भारतीय कृषि परम्परा में फसल उत्पादन के साथ-साथ कृषकों का दूसरा लगाव यदि कही होता है तो वो है पशुधन यानि पशुपालन इसलिए कहा जाता है कि फसल उत्पादन और पशुधन मिश्रित कृषि प्रणाली के दो मुख्य घटक हैं, जो हमारी कृषि अर्थव्यवस्था को प्रभावित करते हैं और जीविका प्रदान करते हैं। पशुपालन व्यवसाय की सफलता मुख्यतः हरे चारे पर निर्भर करती है। इसी क्रम में शुष्क एवं अर्धशुष्क क्षेत्रों में पशुपालको के लिए सबसे बड़ी चुनौती पशुधन हेतु वर्षभर पौष्टिक हरा चारा उपलब्ध करना है।
पशुधन के लिए उपयोगी एवं आवश्यक पोषक तत्वों के लिए लगने वाले व्यय को हरे चारे की उपलब्धता को बढ़ा कर लागत को कम किया जा सकता है, ग्रीष्मकाल में शुष्क क्षेत्रो में पशुधन के लिए हरे चारे की सबसे ज्यादा कमी रहती है जिसका प्रभाव दुधारू पशुओं के स्वास्थ्य एवं दूध उत्पादन पर पड़ता है। इस मांग को पोषण से भरपूर चारा उपलब्ध कराकर पशुधन की उत्पादन क्षमता में सुधार किया जा सकता है। बाजरा (पेन्नीसेटम ग्लूकम ) कम लागत में तथा शुष्क एवं अर्धशुष्क क्षेत्रों में उगाई जाने वाली ज्वार से भी अधिक लोकप्रिय फसल है, जिसे दाने व हरे चारे के लिए उगाया जाता है। बाजरे का हरा चारा पशुओं के लिए उत्तम एवं पौष्टिक रहता है, क्योंकि इसमें एल्यूमिनायड्स प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। बाजरा, ज्वार से अधिक सूखा सहन करने की क्षमता रखती है। देश के अधिक वर्षा वाले राज्यों को छोड़कर लगभग सभी राज्यों में बाजरे की खेती की जाती है। भारत में इसकी खेती प्रमुखता से राजस्थान, गुजरात, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, पंजाब व मध्यप्रदेश राज्य में की जाती है।
चारे की फसल के रूप में बाजरा का महत्व
बाजरा पौष्टिक तथा स्वादिष्ट होता है और इसे साइलेज, हरा, सूखा या संरक्षित चारे के रूप में खिलाया जा सकता है। यह अत्यधिक सूखा और गर्मी सहनशील फसल है, जिसे खराब मिट्टी की स्थिति में उगाया जा सकता है। अतः शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में कम लागत वाली पशुधन प्रणालियों की स्थिरता में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। द्विउद्देष्य फसल होने के कारण अनाज और चारे दोनों उद्देश्यों की पूर्ति करती है। शुष्क पदार्थ के आधार पर इसमें औसतन 7-10 प्रतिशत क्रूड प्रोटीन, 56-64 प्रतिशत एनडीएफ, 38-41 प्रतिशत एडीएफ, 33-34 प्रतिशत सेल्यूलोज और 18-23 प्रतिशत हेमी सेल्यूलोज होता है। इसके चारे में हाइड्रोसायनिक अम्ल और ऑक्सालिक अम्ल जैसे गुणवत्ता-विरोधी कारक कम होते हैं, जबकि प्रोटीन, कैल्शियम, फास्फोरस और अन्य खनिज भरपूर होते हैं। बाजरे का सूखा चारा और पुआल भी पशुओं को खिलाने के काम आता है। गर्मी सहनशील फसल होने के कारण बाजरा गर्मी के मौसम के दौरान हरे चारे की आपूर्ति के लिए एक आशाजनक फसल है।
उच्च उत्पादन तकनीकियां
तापमान एवं जलवायु – बाजरा एक उष्ण जलवायु की फसल है। यह कम बारिश वाले इलाकों में उगाया जाता है। देखा गया है कि इस फसल में ज्वार से अधिक सूखा सहन करने की क्षमता होती है। बाजरे के पौधे को अंकुरित होने के लिए 25 डिग्री सेल्सियस तापमान की जरूरत होती है। जबकि वृद्धि एवं विकास के लिए 30 से 35 डिग्री सेल्सियस तापमान की जरूरत होती है, लेकिन वहीं इसका पौधा लगभग 40 डिग्री सेल्सियस तापमान में भी अच्छी पैदावार देने में सक्षम है।
भूमि एवं खेत की तैयारी - बाजरे की फसल अच्छी जल निकास वाली सभी प्रकार की भूमियों में ली जा सकती है, परन्तु बलुई दोमट मिट्टी इसके लिए सर्वोत्तम मानी जाती है। भूमि का जल निकास उत्तम होना आवश्यक है। पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से तथा अन्य 2-3 जुताइयां देशी हल अथवा कल्टीवेटर से करके खेत तैयार कर लेना चाहिए।
बुवाई का समय - बाजरा मुख्यतः खरीफ की फसल है। जुलाई का पहला पखवाड़ा खरीफ की फसल की बुवाई के लिए उपयुक्त होता है। सिंचिंत क्षेत्रों में गर्मियों में बुवाई के लिए मार्च से मध्य अप्रैल तक का समय उपयुक्त रहता है। दक्षिण भारत में, रबी मौसम के दौरान अक्टूबर से नवंबर तक बुवाई की जाती है।
बीज दर - चारे की फसल की बुवाई 25 सेमी की दूरी में पंक्तियों में सीड ड्रिल से 1.5-2 सेमी गहराई पर करना चाहिए। इसके लिए 10-12 कि.ग्रा. बीज/ हेक्टेयर पर्याप्त होता है। बुवाई से पूर्व बीज को एग्रोसान जीएन अथवा थीरम (3 ग्रा./ कि.ग्रा. बीज) से उपचारित करना चाहिए।
उन्नत किस्में - बायफ बाजरा-1, एफबीसी-16, टीएसएफबी-15-4, एपीएफबी-2, जायंट बाजरा, प्रोएग्रो नंबर 1, मोती बाजरा, एवीकेबी-19।
खाद एवं उर्वरक - सिंचित दशा में फसल की समुचित पोषक आवश्यकता पूरी करने के लिए 10 टन गोबर की खाद/ कम्पोस्ट बुवाई से 20 दिन पहले तथा 50: 30: 30 कि.ग्रा. नत्रजनः फास्फोरसः पोटाश बुवाई के समय देना चाहिए। बुवाई के एक माह बाद 30 कि.ग्रा. नत्रजन/ हेक्टेयर का छिडकाव खड़ी फसल में करना चाहिए। असिंचित दशाओं में बुवाई के समय उपयुक्त खाद एवं उर्वरक के अतिरिक्त बारिश होने पर 20-30 किग्रा./ हेक्टेयर का छिडकाव 30-35 दिन की अवस्था में करना चाहिए।
खरपतवार नियंत्रण - बुवाई के 25-30 दिनों की अवस्था पर निराई-गुड़ाई करनी चाहिए। एट्राजिन (0.50-0.75 कि.ग्रा./हेक्टेयर) का जमाव से पूर्व प्रारंभिक दिनों में खरपतवार नियंत्रण में प्रभावी होता है।
सिंचाई - बाजरा खरीफ की फसल है और सूखा सहन करने की क्षमता रखती है, सामान्य तौर पर वर्षा पर आधारित फसल हैं। बाजरे के पौधों की उचित बढ़वार के लिए नमी का सबसे महत्वपूर्ण स्थान है। सिंचित क्षेत्रो के लिए जब वर्षा द्वारा पर्याप्त नमी न प्राप्त हो तो समय-समय पर सिंचाई करनी चाहिए। परन्तु गर्मियों की फसल में वातावरण की वाष्पोत्सर्जन मांग होने के कारण 4-5 सिंचाइयों की आवश्यकता होती है।
फसल सुरक्षा - मृदुरोमिल आसिता (डाउनी मिलड्यू) चारा बाजरा में होने वाला प्रमुख रोग है, जो पत्तियों को नुकसान पहुंचाता है। इसकी रोकथाम के लिए मेटाएक्सिल-एम कवकनाशी का 2.0 मिली/ किलोग्राम बीज के साथ बीज उपचार करें एवं मेटलएक्सिल/मैंकोजेब का 800 ग्रा./एकड़ का छिड़काव 200 लीटर पानी के साथ करें। इसके अलावा चारा बाजरे में प्ररोही मक्खी तथा तना छेदक कीट का अत्यधिक प्रकोप देखने को मिलता है, अतः इसके नियंत्रण हेतु कार्बोफ्यूरान दवा की 10 किलो मात्रा को 10 किलो बालू के साथ मिला कर खड़ी फसल मे मिट्टी मे डालना चाहिए।
कटाई - बहु कटाई वाली प्रजातियों में पहली कटाई 40-45 दिन और फिर 30 दिनों के अंतराल पर काटते हैं। इस प्रकार, वैज्ञानिक रूप से उगाई जाने वाली फसलों से 450-550 क्विंटल चारा प्राप्त होता है।
निष्कर्ष - जलवायु परिवर्तन और दूध और मांस की बढ़ती मांग के मौजूदा परिदृश्य में, बाजरा जैसी जलवायु परिवर्तन के लिए तैयार स्मार्ट फसल विश्व स्तर पर विभिन्न कृषि-पारिस्थितिकी के लिए चारा उपज में सुधार के लिए रोमांचक अवसर प्रदान करती है। इसे खरीफ और गर्मी के मौसम में आसानी से उगाया जा सकता है। चारे की आवश्यकता को पूरा करने के लिए शुष्क तथा अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में और गर्मी के मौसम में खेती करने के लिए यह सबसे अच्छी फसल है।
प्रवीण कुमार यादव, राहुल चंद्रकांत कालदाते
भा. कृ. अनु. प.-भारतीय चरागाह एवं चारा अनुसंधान संस्थान, झाँसी