कालमेघ एक महत्वपूर्ण औषधीय पौधा है. इसे कडु चिरायता व भुईनीम के नाम से भी जाना जाता हैं. इसका वानस्पतिक नाम एंड्रोग्राफिस पैनिकुलाटा/ Andrographis paniculata हैं. यह एकेन्थेसी कुल का सदस्य हैं. यह हिमालय में उगने वाली वनस्पति चिरायता; सौरसिया चिरायता के समान होता है. कालमेघ शुष्क जलवायु वाले क्षेत्रों के वनों में प्राकृतिक रूप में पाया जाता हैं. इस पौधे की ऊंचाई लगभग 1 से 3 फीट होती हैं. इसकी छोटी-छोटी फल्लियों में बीज लगते हैं. बीज छोटा व भूरे रंग का होता है. इसके पुष्प छोटे श्वेत रंग या कुछ बैगनी रंग युक्त होते हैं.
उपयोग:
इसका उपयोग अनेकों आयुर्वेदिक होम्योपैथिक और एलोपैथिक दवाइयों के निर्माण में किया जाता है. यह यकृत विकारों को दूर करने एवं मलेरिया रोग के निदान हेतु एक महत्वपूर्ण औषधि के रूप में उपयोग होता हैं. खून साफ करने, जीर्ण ज्वर एवं विभिन्न चर्म रोगों को दूर करने में इसका उपयोग किया जाता है.
सक्रिय घटक:
इस पौधे से प्राप्त रसायनों की गुणवत्ता के कारण इसे औषधि पौधों में एक विशेष स्थान प्राप्त हैं. इस कारण इसे विश्व स्वास्थ्य संगठन ने आधुनिक चिकित्सा पद्धति में सम्मिलित किया है. कड़वे रसायनो में एन्ड्रोग्राफिस एवं पेनीकुलीन मुख्य हैं.
जलवायु:
यह समुद्र तल से लेकर 1000 मीटर की ऊंचाई तक समस्त भारतवर्ष में पाया जाता हैं. पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, बिहार, आन्ध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, गुजरात तथा दक्षिणी राजस्थान के प्राकृतिक वनों में प्रचुर मात्रा में पाया जाता हैं. उष्ण उपोष्ण व गर्म आर्द्रता वाले क्षेत्र जहाँ वार्षिक वर्षा 500 मि.मी. से 1400 मिमी. तक होती हैं. तथा न्यूनतम तापमान 5 से 15 तक अधिकतम तापमान 35 से तक होए वहाँ अच्छी प्रकार से उगाया जा सकता हैं.
मृदा:
उत्तम जल निकास वाली दोमट बलुई मिट्टी इसके लिए सर्वाधिक उपयुक्त होती हैं. इसकी खेती के लिए मृदा का पी.एच. मान 6 से 8 के बीच होना चाहिए.
भूमि की तैयारी:
यह वर्षा ऋतु की फसल हैं. खेत को गर्मियों अप्रैल मई में गहरी जुताई करके तैयार करना चाहिए.
खाद एवे उर्वरक:
खेत की आखिरी जुताई के पहले 10 टन प्रति हेक्टेयर की दर से गोबर की पकी खाद मिला देना चाहिए. बोनी व रोपण से पूर्व खेत में 30 कि.ग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर डालकर जुताई करनी चाहिए. कालमेघ की खेती सीधे बीज की बुवाई कर या रोपणी में पौधे तैयार कर की जा सकती हैं.
रोपणी की तैयारी:
इसके लिए 15 मई से 20 मई के मध्य छायादार स्थान पर रोपणी तैयार करने के लिए उठी हुई क्यारियाँ 1×20 मीटर तैयार कर लेनी चाहिए. इसमें प्रति क्यारी 50 किग्रा. गोबर की पकी खाद मिला देना चाहिए. एक क्यारी में लगभग 100 ग्राम बीज छिड़ककर बोना चाहिए. बीज को बोने से पूर्व 0.2 प्रतिशत बाक्स्टीन नामक फफूंद नाशक से उपचारित करना चाहिए.
रोपण:
लगभग एक माह पश्चात जब पौधे 10 से 15 से.मी. के हो जायेंए इन्हें खेत में रोपित कर देना चाहिए. पौध से पौध की दूरी तथा कतार से कतार की दूरी 30 से.मी. रखनी चाहिए. पौधों का रोपण कार्य जून जुलाई में करना ठीक रहता है.
बीजों द्वारा:
बीजो को जून के अन्तिम या जुलाई के प्रथम सप्ताह में छिड़काव विधि द्वारा या लाईन में बोया जा सकता हैं. लाईन से लाईन की दूरी 30 से.मी. होना चाहिए. बीज छोटे होते हैं. बुआई के समय यह ध्यान रखना जरूरी हैं कि बीज की गहराई में न जाएं. बोते समय बीजों में रेत या मिट्टी लगभग 5 से 8 गुणा मिलाकर बोना चाहिए.
सिंचाई व निंडाई गुड़ाई:
रोपण के 30 से 40 दिनों पश्चात् कालमेघ की एक बार निंडाई गुड़ाई अवश्य करना चाहिए. सिंचाई आवश्यकतानुसार करना चाहिए.
फसल की कटाई:
कालमेघ की 2 से 3 कटाईयां ली जा सकती हैं. अनुसंधानों से यह ज्ञात हुआ हैं कि इसमें एन्ड्रोग्राफोलाइड कड़वे पदार्थ पुष्प आने के बाद ही अधिक मात्रा में पाये जाते हैं. पहली कटाई जब फूल लगना प्रारम्भ हो जाय तब करना चाहिए. इसे जमीन से 10 से 15 से.मी. ऊपर से काटना चाहिए. काटने के बाद खेत में 30 किग्रा नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर की दर से डालना चाहिए. वर्षा न हो तो तुरंत पानी देना चाहिए. खेत में निराई. गुड़ाई पहली बार करें तब भी 30 कि.ग्रा नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर की दर से डालना चाहिए. दूसरी कटाई भी फूल आने पर करनी चाहिए. तीसरी बार सम्पूर्ण पौधा बीज पकने पर एखाड़ना चाहिए. पौधों को सुखाकर बोरों में भरकर भण्डारण किया जाता हैं.
रोग और कीट:
पौध गलन की रोकथाम के लिए बीजों को 0.2 प्रतिशत बावेस्टीन फफूंदनाशक से उपचारित कर बोना चाहिए. इसके पश्चात् यदि किसी कीट व रोग का प्रकोप होता हैं तब आवश्यकतानुसार कीट नियंत्रण करना चाहिए. जहाँ तक संभव हो कीट नियंत्रण हेतु नीम की की खली व जैविक कीटनाशक का प्रयोग करना चाहिए.
अंतरवर्ती फसल के रूप में कालमेघ को नीलगिरी, पॉपुलर, आँवला व वृक्ष प्रजातियों के साथ अंतरवर्ती फसल के रूप में लगाया जा सकता है.
फसल सुखाना एवं संग्रहण:
फसल की कटाई के तुरंत बाद हवादार जगह में सुखाना चाहिए. जिससे रंग में अन्दर न आए. फसल अच्छी तरह सूखने के बाद इसे बोरे में भरकर संग्रहण किया जाता हैं.
अनुमानित आय व्यय प्रति हेक्टेयर:
कालमेघ की खेती के लिए प्रति हेक्टेयर अनुमानित खर्चा रु.28,000 होता हैं. इसकी खेती से आय लगभग रू.90,000 होती हैं. इस प्रकार किसान कालमेघ की खेती से लगभग रु.62,000 प्रति हेक्टेयर लाभ अर्जित कर सकता है.
लेखक
डॉ. योगेश यादव राव सुमठाणे
सहा. प्राध्यापक एवं वैज्ञानिक सुनील कुमार
वानिकी सहयोगी
बाँदा कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय बांदा- 210001 उत्तर प्रदेश