अश्वगंधा एक महत्वपूर्ण व प्राचीन औषधीय फसल है. जिसका इस्तेमाल देशी चिकित्सा, आयुर्वेद व यूनानी पद्धति में किया जाता है. इसे असवगंधा, नागौरी असगंध नामों से भी जाना जाता है. इसकी ताजी जड़ों से गंध आती है, इसलिए इसे अश्वगंधा कहते हैं. यह एक कम खर्च में अधिक आमदनी व निर्यात से विदेशी मुद्रा अर्जित करने वाली महत्वपूर्ण औषधीय फसल है. इसकी खेती देश के अन्य प्रदेशों जैसे महाराष्ट्र, राजस्थान, गुजरात, आंध्रप्रदेश, उत्तरप्रदेश, हरियाणा, केरल, जम्मु कश्मीर एवं पंजाब में की जाती है. इसकी बुआई से लेकर कटाई तक काफी सावधानियाँ बरतनी पड़ती है. आज कृषि जागरण आप सभी के लिए इसके बारे में महत्वपूर्ण जानकारी देने वाला है.
अश्वगंधा के लिए जलवायु
इसकी खेती शुष्क व उपोषण जलवायु में अच्छे से जा सकती है. जमीन में अच्छी मात्रा में नमी और शुष्क मौसम भी होना चाहिए. अश्वगंधा को खरीफ के मौसम में देर से लगाते हैं.
अश्वगंधा के लिए उपयुक्त भूमि
इसकी खेती हर तरह की जमीन पर कर सकते है, लेकिन हल्की काली, भुरभुरी, बलुई दोमट या फिर लाल मिट्टी अच्छी मानी जाती है, जिसका पी एच मान 7.0 से 8.0 हो, साथ ही जल निकास का उचित प्रबंध हो. इसकी खेती अधिक लवणीय और जलभराव वाली जमीन पर नहीं कर सकते. बता दें कि अश्वगंधा को बरानी खेती के रूप में उगा सकते हैं. अगक एक से दो बार बारिश हो जाए, तो इसकी पैदावार में गुणात्मक बढ़ जाती होता है.
अश्वगंधा की खेती के लिए तैयारी
सबसे पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से होनी चाहिए, इसके बाद कल्टीवेटर से दो जुताई करें. हर जुताई के बाद पाटा लगाना होता है. ताकि मिट्टी भुरभुरी हो सके.
अश्वगंधा की खेती के लिए पोषक तत्व प्रबंधन
अश्वगंधा को काश्तकार शुष्क क्षेत्रीय बेकार पड़ी भूमि में बरानी के रूप में उगाते हैं. इस पर किसी तरह की रसायनिक खाद नहीं डाली जाती है, लेकिन किसान बुवाई से पहले 15 किलोग्राम नत्रजन और 15 किलोग्राम फास्फोरस प्रति हेक्टेयर की दर से मिट्टी में मिला लें. इससे फसल अच्छी होती है.
उन्नत किस्में औऱ बीज की मात्रा
अश्वगंधा की अनुसंशित किस्मों में डब्लू एस- 20, डब्लू एस आर और पोषित प्रमुख है. अगर छिटकवा विधि से बीज की बुवाई की जाती है, तब 10 से 12 किलोग्राम और पौध तैयार कर रोपण करने पर 5 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर रोपाई हेतु उपयुक्त होता है. अश्वगंधा की खेती हेतु बीज उपचार भी काफी जरुरी है. इससे बीज जनित रोगों और कीटों के प्रकोप से छुटकारा मिलता है. इसके लिए कार्बेन्डाजिम 2 ग्राम और 1 ग्राम मैंकोजेब को प्रति किलोग्राम बीज की दर से बुवाई से पहले बीज उपचारित करें.
फसल बुवाई
इसकी खेती के लिए तैयार खेत में बीज को समान रूप से छिटक कर मिट्टी में मिला दे. पौधरोपण के लिए नर्सरी में तैयार 5 से 6 सप्ताह के पौधों को लगाया जाता है. पौध रोपण शाम के वक्त करना चाहिए. साथ ही पौधों को लगाने के तुरन्त बाद हल्की सिंचाई कर देनी चाहिए, इससे पौधे में मिट्टी आसानी से चलाई जाती है. इसकी बुवाई के 20 से 25 दिन बाद पौधों की दूरी ठीक कर देनी चाहिए. बता दें कि निराई-गुड़ाई बुवाई के दो महीने बाद करते हैं. ध्यान रहे कि फसल में खरपतवार नहीं रहना चाहिए.
पौधा संरक्षण औऱ फसल खुदाई
अश्वगंधा की बुवाई के करीब 30 दिन के बाद मैकोजेब 2 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से घोल तैयार कर छिड़काव करना चाहिए. इसके करीब 10 दिन के अंतराल पर छिड़काव करते रहना चाहिए. माहू के प्रकोप की दशा में ऑक्सीडेमेटान मिथाइल 25 ई सी दवा की 1 मिलीलीटर मात्रा प्रति लीटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करें. अश्वगंधा की फसल 150 से 190 दिन में पक कर तैयार हो जाती है, यह लगभग जनवरी से मार्च के मध्य का समय होता है. इस वक्त फल और पत्तियाँ पीली पड़ने लगती है. ध्यान रहे कि इसकी जड़ की ही उपयोगिता है, इसलिए उपलब्ध संसाधनों से जड़ समेत खुदाई करें.
अश्वगंधा की जड़ सुखाना और पैदावार
इसकी खुदाई करने के बाद जड़ों को साफ कर लें. अब 9 से 10 सेंटीमीटर के टुकड़ों में काट के धूप या छाया में सुखा लेना लें. इससे इतना सुखाएँ कि उसमें 10 से 12 प्रतिशत तक नमी रह जाये.
आपको बता दें कि अश्वगंधा की हरी पत्तियां जोड़ों की सूजन दूर को करती है, तो वहीं क्षय का इलाज करने के लिए मददगार है. इसके अलावा हर्बल चाय, पाउडर और गोलियां बनाने में भी इस्तेमाल की जाती है. अश्वगंधा के छाल का काढ़ा अस्थमा रोग में लाभदायक होता है. इसकी जड़ों की मांग और आपूर्ति या उत्पादन में लगभग तीन गुणा से ज्यादा का अन्तर है. इसकी सूखी जड़ों का प्रयोग टॉनिक बनाने, गठिया रोग, त्वचा की बीमारियां, फेफड़ों के सूजन, पेट के फोड़ों एवं मंदाग्नि के उपचार में किया जाता है. साथ ही लिकोरिया और पुरूषों में वीर्य संबंधी रोग दूर करने व कमर तथा कूल्हों के दर्द निवारण हेतु भी किया जाता है.