भारत को नींबू वर्गीय फलों का घर माना जाता है. यहां इस वर्ग की विभिन्न प्रजातियां पाई जाती हैं. इस वर्ग के फलों में मुख्य रूप से संतरा, मौसमी, नींबू , माल्टा एवं ग्रेप्र फ्रुट आते हैं. केले एवं आम के बाद नींबू वर्गीय फलों का भारत में क्षेत्रफल की दृष्टि से तीसरा स्थान है. नींबू, जिसको आम बोल चाल की भाषा में कागजी नींबू के नाम से जाना जाता है. नींबू देश के लगभग सभी राज्यों में उगाया जाता है. यह फल अपने गुणों के कारण खासा लोकप्रिय है. यही कारण है कि गर्मियों में इसके भाव 100 रुपये प्रति कि.ग्रा. से भी अधिक पहुंच जाते हैं. इसमें औषधीय गुण मौजूद होने के कारण इसके फलों का उपयोग विभिन्न तरीकों से किया जाता है. इसके फलों में विटामिन ‘सी’ के अलावा विटामिन ‘ए’, विटामिन ‘बी-1’, लौह, फास्फोरस, कैल्शियम, प्रोटीन, रेशा, वसा, खनिज और शर्करा भी मौजूद होते हैं.
कागजी नींबू के फलों में 42 से 50 प्रतिशत तक रस निकलता है. इसका प्रयोग स्क्वैश, कोर्डियल और अम्ल इत्यादि बनाने के साथ-साथ प्रतिदिन के खाने में भी होता है. नींबू का रस पीने से शरीर में ताजगी एवं स्फूर्ति का भाव पैदा होता है. इसके फलों से स्वादिष्ट अचार भी बनाया जाता है. यही नहीं इसके छिलकों को सुखाकर विभिन्न तरह के सौंदर्य प्रसाधन भी बनाये जाते हैं. इन सभी विशेषताओं के कारण इसकी मांग लगभग वर्ष भर बनी रहती है. परंतु तकनीकी जानकारी के अभाव एवं कीट व रोगों का सही समय पर निदान न करपाने के कारण किसानों को आशातीत लाभ नहीं मिल पाता है.
भूमि व जलवायु
नींबू का पौधा काफी सहिष्णु प्रवृत्ति का होता है, जोकि विपरीत दशाओं में भी सहजता से पनप जाता है. अच्छा उत्पादन लेने के लिए उपोष्ण तथा उष्ण जलवायु सर्वोत्तम मानी गई है. ऐसे क्षेत्र जहां पाला कम पड़ता है, वहां इसको आसानी से उगा सकते हैं. इसकी खेती लगभग सभी प्रकार की मृदाओं में की जा सकती है. इसके पौधों की समुचित बढ़वार एवं पैदावार के लिए बलुई तथा बलुई दोमट मृदा उत्तम है, जिसमें जीवांश पदार्थ प्रचुर मात्रा में उपस्थित हों. इसके साथ ही जल निकास का भी समुचित प्रबंधन हो एवं उसका पी-एच मान 5.5 से 7.5 के मध्य हो. मृदा में 4-5 फुट की गहराई तक किसी प्रकार की सख्त तह नहीं हो, तो अच्छा रहता है.
उन्नत प्रजातियां
कागजी नींबू की कई प्रजातियां प्रचलित हैं जिनका चयन क्षेत्र विशेष अथवा गुणों के आधार पर कर सकते हैं. कुछ महत्वपूर्ण प्रजातियां हैं: एन.आर.सी.सी. नींबू -7, एन.आर.सी.सी नींबू-8 पूसा अभिनव पूसा उदित, विक्रम, कागजी कला, प्रमालिनी, चक्रधर, और साई सर्बती, इत्यादि. पौधे किसी विश्वसनीय स्रोत अथवा सरकारी नर्सरी से ही खरीदें. पौधे खरीदते समय यह भी ध्यान रखें कि वे स्वस्थ एवं रोग मुक्त हों.
पौध प्रसारण
नींबू का प्रवर्धन बीज, कलिकायन एवं एयर लेयरिंग गूटी विधि से किया जा सकता है. इसके बीजों में बहुभू्रणता पाई जाती है, जिसके कारण इसका व्यावसायिक प्रसारण बीज द्वारा ही अधिक किया जाता है.इसके बीजों में किसी प्रकार की सुषुप्तावस्था नहीं पाई जाती है. कागजी नींबू में गूटी विधि भी काफी प्रचलित है. इसके द्वारा कम समय में ही अच्छे पौधे तैयार किए जा सकते हैं. इस कार्य के लिए वर्षा वाला मौसम सर्वोत्तम होता है. गूटी तैयार करने के लिए पेन्सिल की मोटाई की शाखा; 1.0-1.5 सें.मी., जोकि लगभग एक वर्ष पुरानी हो, का चयन कर लें. चयनित शाखा से छल्ले के आकार की 2.5-3.0 सें.मी. लंबाई की छाल निकाल छल्ले के ऊपरी सिरे पर सेराडेक्स पाउडर या इंडोलब्यूटारिक एसिड; आई.बी.ए का लेप लगाकर छल्ले को नम मॉस घास से ढक दें. ऊपर से लगभग 400 गेज की पॉलीथीन को 15-20 सें.मी. चौड़ी पट्टी से 2-3 बार लपेटकर सुतली अथवा धागे से दोनों सिरों को कसकर बांध दें. 1.5-2.0 महीने बाद जब पॉलीथीन में से जड़ें दिखाई देने लग जाएं तब इस शाखा को पौधे से अलग कर के नर्सरी थैलियों में लगा दें.
सिंचाई
यदि वर्षा नहीं हो रही हो तो रोपण के तुरन्त बाद सिंचाई अवश्य करें. इसके पश्चात मृदा में पर्याप्त नमी बनाये रखें, खासकर पौधों के रोपण के शुरुआती 3-4 सप्ताह में और इसके बाद एक नियमित अंतराल पर सिंर्चाइ करते रहें. पौधों की सिंचाई थाला बनाकर अथवा टपक सिंचाई पद्धति से कर सकते हैं. सिंचाई करते समय हमेंशा यह ध्यान रखें कि पानी, पौधे के मुख्य तने के सम्पर्क में न आए. इसके लिए तने के आसपास हल्की ऊंची मृदा चढा दें.
खाद एवं उर्वरक
खाद एवं उर्वरकों की मात्रा देने का समय और तरीका पोषण प्रबंधन में बहुत महत्वपूर्ण है. खाद एवं उर्वरकों की मात्रा, मृदा की उर्वरा क्षमता एवं पौधे की आयु पर निर्भर करती है. सही मात्रा का निर्धारण करने के लिए मृदा जांच आवश्यक है. यदि संतुलित मात्रा में खाद एवं उर्वरक डाली जाए तो अच्छे उत्पादन के साथ-साथ मृदा के स्वास्थ्य का भी ध्यान रखा जा सकता है.
खाद तथा उर्वरको को हमेंशा पौधों के मुख्य तने से 20-30 सें.मी. की दूरी पर डालना चाहिए. गोबर की खाद की पूरी मात्रा का दिसंबर-जनवरी में, जबकि उर्वरकों को दो भागों में बांटकर दें. पहली मात्रा मार्च-अप्रैल में एवं शेष आधी मात्रा को जुलाई-अगस्त में दें. नींबू में सूक्ष्म पोषक तत्वों का भी बहुत महत्व है. अतः इनकी कमी के लक्षण दिखाई देने पर 0.4-0.7 प्रतिशत जस्ते व फेरस सल्फेट तथा 0.1 प्रतिशत बोरेक्स का छिड़काव करें.
कागजी नींबू में स्वाभाविक तौर पर कटाई-छंटाई की आवश्यकता नहीं होती है. परंतु रोपण के प्रारम्भिक वर्षों में पौधे को सही आकार देने के लिए जमीन की सतह से लगभग दो फुट की ऊंचाई तक शाखाओं को हटाते रहना चाहिए. बाद के वर्षों में भी सूखी, रोगग्रस्त एवं आड़ी-तिरछी टहनियों को काटते रहना चाहिए. इसके साथ ही जलांकुरों की पहचान कर के उनको भी हटा दें.
अंतः फसलीकरण
रोपण के प्रारम्भिक 2-3 वर्षों तक कतारो में खाली पड़ी जगह पर कोई उपयुक्त फसल लेकर कुछ आमदनी की जा सकती है. इसके लिए दलहनी फसलें या ऐसी सब्जियां जिसमें कीट/रोगों का आक्रमण कम होता हो, उगाना उपयुक्त होता है. दलहनी फसलों में मूंग, मटर, उड़द, लोबिया और चना आदि उगाकर आमदनी बढ़ाने में मदद मिलती है.
फलों का फटना
कागजी नींबू में वर्षा के मौसम में अक्सर फल फटने की समस्या देखी जा सकती है. फल प्रायः उस समय फटते हैं, जब शुष्क मौसम में अचानक वातावरण में आर्द्रता आ जाती है. अधिक सिंचाई या सूखे के लंबे अंतराल के बाद वर्षा का होना भी फल फटने का मुख्य कारण है. प्रारंभिक अवस्था में फलों पर छोटी दरारें बनती है, जो बाद में फलों के विकास के साथ बड़ी हो जाती हैं. इससे आर्थिक रूप से बहुत अधिक नुकसान होता है. फलों को फटने से रोकने के लिए उचित अंतराल पर सिंचाई करें. जिब्रेलिक अम्ल 40 पी.पी.एम. या एन.ए.ए. 40, पी.पी.एम या पोटेशियम सल्फेट 8 प्रतिशत घोलकर छिड़काव अप्रैल, मई एवं जून में करें.
तुड़ाई एवं उपज
फलों की तुड़ाई का सही समय उगायी जाने वाली किस्म एवं मौसम पर निर्भर करता है. कागजी नींबू के फल 150-180 दिनों में पक कर तैयार हो जाते हैं. पलों का रंग जब हरे से हल्का पीला होना शुरू हो जाए तो, फलों की तुड़ाई प्रारंभ कर देनी चाहिए. फलों को तोड़ते समय यह ध्यान रखें कि फलों के छिलके को किसी प्रकार का नुकसान न पहुंचे. कागजी नींबू की किस्म, मौसम और प्रबंधन इत्यादि पर निर्भर करती है. सामान्यत 1000-1200 फल प्रति पौधा प्रतिवर्ष मिल जाते हैं.
प्रमुख कीट एवं रोग
नींबू में कई तरह के कीटों एवं रोगों का आक्रमण होता है यदि सही समय पर इनकी पहचान करके उचित प्रबंधन नहीं किया जाये तो किसानों को बहुत आर्थिक नुकसान उठाना पड़ता है. कागजी नींबू में लगने वाले कुछ हानिकारक कीट एवं रोग निम्नलिखित हैं-
नींबू तितली (लेमन बटरफ्रलाई)
इसकी इल्लियां; सूंडियां मुलायम पत्तियों के किनारों से मध्य शिरा तक खाकर क्षति पहुंचाती हैं. कई बार तो ये पूरे पौधे को ही पत्ती विहीन कर देती हैं. नर्सरी एवं छोटे पौधों की मुलायम एवं नई पत्तियों पर इसका प्रकोप बहुत ज्यादा होता है.छोटी अवस्था में यह कीट, चिड़ियों की बीट जैसी दिखाई देती है. परंतु बाद में पत्ती के रंग-रूप की हो जाती है, जिससे यह बहुत कम दिखाई देती है. इस कीट का प्रकोप वर्षा के मौसम; जुलाई-अगस्त में अधिक होता है.
कीट नियंत्रण
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मोनोक्रोटोफॉस 36 एस.एल. एक मि.ली. या क्विनालपफॉस 25 ई.सी. 5 मि.ली. प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें.
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पौधों की संख्या अधिक नहीं होतो लटों को पौधों से चुनकर मृदा में दबा दें अथवा मिट्टी के तेल में डालकर मार दें.
लीफ माइनर
इस कीट के लार्वा; सूंडी पत्ती की निचली सतह पर चांदी के समान चमकीली, टेढी मेंढी सुरंगे बना देती है. इससे प्रभावित पत्तियों के किनारे अंदर की तरफ मुड़कर सूखने लग जाते हैं. इसका प्रकोप भी नई पत्तियों पर अधिक होता है, जिससे पौधे की वृद्धि रुक जाती है. कीटों की संख्या अधिक होने पर ये लक्षण पत्ती के ऊपरी भाग पर भी दिखाई देते हैं. यह नींबू में कैंकर रोग के फैलाव में भी सहायक होता है.
कीट नियंत्रण
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750 मि.ली. ऑक्सीडेमेंटान मिथाइल (मेंटासिस्टाक्स) 25 ई.सी. या 625 मि.ली. डाइमेंथोएट (रोगोर) 30 ई.सी. या 500 मि.ली. पानी में प्रति एकड़ की दर से छिड़कें.
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अधिक प्रकोप होने की दशा में प्रभावित भागों को काटकर नष्ट कर दें एवं उसके पश्चात दवा का छिडकाव करें.
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बगीचे को हमेंशा साफ-सुथरा रखें.
सिट्रससिल्ला
इस कीट के शिशु एवं वयस्क दोनों ही नई पत्तियों तथा पौधों के कोमल भागों से रस चूसते हैं. इसके परिणाम स्वरूप प्रभावित भाग नीचे गिर जाते हैं और धीरे-धीरे टहनियां सूखने लग जाती हैं. ये कीट सफेद शहद जैसा चिपचिपा पदार्थ भी स्रावित करते हैं, जिसमें फफूंद का आक्रमण बढ़ जाता है. यह चिपचिपा पदार्थ जहरीला होता है, जिसके कारण पत्तियां सिकुड़ जाती है और फिर ये नीचे गिर जाती हैं. इसका प्रकोप भी वर्षा एवं बसन्त ऋतु में अधिक होता है. यह कीट ‘ग्रीनिंग’ नामक रोग फैलान में भी सहायक होता है.
कीट नियंत्रण
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पौधे के ग्रसित भागों को काटकर दबा दें अथवा जला दें.
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फरवरी-मार्च, जून-जुलाई तथा अक्टूबर-नवंबर में या कलिका फटते ही डायमेंथोएट 8 मि.ली. या क्विनॉलफॉस 1 मि.ली. या एसीपफेट 1 ग्राम दवा का प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करें. आवश्यकता हो तो यह छिड़काव 15 दिनों के अंतराल पर पुनः दोहरायें.
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कभी भी बगीचे के आसपास मीठे नीम का पौधा नहीं लगायें.
सिट्रस कैंकर
रोग का प्रबंधन
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रोग से ग्रसित सभी टहनियो एवं शाखाओ को मानसून से पहले काटछांट कर जला देना चाहिए. और शाखाओ के कटे हुए सिरों को बोर्डोपेस्ट से लेप करने से रोग फैलने से बचाया जा सकता है.
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100 पी पी एम स्ट्रप्टोसाइक्लिन (10 ग्रामस्ट्रप्टोसाइक्लिन $ 5 ग्रामकापरसल्फेट 100 लीटर में मिलाकर) अथवा ब्लाइटोक्स (0.3 प्रतिशत) अथवा नीम की खली का घोल (1 किलोग्राम 20 लीटरपानी में) फरवरी, अक्टूबर एवं दिसंबर के समय प्रयोग करने से रोग का प्रभावी नियंत्रण होता है.
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मैंकोज़ेब का 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिडकाव करने से रोग की अच्छी रोकथाम होती है.
लेखक: कामिनी पराशर१, आभा पराशर१, ओमप्रकाश२*, प्रेरणा डोगरा२, रमेंश कुमार आसिवाल२
१कृषि विज्ञानं केंद्र, सिरोही (एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी, जोधपुर)
२कॉलेज ऑफ़ एग्रीकल्चर, लालसोट ( श्री कर्ण नरेन्द्र कृषि विश्वविद्यालय, जोबनेर)
ईमेल - omprakash.pbg@sknau.ac.in