बकरियों की संख्या के आधार पर भारत का विश्व में प्रथम स्थान है. भारत में बकरियों की उन्नितशील 21 किस्में हैं. भारत में बकरियों की सख्ंया 124 मिलियन है, पूरे विश्व की बकरियों की संख्या का 16 प्रतिशत भाग भारत में हैं. पूरी बकरियों की संख्या की 75 प्रतिशत से अधिक जंगली जातियाँ है. ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लागों की बकरी पालन करना प्रमुख पसंद है क्योंकि बकरियां किसी भी वातावरण को आसानी सहन कर लेती है, उन पर व्यय कम होता है अधिक उर्वरता यानि अधिक से अधिक बच्वे देती है कम खाद्य प्रबंधन की आवयकता होती है, ज्यादा खाद्य को उपयोग में बदलने की क्षमता होती है और इस व्यवसाय में कम जोखिम भी रहता है.
बकरियाँ 1.23 हजार मीट्रिक टन दूध देती है जो कि कुल दूध उत्पादन का 3 प्रतिशत है. 370 हजार मीट्रिक टन माँस का उत्पादन करती है जो कि कुल माँस उत्पादन का 40 प्रतिशत है. 7.6 हजार मीट्रिक टन खाद्य एवं 58 मीट्रिक टन पर पश्मीनाफर का उत्पादन करती है. इस सबके अतिरिक्त बकरी की विष्ठा से खाद्य तैयार होती है जिसमें नाइट्रोजन एवं फास्फोरस की मात्रा अन्य खादों की तुलना में अधिक होती है. अर्थव्यवस्था के दृष्टिकोण से छोटे तथा भूमिरहित किसानों की बकरियाँ रीढ़ की हड्डी साबित होती है. जब प्रकृति की वजय से फसलें नष्ट हो जाती है. तब बकरियाँ पूरे वर्ष लोगों की जीविका चलाने में सहायक होती है. बकरियाँ आया बढ़ाने में, पूँजी संचय में, रोजगार दिलाने में और घर के लोगों के पोषण को बढ़ाने में अपना महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है. इनका आकार छोटा होने के कारण यह आसानी से पाली जा सकती है बकरियों के लिए कम स्थान की आवश्यकता होती हैं एवं महिलाओं व बच्चों द्वारा आसानी से नियंत्रित की जा सकती हैं। इन पर रखने पर व्यय बहुत कम होता है अतः इनको गरीबों की गाय के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि हमारे देश में ज्यादातर ग्रामीण भागों में रहने वाले लोग गरीबी रेखा से नीचे ही निवास करते हैं. अतः वह आसानी से तथा सुविधापूर्वक बकरी पालन कर सकते हैं. बकरी पालन मिश्रित खेती में एक साधारण किसान का लाभकारी व्यवसाय साबित होता है. नैसर्गिक विपदा जैसे बाढ़, सूखा आदि के कारण किसानों को बहुत आर्थिक नुुकसान उठाना पड़ता है ऐसे समय में अगर यह व्यवसाय के रूप में स्वकीकारा जाए तो लोगों का आर्थिक तथा सामाजिक स्तर बढ़ सकता है.
साराँश में बकरियाँ पहाड़ों जैसे अनुउपजाऊ जगहों तथा मरूस्थल जैसे शुल्क जमीनों में आसानी से पाली जा सकती है. वर्तमान में विश्वस्तर पर बकरियों के वर्गीकरण के आधार पर ज्यादातर दुधारू बकरियाँ शीतोष्ण भागों में एवं द्विउद्देश्यीय एशियन और अफ्रीकन देशों में पाई जाती हैं.
बकरियों की भारतीय नस्लें (Indian breeds of goats)
भारत में लगभग 21 मुख्य बकरियों की नस्लें पाई जाती है. इन बकरियों की नस्लों को उत्पादन के आधार पर तीन भागों में बाँटा गया है.
दुधारू नस्लें: इसमें जमुनापारी, सूरती, जखराना, बरबरी एवं बीटल नस्लें शामिल हैं.
माँसोत्पादक नस्लें: इनमें ब्लेक बंगाल, उस्मानाबादी, मारवाडी, मेहसाना, संगमनेरी, कच्छी तथा सिरोही नस्लें शामिल हैं.
ऊन उत्पादक नस्लें: इनमें कश्मीरी, चाँगथाँग, गद्दी, चेगू आदि है जिनसे पश्मीना की प्राप्ति होती है.
इनमें से कुछ प्रमुख बकरियों का विवरण निम्न है:
जमुनापारी: यह इटावा, मथुरा आदि जगहों पर पाई जाती है. यह दूध तथा माँस दोनों उद्देश्यों की पूर्ति करती है, यह बकरियों की सबसे बड़ी जाति है. इसका रंग सफेद होता है और शरी पर भूरे रंग के धब्बे दिखाई देते हैं, कान बहुत लम्बे होते हैं. इनके सींग 8-9 से.मी. लम्बे और ऐठन लिए होते हैं. जमुनापारी जाति की बकरियों का दूध उत्पादन 2-2.5 लीटर प्रतिदिन तक होता है. यह नस्ल दिल्ली क्षेत्र के लिए उपयुक्त है.
बारबरी: यह बकरी एटा, अलीगढ़ तथा आगरा जिलों में पाई जाती है. यह मुख्यतः माँस उत्पादन के उपयोग में लाई जाती है यह आकार में छोटी होती है. इनमें रंग की भिन्नता होती है. कान नली की तरह मुड़े हुए होते हैं. सफेद शरी पर अधिकर भूरे धब्बे तथा भूरे पर सफेद धब्बे पाए जाते हैं. यह नस्ल दिल्ली क्षेत्र के लिए उपयुक्त है.
बीटल: यह नस्ल दूध उत्पादन के लिए उपयुक्त है. यह गुरदासपुर के पास पंजाब में पाई जाती है इसका शरीर आकार से बड़ा तथा काले रंग पर सफेद या भूरे धब्बे पाए जाते है बाल छोटे तथा चमकीले होते हैं. कान लम्बे लटके हुए तथा सर के अन्दर मुड़े हुए होते हैं.
ब्लैक बंगाल: यह नस्ल पूरे पूर्वी भारत में विशेषकर पश्चिम बंगाल, उड़ीसा तथा बिहार में पाई जाती हैं. यह छोटे पैर वाली नस्ल है. इनका कद छोटा होता है. इनका रंग काला होता है. नाक की रेखा सीधी या कुछ नीचे दबी हुई होती है. बाल छोटे तथा चमकीले होते हैं. पैर कुछ नीचे कान छोटे चपटे तथा बगल में फैले होते हैं. दाढ़ी बकरे बकरी दोनों में होती है.
ओस्मानाबादी: यह नस्ल महाराष्ट्र के ओस्मानाबादी जिले में पाई जाती है. यह भी मुख्यतः माँस के लिए पाली जाती है। बकरियों का रंग काला होता है। साल में आसानी से दो बार बच्चे देती है. यह बकरी लगभग आधे ब्याँत में जुड़वा बच्चे देती है. 20-25 से.मी. लम्बे कान होते हैं. रोमेन नाक होती है.
सूरती: यह नस्ल सूरत (गुजरात) में पाई जाती है. यह दुधारू नस्ल की बकरी है. इसका रंग अधिकतर सफेद होता है. कान मध्यम आकार के लटके हुए होते हैं, सींग छोटे तथा मुड़े हुए होते हैं. यह लम्बी दूरी चलने में असमर्थ होती है.
मारवारी: यह बकरी की त्रिउद्देशीय जाति (दूध, माँस व बाल) के लिए पाली जाती है, जो राजस्थान के मारवार जिले में पाई जाती है यह पूर्णतः काले रंग की होती है। कान सफेद रंग के होते हैं। इसके सींग कार्कस्क्रू की तरह के होते हैं. यह मध्यम आकार की होती है.
सिरोही: यह बकरी की नस्ल राजस्थान के सिरोही जिले में पाई जाती है. यह नस्ल दूध तथा माँस के काम आती है. इनका शरीर मध्यम आकार का होता है. शरीर का रंग भूरा जिस पर हल्के भूरे रंग के या सफेद रंग के चकते पाए जाते हैं. कान पत्ते के आकार के लटके हुए होते हैं, यह लगभग 10 से.मी. लंबे होते हैं, थन छोटे होते हैं.
कच्छी: यह नस्ल गुजरात के कच्छ जिले में पाई जाती है. यह बड़ें आकार की दुधारू नस्ल है. बाल लंबे एवं नाक उभार लिए हुए होती है। सींग मोटे, नुकीले तथा ऊपर व बाहर की ओर उठे हुए होते हैं. थन काफी विकसित होते हैं.
गद्दी: यह हिमांचल प्रदेश के काँगडा कुल्लू घाटी में पाई जाती है. यह पश्मीना आदि के लिए पाली जाती है कान 8.10 सेमी. लंबे होते हैं. सींग काफी नुकीले होते हैं. इसे ट्रांसपोर्ट के रूप में भी प्रयोग किया जाता है. प्रति ब्याँत में एक या दो बच्चे देती है.
बकरी की विदेशी नस्लें (Foreign breeds of goat)
एल्पाइन: इसका जन्मस्थान फ्रांस है. सफेद से काला रंग साथ में सफेद रंग के चकत्ते छोटे नुकीले कान होते हैं. दूध का उत्पादन 0.9 से 1.3 लीटर/दिन होता है. वयस्क बकरी का वजन 60.65 किलोग्राम तक होता है.
सानेन: इसका जन्मस्थान स्वीटजरलैंड है. रंग सफेद होता है. नर के सींग एवं मादा सींग रहित होती है. नाक सीधी होती है, कान सीधे खड़े होते हैं अयन लंबा एवं विकसित होता है. दूध का उत्पादन 2.5-3 लीटर प्रतिदिन तक होता है.
न्यूबियन: इसका जन्मस्थान सूडान है। काले से गहराभूरा रंग एवं शरीर पर चकत्ते होते हैं। दूध का उत्पादन 1 लीटर के आसपास होता है।
नर बकरे (बक) का चुनाव करते समय महत्वपूर्ण तथ्य:-
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बक सदैव समूह में सबसे भारी एवं चैड़ी छाती का होना चाहिए
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शरीर स्वस्थ, मजबूत टाँगों के साथ उत्तेजक दिखने वाला होना चाहिए
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किसी भी बीमारी से रहित होना चाहिए
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प्रजनन क्षमता से पूर्ण होना चाहिए वीर्य की गुणवत्ता अधिक शुक्राणुओं सहित उत्तम व असमान्य शुक्राणु नहीं होना चाहिए
बकरी प्रजनन संबंधी महत्पवूर्ण जानकारियाँ (Important information about goat breeding)
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सदैव समूह में शुद्ध जाति का बक होना चाहिए
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बक (नर) सदैव 15 माह तक प्रजनन के लिए प्रयोग करना चाहिए
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18-24 माह का नर 25-30 डो (मादा) को गर्भित कर सकता है एवं पूर्ण परिपक्वता 2-25 वर्ष होने पर 50-60 मादाओं को गर्भित कर सकता है
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बक संभोग के लिए जाडे के मौसम में ज्यादा उत्तेजित रहता है
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डो (मादा) 15-18 माह में संभोग के लिए परिपक्व होती है परन्तु अच्छी खिलाई पिलाई एवं प्रबंधन द्वारा इस समय को तीन से पाँच माह तक कम किया जा सकता है
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बकरियों में गर्मी का समय 36 घंटे तक होता है केवल बीटल बकरी में 18 घंटे का होता है एवं गर्मीचक्र 19 दिवस तक रहता है. गर्भकाल अवधि 145-150 दिन का होता है
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ज्यादातर मादाएं सितम्बर एवं मार्च में गर्मी में आती है
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बकरियाँ ज्यादातर दो बार जनवरी-अप्रैल एवं सितम्बर नवम्बर में बच्चा देती है
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जो बच्चे जनवरी-अप्रैल में पैदा होते है वह ज्यादा स्वस्थ होते है तुलना में जो बच्चे अगस्त-नवम्बर में संभोग के दौरान पैदा होते हैं
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जिन बक (नरों) को अच्छी एवं नियमित खिलाई कराई जाती है वह 8-10 वर्ष तक प्रजनन के योग्य रहते हैं
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बकरियों की औसत उम्र 12 वर्ष होती है
बकरियों की खिलाई पिलाई
बकरी एक ऐसा पशु है जो खराब से खराब और कम से कम चारे पर अपना निर्वाह कर लेती है बकरी हरी घास, कँटीली झाड़ी तथा पेड़ पौधों की पत्तियों से अपना निर्वाह कर लेती है. यह चरना खूब पसन्द करती है। कँटीली झाड़ियाँ, बबूल, पीपल, नीम और बेर आदि की पत्तियों को बकरियाँ खूब खाती है। अतः इनको चरने के लिए बाहर भेजना परम आवश्यक है. लेकिन बकरियाँ चरागाह बदलना बहुत पंसद करती है.
बकरियों को प्रतिदिन एक ही चरागाह में भेजने पर वे शीघ्र ही बीमार पड़ जाती है. ओंस में भीगी घास चराए जाने पर वे बकरियों को मुंह की बीमारी हो जाती है. वृक्षों की शाखाओं के अंकुर चबा जाने और अनेक प्रकार के पौधों और वृक्षों को अपना आहार बना लेने की बकरी की आदत के कारण उसे पेड़-पौधों का शत्रु समझा जाता है लेकिन इसके लिए इस निर्दोष पशु को दोषी नहीं समझना चाहिए. इसके लिए तो बकरियाँ पालने वाले वे गडरिएं उत्तरदायी हैं. जो अपनी गरीबी के कारण् इन बकरियों को झुण्डों में खुला छोड़ देते हैं.
यदि हमें अपनी वनस्पति की रक्षा करती है तो बकरियों के पालन की वर्तमान विधियों में सुधार लाना आवश्यक है. शीत ऋतु में रातें लम्बी होती है अतः दिन की चराई इनके लिए पर्याप्त नहीं होती. इन दिनों के लिए बकरियों को हरा चारा दिए जाने की व्यवस्था की जानी चाहिए. प्रति बकरी 2 कि.ग्रा. हरा चारा रात्रि के लिए पर्याप्त होता है. चारे को बाँधकर लटका देना चाहिए अथवा पैरों द्वारा बकरियाँ उसे खराब कर देती हैं. बकरियों को भीगा चारा कदापि नहीं देना चाहिए.
बकरियों की भोजन संबंधी मुख्य बातें (Goats food highlights)
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बकरियों को अगर चरागाह में नहीं भेजा जाता तो उन्हें तीन बार-सुबह, दोपहर व शाम को चारा देना चाहिए.
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बकरियों के चारे की मात्रा निश्चित नहीं है परन्तु उन्हें इतना भोजन अवश्य मिलना चाहिए जितना कि एक बार में उस भोजन को समाप्त कर लें.
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एक औसत दुधारू बकरी को दिन में करीब 3.5-5.0 कि.ग्रा. चारा मिलना चाहिए. इस चारे में कम से कम 1.0 कि.ग्रा. सूखा चारा (अरहर, चना या मटर की सूखी पत्तियाँ या अन्य कोई दलहनी घास) मिलना चाहिए.
बकरियों के भोजन की मात्रा निश्चित करने में निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए।
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एक वयस्क बकरी को 50 कि.ग्रा. भार के पीछे 500 ग्राम राशन
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दुधारू बकरी के प्रति 3 कि.ग्रा. दुध उत्पादन पर 1 किग्रा. राशन
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नौ से 12 माह तक की आयु के बच्चों को 250-500 ग्राम राशन प्रतिदिन
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प्रसव से दो माह पहले गर्भकाल का राशन 500 ग्राम प्रतिदिन
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बकरे को साधारण दिनों में 350 ग्राम राशन प्रतिदिन व प्रजनन काल में 500 ग्राम राशन प्रतिदिन
दूध से सूखी बकरी को सुबह शाम में 400 ग्राम राशन प्रतिदिन देना चाहिए।
बकरियों के लिए उपयुक्त रातब
स्र्टाटरराशन: 15 दिवस से बड़े बच्चों को स्र्टाटरराशन जो कि आसानी से बच्चों को पच सके
मक्का: 20 प्रतिशत
चना: 20 प्रतिशत
मूंगफली की खाली: 35 प्रतिशत
गेहूँ की चूरी: 22 प्रतिशत
खनिज मिश्रण: 2.5 प्रतिशत
साधारण नमक: 0.5 प्रतिशत
इस राशन में पचनीयक्रूड प्रोटीन 18-20 प्रतिशत कुल पाच्य तत्व 72 प्रतिशत एवं ऊर्जा 2.5-2.9 मेगाकैलोरी/किग्रा. बच्चों को 4 से 8 किग्रा. भार पर 50-250 ग्राम दाने का मिश्रण एवं 9-20 किग्रा. पर 350 ग्राम दाना मिश्रण प्रतिदिन देते हैं
ग्रोवर राशन: तीन माह से बड़े बच्चों को दलहनी चारा सामान्य बढ़वार के लिए देना चाहिए. कम गुणवत्ता वाले चारे में 12-14 प्रतिशत पचनीय क्रूडप्रोटीन एवं कुल पाच्य तत्व 63-65 प्रतिशत 350-400 ग्राम प्रतिदिन मिलाकर देना चाहिए। आधिक खिलाई पिलाई को रोकना चाहिए। ग्रोइंग किड्स को निम्न दाने का मिश्रण देना चाहिए.
मक्का: 20 प्रतिशत
चना: 32 प्रतिशत
मूंगफली की खाली: 30 प्रतिशत
गेहूँ की चूरी: 15 प्रतिशत
खनिज मिश्रण: 2.5 प्रतिशत
साधारण नमक: 0.5 प्रतिशत
फिनिशर राशन: काबोहाइड्रेट ऊर्जा वाले खाद्य फैटी कारकस के लिए देना चाहिए. इस दाने मिश्रण में 6-8 पचनीय क्रूड प्रोटीन एवं 60-65 कुल पाच्य पोषक तत्व होने चाहिए.
बड़ी बकरियों के लिए दाने की मात्रा
जीवन निर्वाह राशन - 250 ग्राम प्रति 50 किग्रा. भार
उत्पादन राशन - 450 ग्राम प्रति 2.5 ली. दूध/मादा (डो)
गर्भवती राशन - अंतिम दो माह गर्भकाल में 220 ग्राम/दिन
बक राशन - 400-500 ग्राम राशन प्रतिदिन
बकरियों के प्रमुख चारे (Main fodder for goats)
पेड़ों की पत्तियाँ-गूलर, पाकर, पीपल, नीम, आम, अशोक, बनयान, मलबेरी
झाड़ियाँ-बेर, झरबरी, करौंदा, गोखरू, हिबिस्कस
घासे- दूब, मोथा, अंजन, सेंजी, हिरनखुरी आदि
कृषित चारे- लूरार्न, बरसीम, लोबिया, सरसों, जई, मक्का, जौ
गर्भवती बकरियों का आहार: गर्भवती बकरियों को अंतिम 6-7 सप्ताह अच्छा आहार देना जरूरी है. इनको हरी पत्तियों के अलावा 400-500 दाना चाहिए. इसके साथ कैल्शियम, फास्फोरस, नमक के मिश्रण चाटने के लिए रखने चाहिए. बकरी की प्रसूति के 4-5 दिन पहले 50 प्रतिशत दाना कम करके 10 किलो चोकर के साथ लूरार्न/बरसीम घास 1 किग्रा., हराचारा 1 किग्रा., दाना मिश्रण 0.5 किग्रा. और सूखा चारा 1 किग्रा. खाद्य देना चाहिए.
बकरियों के लिए खनिज मिश्रण का संगठन
हड्डी का चूरा - 42 प्रतिशत
लाइम चूना/चाक - 30 प्रतिशत
साधारण नमक - 20 प्रतिशत
सल्फर - 5 प्रतिशत
फोरस सल्फेट - 3 प्रतिशत
दाने के मिश्रण में मिलाने की दर- 2 प्रतिशत
बकरियों को पानी की आवश्यकता: बकरी को कच्छ पानी की आवश्यकता होती है. गंदा बरसात का पानी बकरी नहीं पीती है. एक दिन में 6-8 लीटर तक पानी पीती है। वातावरण के होने वाले बदलाव पर बकरी की प्यास अबलंबन रहती है। धूप के गर्भ मौसम में ज्यादा एवं ठंड़े मौसम में कम पानी लगता है. कम पानी पीने से उत्पादन में भी कमी आती होती है.
बकरियों का निवास: बकरियों के लिए किसी बाड़े की आवश्यकता नहीं होती. साधारण स्थान में वह बात का ध्यान रखना चाहिए कि वह सूखा, नमीरहित, हवादार, स्वच्छ व खुला हुआ हो, जंगली पशुओं से सुरक्षित हो और गर्मी, वर्षा व शीत तीनों ऋतुओं से बचाव हो सके. प्रत्येक बकरी के लिए लगभग एक वर्ग मीटर जगह पर्याप्त होती है। यदि बकरियाँ कम हो तो इन्हें एक ही पंक्ति में बांधना चाहिए अधिक संख्या होने पर दोहरी पंक्ति में बाँधा जा सकता है. बकरियों के लिए चरही की ऊंचाई 15 सेंमी. और चैड़ाई 40 सेंमी. पर्याप्त होती है. बाड़े का फर्श भूमि से 15 सेंमी. ऊँचा हो और चरही से नाली तक 8 सेंमी. का ढ़ाल हो। जिससे की सारा मूत्र बहकर नाली में चला जाए। फर्श साफ व सूखा होना चाहिए. हवा और बौछारों को रोकने के लिए एक दीवार का होना आवश्यक है.
दो बकरियों के लिए 3 मी. लम्बा व 1.5 मी. चैड़ा बाड़ा पर्याप्त होता है. नर पशु 2.5 ग 2.0 मीटर के बाड़े में अकेले रखी जानी चाहिए. खुला बाड़ा जिसका आकार 12 मी. ग 18 मी. हो 100 बकरियों को रखा जा सकता है.
बकरों का बाड़ा बकरियों के बाड़े से कम से कम 16 मी. की दूरी पर होना चाहिए. उनका निवास स्थान तो बकरियों जैसा ही हो, लेकिन इसमें बकरों के व्यायाम का समुचित प्रबन्ध होना चाहिए.
बकरी पालन व्यवस्थापन (Goat farming management)
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बच्चे के जन्म पर सावधानियाँ: जन्म के पश्चात नाभि स्थान में आयोडीन अच्छी तरह लगाना चाहिए. एक दो दिन के अंतर पर आयोडीन फिर लगानी चाहिए.
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माँ का पहला दूध 36 घंटे के अन्दर किसी न किसी तरह पिलाना आति आवश्यक है। पहले दूध के सभी पोषक तत्व विपुल मात्रा में होते हैं. इससे बच्चे की रोग प्रतिकारिता शाक्ति बढ़ती है.
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बच्चे को माँ से अलग करना: बकरी माँ से बच्चों को 2-3 माह की उम्र में अलग कर देना चाहिए क्योंकि इसके बाद बच्चों में वयस्कता आती है.
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सींग रोहान काना: सींग रहित करने की सबसे अच्छी उम्र 5-7 दिन तक होती है. कास्टिक पोटाश की छड़ लेकर उसको सींग पर इतना रगड़े कि सींग का बटन जलकर नष्ट हो जाए. दूसरे तरह से गर्भ लाल लोहे की छड़ से दागकर जलाने के बाद उस पर बीटाडीन आयोडीन मलहम लगातार लगाएं.
चिन्हित करना: बकरियों पर पहचान स्थापित करने के लिए कानों पर संख्या छेदकर कान पर टेग बाँधकर या कान को ट आकार में काटकर किया जाता है.
बकरी के खुरों को काटना: बकरियों के खुर जल्दी-जल्दी बढ़ते हैं. अतः प्रत्येक माह निश्चित समय पर खुरो को काट छाँटकर सुव्यवस्थित करते रहना चाहिए। अन्यथा बकरियों को स्वास्थ्य एवं दुग्ध उत्पादन बुरी तरह प्रभावित होता है.
बाधियाकरण करना: नर बकरे का बधियाकरण करना निताँत आवश्यक होता है जिससे कि अनचाही पैदाइश एवं उनकी शक्ति का सही प्रयोग हो सके। मटन के लिए रखे गए बकरे का बधियाकरण 2 माह की उम्र में उपयुक्त होता है. बधियाकरण के निम्न फायदे हैं.
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मटन स्वादिष्ट लगता है
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बकरे का वजन बढ़ने में मदद होती है
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खाल मुलायम होती है
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अनचाही पैदाइश रोकी जा सकती है
परजीवियों का नियंत्रण: बकरी के शरी पर रहने वाली (कृमी रक्त तथा अन्न रस का शोषण करती है. इसके कारण बकरियाँ ठीक से नहीं बढ़ पाती है। शरीरिक विकास तथा परजीवियों को मारने के लिए बी.एच.सी. एवं मैलाथियान जैसी दवाओं का छिड़काव किया जाता है.
पशुओं का बीमा करना: इनकी बीमा योजना पंचायतों द्वारा निकाली जाती है. गरीबी रेखा के नीचे जीवन गुजारने वाले लोगों को रोजगार का साधन देकर उनका जीवन स्तर ऊँचा उठाने के उद्देश्य से एकीकृत ग्रामीण कार्यक्रम लागू किया जाता है. इसमें पशुओं की आकस्मिक मृत्यु होने पर व्यक्ति को पंशु के बीमे का भुगतान किया जाता है. ग्राम पंचायत दावा फार्म भरकर बीमा कम्पनी को भेज देती है और दावा फार्म मिलने के 21 दिन बाद व्यक्ति को चेक द्वारा मरे हुए पशु/पक्षी की कीमत मिल जाती है.
निमोनिया: यह बकरियों का प्रमुख रोग है. यह रोग बकरियों को ठंड लगने या भीगने से होता है. जिससे बकरियों को तेज बुखार आता है एवं साँस लेने में तकलीफ होती है. सर्वप्रथम तो ठंड आने वाले मार्ग को बंद कर देना चाहिए एवं तेल की कुछ बूँदे गरम पानी में डालकर देनी चाहिए.
एंथ्रेक्स: यह रोग बैसिलस एन्थ्रेसिस नामक जीवाणु द्वारा होता है इस रोग में चमड़ी में खून जमा हो जाता है. बुखार आने के साथ-साथ नाक, मुँह एवं मल द्वार से खून रिसता हुआ दिखता है एवं मरे हुए पशु को गहरे गढ्ठें में चुनखुड़ी डालकर गाड़ देना चाहिए.
घटसर्प: यह रोग पाश्चुरेला नामक जीवाणु द्वारा होता है. इस रोग में तेज बुखार आता है गले एवं जीभ में सूजन आ जाती है. इसलिए सांस लेने में तकलीफ होती है एवं 24 घंटे में मृत्यु हो जाती है. यदि एन्टीसीरम उपलब्ध हो तो 150 घ.से. की मात्रा का अंतःशिरा इंजेक्शन देने से लाभ होता है. सल्फा ड्रग्स का इंजेक्सन भी लाभकारी रहता है.
विषाणु जनित रोग:
खुरपका मुँहपका: यह रोग वायरस से होने वाला एक भयानक रोग है. इस रोग में खुर तथा मुँह में फफोले पड़ जाते हैं एवं पशु का शारीकि तापक्रम 104-105 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है. रोग हो जाने पर पशु के फफोलों को बोरिक एसिड, फार्मलीन आदि घोलों से धोना चाहिए. छालों पर बोरोग्लिसरीन का लेप भी गुणकारी है. पैरों के छालों पर 1 प्रतिशत तूतिया या फिनायल का घोल छिड़काव करना चाहिएं इन घावों को शीघ्र अच्छा करने के लिए पशु को 10 उस टेरामारसिन का इंजेक्शन गुणकारी रहता है. साथ ही साथ पादस्नान करवाना चाहिए इसके लिए 3-4 मी. लंबी 1 मी. चैड़ी व 30 सेमी. गहरी नाँद बनाकर पैरों को स्नान कराएं.
पाचन संबंधी रोग (Digestive diseases)
अफारा रोग: यह रोग पशुओं में अधिक हरा चारा खाने के कारण हो जाता है या चारे में अचानक परिवर्तन होने पर भी हो जाता है. पेट की बाई कोख फूल जाती है व दर्द होता है पशु खाना पीना बन्द कर देता है साँस लेने में कष्ट होता है। पशुओ को ऐसी स्थित में तारपीन का तेल पिला दें एवं प्रोटीन युक्त आहार न दें.
कब्ज हो जाना: कब्ज होने पर पशु जुगाली भी बन्द कर देता है भूख कम हो जाती है यह रोग उनमें ज्यादा होता है जिन्हं भोजन अधिक एवं व्यायाम कम मिलता है. ऐसी स्थिति में पशु का तापमान बढ़ जाता है और पशु की मृत्यु तक हो सकती है इसके हेतु रोज व्यायाम अवश्य कराएं एवं पेट का एसिड कम करने हेतु सोडियमबाइकार्बोनेट दें.
परजीवी रोग: परजीवी रोग दो तरह के होते हैं वाह्य परजीवी एवं अंतः परजीवी बाह्य परजीवी में बकरीघर में कीड़े भी हो सकते हैं जिन्हें तीन सप्ताह तक खाली छोड़ने पर कीडें मर जाते है. आईवरमैक्सि का इंजेक्शन चमड़ी में दिया जाता है एवं ब्यूटाक्स दवा का भी प्रयोग किया जाता है जिससे वाह्य परजीवी कीड़े मर जाते हैं. आँतरिक परजीवी के लिए आलबेंडाजोल, फेनबेंडाजोल, लेवामेरजेल दवाओं का प्रयोग लाभकारी सिद्ध होता है.
प्रजनन संबंधी रोग (Reproductive diseases)
बच्चेदानी का बाहर आना: कभी-कभी बच्चेदानी वाह्सजननाँग से बाहर निकल जाती है, ऐसी स्थिति में पोटेशियम परमैगनेट या लाल दवा का एक भाग तथा साफ पानी का हजार भाग मिलाकर घोल बना लिया जाता है, जिससे बच्चेदानी को धो दिया जाता है. फिर धीर-धीरे उसे अंदर करने का प्रयत्न किया जाता है.
बच्चे का जन्म के बाद जेर न गिरना: जन्म के 12 घण्टे के अन्दर जेर गिर जाना चाहिए. यदि जेर नहीं गिरती तो सूजन एवं मवाद पड़ बीमारियाँ पैदा हो सकती है. जेर न गिरने पर फ्युरिया नामक गोली बच्चेदानी के अन्दर डालनी चाहिए। इसके अलावा हार्मोटोन नामक दवा पिलानी चाहिए.
बकरी का दूध: बकरी का दूध हल्का होने के कारण बच्चों तथा रोगियों के लिए विशेष रूप से लाभप्रद होता है. बकरी के दूध में वसागोलिकाएं छोटी-छोटी होती है. जिसके कारण यह दूध शीघ्र ही पच जाता है. इस दूध में गाय की दूध की अपेक्षा कैल्शियम, फाॅस्फोरस तथा क्लोरीन की पर्याप्त मात्रा होती हैं. इस प्रकार यह दूध अत्यंत गुणकारी है. बकरी के दूध में एक विशेष प्रकार की दुर्गन्ध आती है जो दूध दुहते समय बकरे के पास बँधे रहने के कारण होती है. बकरे की गर्दन की त्वचा में कुछ ऐसी ग्रन्थियाँ होती है जिससे कैप्रिक अम्ल निकलता है इस दुर्गन्ध को दूध सोख लेता है अतः बकरी का दूध दुहते समय बकरी को बकरे से कम से कम 16 मी. की दूरी पर बाँधना चाहिए.
संघटक पदार्थ प्रतिशत संगठन
वसा 4.25 प्रतिशत
प्रोटीन 3.52 प्रतिशत
लैक्टोज 4.27 प्रतिशत
खनिज लवण 0.86 प्रतिशत
जल 87.10 प्रतिशत
कुल 100.00 प्रतिशत
चालू खर्चे :
1- हराचारा 1 किलो/बकरी/दिन कीमत 1/किलो
21 बकरी 1 किलो/दिन 450 दिन 1 कीमत/किलो = 9,450
2- हराचारा 1 किलो/बढ़तेस्टाक पर/दिन /1 कीमत/किलो = 3,240
3- दनामिश्रण 250ग्राम/बकरी/दिन/9कीमत/किलो 0.25किलो X 21 X 450 X 9 = 21, 262.50
4- दनामिश्रण 100 ग्राम/दिन/किड /9कीमत/किलो 27 X 0.1 X 180 X 9 = 4,374
कुल आय 98,070-25,637 72,433
कुल लाभ 72,433-22,300 50,133
प्रति माह लाभ 4,178 कीमत
प्रति बकरी लाभ 209 कीमत
अधिक जानकारी के लिए सम्पर्क करें:
डॉ. हिमाँशु पान्डेय, विषय विशेषज्ञ (पशुपालन)
आर. के. यादव, कार्यक्रम समन्वयक
कृषि विज्ञान केन्द्र, उजवा, नई दिल्ली-110073
दुरभाष: 011-28015272