होने देना चाहिए. जब मातृ पौधे में गहर (घौंद) निकल आयें उस समय दूसरे अधोभूस्तारी को आगे वृद्धि करने देना चाहिए. मातृ पौधे का फल तोड़ने के पश्चात काट देना चाहिए. उस समय पहला अधोभूस्तारी जो 5 माह का होता है, मातृ पौधे का स्थान ग्रहण कर लेता है. इस प्रकार से 6-6 महीने बाद एक-एक अधोभूस्तारी की वृद्धि करके इसकी बहुवर्षीय फसल को नियमानुसार किया जा सकता है. ऐसा करते रहने से केला के प्रकन्दों के मध्य आन्तरिक प्रतिस्पर्धा नहीं होती है.. परिणाम स्वरूप बड़ी, गुणवत्तायुक्त घौद, कम समय में प्राप्त होती हैं.
पत्तियों की कटाई-छटाई
पौधा जैसे-जैसे वृद्धि करता है नीचे की पत्तियों सूखती जाती है. सूखी पत्तियों से फल भी क्षतिग्रस्त होते रहते हैं. सूखी एवं रोगग्रस्त पत्तियों को तेज चाकू से समय-समय पर काटते रहना चाहिए. इस क्रिया से रोग की सान्ध्रता भी घटती है. रोग का फैलाव घटता है. हवा एवं प्रकाश नीचे तक पहुचता रहता है, जिससे कीटों की संख्या में भी कमी होती है. अधिकतम उपज के लिए स्वस्थ 13-15 पत्तियों ही पर्याप्त होती है.
मिट्टी चढ़ाना
पौधों पर वर्षा ऋतु के बाद सदैव मिट्टी चढ़ाना चाहिए, क्योंकि पौधों के चारों तरफ की मिट्टी धुल जाती है, तथा पौधों में घौद निकलने से नीचे का सिरा भारी होकर, तेज हवा में पौधा उलट जाता है.
सहारा देना
केला की खेती को तेज हवाओं से भी भारी खतरा बना रहता है. लम्बी प्रजातियों में सहारा देना अति आवष्यक है. केले के फलों का गुच्छा (घौद) भारी होने के कारण पौधे नीचे की तरफ झुक जाते है, अगर उनको सहारा नहीं दिया जाता है तो वे उखड़ भी जाते हैं. अतः उनको दो बासों को आपस में बाँधकर कैंची की तरह बना लेते हैं तथा फलों के गुच्छे को लगाकर सहारा देते हैं. गहर निकलते समय सहारा देना अति आवष्यक है.
गुच्छों को ढ़कना एवं नर पुष्प की कटाई
पौधों में गहर आ जाने पर वे एक तरफ झुक जाते हैं, यदि उनका झुकाव पूर्व या दक्षिण की तरफ होता है, तो फल तेज घुप से खराब हो जाता है. अतः केले के घौद को पौधे की उपर वाली पत्तियों से ढ़क देना चाहिए. गहर का अग्र भाग जो नर पुष्प होता है, बिना फल पैदा किये बढ़ता रहता है. गहर में फल पूर्ण मात्रा में लग जाने के पश्चात् उनको काट कर अलग कर देना चाहिए, जिससे वह भोज्य पदार्थ लेकर फलों की वृद्धि को अवरूद्ध न कर सके तथा इसको बेच कर अतिरिक्त आय प्राप्त किया जा सकें, क्योंकि कही-कही पर इसका प्रयोग सब्जी बनाने में किया जाता है. नर पुष्प की कटाई बर्षात में करना और आवष्यक है क्यांेकि यही बीमारी फैलाने का कारण बनते हैं. कावेन्डीष (बसराई, रोबस्टा) तथा सिल्क (मालभोग) ग्रुप के केलों में गहर को ढ़कना एक सामान्य क्रिया है, क्योंकि इससे केला के फल का रंग और आकर्षक हो जाता है. उष्ण एवं उपोष्ण जलवायु मे फलों को पारदर्षी छिद्रयुक्त पोलीथीन से ढ़कने से 15-20 प्रतिषत उपज में वृद्धि होती है, तथा फल 7-10 दिन पहले परिपक्व हो जाते हैं. गहर को ढ़कने का सर्बोत्तम समय जब गहर में फल बनने की प्रक्रिया रूक गई हो तथा नर पुष्प को काटने का समय आ गया हों. उपरोक्त लाभ के अलावा ढ़कने के अन्य फायदे है जैसे, स्कैरिंग बीटल नामक कीट फल को गन्दा तथा अनाकर्षक बना देता है ढ़क कर फल को बचा सकते है, तथा सूर्य के प्रकाष के सीधे सम्पर्क में आने की वजह से फलों पर घाव बन जाते हैं जिसमें कोलेटोट्राइकम नामक फँफूद पैदा होता है तथा फल सड़न रोग उत्पन्न हो जाता है.
घौद के आभासी हथ्थों को काटकर हटाना
घौद में कुछ अपूर्ण हथ्थे होते है, जो गुणवक्तायुक्त फल उत्पादन में बाधक होते है. ऐसे अपूर्ण हथ्थों को घौद से अविलम्ब काटकर हटा देना चाहिए ऐसा करने से दुसरे हथ्थों की गुणवक्तायुक्त एवं वजन बढ़ जाती है. उपरोक्त विषेष शस्य क्रियाओं को करने मात्र में फल के गुणवत्ता में भारी वृद्धि होती है.
कटाई
जब केले उचित परिपक्वता अवस्था में पहुंच जाएं तो उनकी कटाई करें. यह अच्छा स्वाद और पोषण सामग्री सुनिश्चित करता है. केले आमतौर पर तब काटे जाते हैं जब वे हरे और ठोस होते हैं, और तोड़ने के बाद वे पक जाते हैं.
कटाई के बाद का प्रबंधन
फसल के बाद के उचित प्रबंधन में क्षति को रोकने और शेल्फ जीवन को बढ़ाने के लिए सावधानीपूर्वक परिवहन, भंडारण और पकने की प्रथाएं शामिल हैं.
मूल्यवर्धन
केले का मूल्यवर्धन करने के तरीकों का पता लगाएं, जैसे केले के चिप्स, केले का आटा, या अन्य प्रसंस्कृत उत्पाद बनाना. इन कृषि कार्यों को लागू करके, केला उत्पादक किसान केले की खेती की उपज, गुणवत्ता और समग्र लाभ को अधिकतम कर सकते हैं. इसके अतिरिक्त, पर्यावरण को संरक्षित करने और दीर्घकालिक कृषि सफलता को बढ़ावा देने के लिए टिकाऊ(सस्टनेबल) प्रथाओं पर जोर दिया जाना चाहिए.
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