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Updated on: 25 June, 2025 12:00 AM IST
वर्षा ऋतु में पशुधन की देखभाल (Image Source: shutterstock)

भारत में पशुधन कृषि व्यवस्था की रीढ़ की हड्डी है, जो न केवल किसानों की आजीविका का साधन है बल्कि राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. वर्षा ऋतु, जहाँ एक ओर खेतों के लिए हरियाली लेकर आती है, वहीं दूसरी ओर पशुओं के स्वास्थ्य और प्रबंधन के लिए कई चुनौतियाँ भी प्रस्तुत करती है. इस मौसम में अत्यधिक नमी, कीचड़, गंदा पानी, परजीवी संक्रमण और चारे की गुणवत्ता में गिरावट जैसे कारकों के कारण पशुधन की देखभाल अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाती है.

सबसे प्रमुख समस्या है पशु आवास की छत से पानी का रिसाव. रिसते हुए पानी से पशु शेड गीला हो जाता है, जिससे वहां की आर्द्रता बढ़ जाती है. यह वातावरण अमोनिया जैसी गैसों के निर्माण में सहायक होता है, जो पशुओं की आंखों में जलन और संक्रमण पैदा कर सकती हैं. इसके अतिरिक्त, गीले फर्श पर गंदगी जमा होने से कॉक्सीडियॉसिस जैसी बीमारियों और खुर सड़ने जैसी समस्याओं का खतरा बढ़ जाता है, विशेष रूप से बकरियों में.

इस मौसम में चारे की उपलब्धता तो बढ़ जाती है, परंतु हरे चारे में अत्यधिक नमी होती है, जिससे पेट तो भरता है लेकिन पोषण नहीं मिल पाता. इससे पतले दस्त और पोषक तत्त्वों की कमी जैसे लक्षण दिखाई देते हैं. यदि गीले चारे को ठीक से न सुखाया जाए तो उसमें फफूंद लग सकती है, जिससे मायकोटॉक्सिन बनते हैं, जो पशुओं के लिए विषैले होते हैं और कई बीमारियों का कारण बन सकते हैं. इसलिए हरे चारे को काटकर धूप में सुखाना और सूखे चारे के साथ संतुलन बनाकर खिलाना आवश्यक है. फीड ब्लॉक और यूरिया मोलासेस मिनरल ब्लॉक का प्रयोग पोषण पूर्ति के लिए अत्यंत उपयोगी है.

वर्षा ऋतु में बैक्टीरिया, वायरस और परजीवी अत्यधिक संख्या में सक्रिय हो जाते हैं. आंतरिक परजीवी जैसे फीताकृमि हरे चारे के साथ पशुओं के शरीर में प्रवेश कर जाते हैं, जिससे उनके अंगों में गांठें बन सकती हैं. वहीं बाह्य परजीवी जैसे किलनियाँ, मक्खियाँ और जूँ जानवरों का खून चूसकर थीलिरियोसिस, बेबेसियोसिस और ट्रिपैनोसोमायसिस जैसी जानलेवा बीमारियाँ फैला सकते हैं. इसीलिए इस मौसम में तीन बार कृमिनाशन (शुरू, मध्य और अंत) और नियमित कीटनाशक छिड़काव अत्यंत आवश्यक है.

दुग्ध उत्पादन करने वाली पशुओं में इस मौसम में थनैला (थन की सूजन) की घटनाएँ सामान्य होती हैं, क्योंकि गीले और गंदे शेड के संपर्क में आने से थनों के छिद्रों से संक्रमण अंदर चला जाता है. इससे दूध की मात्रा कम हो जाती है, उसमें फुल्के आने लगते हैं और यदि इलाज न हो तो थन में फाइब्रोसिस भी हो सकता है. इसे रोकने के लिए शेड की सफाई, सूखा बिछावन और थनों की नियमित जांच व सफाई आवश्यक है.

फर्श की फिसलन भी पशुओं के लिए जोखिमपूर्ण होती है. पशु गिरकर चोटिल हो सकते हैं, जिससे उत्पादन और गतिशीलता प्रभावित होती है. अतः फर्श को कंक्रीट का, ढालयुक्त और एंटी-स्लिप बनाना चाहिए ताकि वर्षा जल का बहाव हो सके और पानी जमा न हो. शेड में सूखा बिछावन जैसे सूखा पुआल, जूट की बोरी या पशु गद्दे का प्रयोग कर पशुओं को ठंडी और गीली ज़मीन के संपर्क से बचाना चाहिए.

जल प्रबंधन भी इस मौसम में एक चुनौती है. अधिकतर प्राकृतिक जल स्रोत कीचड़युक्त हो जाते हैं. ऐसे में पशुओं को साफ, उबला और गुनगुना पानी देना चाहिए ताकि वे दस्त, सर्दी-जुकाम और अन्य संक्रमण से बच सकें.

बछड़ों और बकरियों की देखभाल विशेष सतर्कता से करनी चाहिए. वर्षा में बछड़ों को बाहर न निकालें, उन्हें गर्म बिछावन दें, अधिक दूध पिलाएँ और उन्हें गर्म कपड़े पहनाएँ ताकि वे ठंड से बच सकें. तीन माह से ऊपर के बछड़ों को कृमिनाशक देना और छह माह से ऊपर के बछड़ों का ब्लैक क्वार्टर और हेमरेजिक सेप्टिसीमिया के विरुद्ध टीकाकरण आवश्यक है. बकरियों में पीपीआर और एंटरोटॉक्सिमिया जैसे रोगों से बचाव हेतु टीकाकरण, तथा खुरों की सप्ताह में दो बार चूने के पानी/पोटाश से सफाई फायदेमंद होती है.

अंततः, वर्षा ऋतु में मवेशियों की वैज्ञानिक देखभाल केवल पशु स्वास्थ्य ही नहीं, बल्कि किसान की आय और आजीविका सुरक्षा का माध्यम भी है. उचित आवास, संतुलित पोषण, स्वच्छता, समय पर टीकाकरण और परजीवी नियंत्रण जैसे उपाय अपनाकर किसान वर्षा ऋतु को एक चुनौती नहीं बल्कि अवसर में बदल सकते हैं.

लेखक:

डॉ बृज वनिता 1 , डॉ अंकज ठाकुर 2
1 वैज्ञानिक, कृषि विज्ञान केंद्र मंडी
2 सहायक प्रोफेसर, पशु चिकित्सा महाविद्यालय
चौ.स.कु. हिमाचल प्रदेश कृषि विश्वविद्यालय, पालमपुर

English Summary: Scientific care and management of cattle during rainy season tips
Published on: 25 June 2025, 01:01 IST

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