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Updated on: 14 November, 2017 12:00 AM IST
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कृषि क्रियाएं लघु व्यवसाय से बड़े व्यवसाय में बदलती जा रही है कृषि और बगवानी उत्पादन बढ़ रहा है। जबकि कुल कृषि योग्य भूमि घट रही है। कृषि के विकास के लिए फसल, सब्जियां और फलो के भरपूर उत्पादन के अतिरिक्त दुसरे व्यवसायों से अच्छी आय भी जरुरी है।

मधुमक्खी पालन एक ऐसा ही व्यवसाय है जो मानव जाती को लाभान्वित कर रहा है यह एक कम खर्चीला घरेलु उद्योग है जिसमे आय, रोजगार व वातावरण शुद्ध रखने की क्षमता है यह एक ऐसा रोजगार है जिसे समाज के हर वर्ग के लोग अपना कर लाभान्वित हो सकते है। मधुमक्खी पालन कृषि व बागवानी उत्पादन बढ़ाने की क्षमता भी रखता है। मधुमक्खियां मोन समुदाय में रहने वाली कीटों वर्ग की जंगली जीव है इन्हें उनकी आदतों के अनुकूल कृत्रिम ग्रह (हईव) में पाल कर उनकी वृधि करने तथा शहद एवं मोम आदि प्राप्त करने को मधुमक्खी पालन या मौन पालन कहते है ।

शहद एवं मोम के अतिरिक्त अन्य पदार्थ, जैसे गोंद (प्रोपोलिस, रायल जेली, डंक-विष) भी प्राप्त होते है। साथ ही मधुमक्खियों से फूलों में परप्रगन होने के कारण फसलो की उपज में लगभग एक चैथाई अतिरिक्त बढ़ोतरी हो जाती है।

आज कल मधुमक्खी पालन ने कम लगत वाला कुटीर उद्योग का दर्जा ले लिया है। ग्रामीण भूमिहीन बेरोजगार किसानो के लिए आमदनी का एक साधन बन गया है मधुमक्खी पालन से जुड़े कार्य जैसे बढईगिरी, लोहारगीरी एवं शहद विपणन में भी रोजगार का अवसर मिलता है ।

मधुमक्खी परिवार : एक परिवार में एक रानी कई हजार कमेरी तथा 100-200 नर होते है ।

रानी : यह पूर्ण विकसित मादा होती है एवं परिवार की जननी होती है। रानी मधुमक्खी का कार्य अंडे देना है अछे पोषण वातावरण में एक इटैलियन जाती की रानी एक दिन में १५००-१८०० अंडे देती है। तथा देशी मक्खी करीब ७००-१००० अंडे देती है। इसकी उम्र औसतन २-३ वर्ष होती है।

कमेरी/श्रमिक : यह अपूर्ण मादा होती है और मौनगृह के सभी कार्य जैसे अण्डों बच्चों का पालन पोषण करना, फलों तथा पानी के स्त्रोतों का पता लगाना, पराग एवं रस एकत्र करना , परिवार तथा छतो की देखभाल, शत्रुओं से रक्षा करना इत्यादि इसकी उम्र लगभग २-३ महीने होती है।

नर मधुमक्खी / निखट्टू : यह रानी से छोटी एवं कमेरी से बड़ी होती है। रानी मधुमक्खी के साथ सम्भोग के सिवा यह कोई कार्य नही करती सम्भोग के तुरंत बाद इनकी मृत्यु हो जाती है और इनकी औसत आयु करीब ६० दिन की होती है।

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मधुमक्खियों की किस्मे : भारत में मुख्य रूप से मधुमक्खी की चार प्रजातियाँ पाई जाती है:

छोटी मधुमक्खी (एपिस फ्लोरिय), भैंरो या पहाड़ी मधुमक्खी ( एपिस डोरसाटा), देशी मधुमक्खी (एपिस सिराना इंडिका) तथा इटैलियन या यूरोपियन मधुमक्खी (एपिस मेलिफेरा)।

इनमे से एपिस सिराना इंडिका व एपिस मेलिफेरा जाती की मधुमक्खियों को आसानी से लकड़ी के बक्सों में पला जा सकत है। देशी मधुमक्खी प्रतिवर्ष औसतन ५-१० किलोग्राम शहद प्रति परिवार तथा इटैलियन मधुमक्खी ५० किलोग्राम तक शहद उत्पादन करती हैं।

मधुमक्खी पालन के लिए अवश्यक सामग्री : मौन पेटिका, मधु निष्कासन यंत्र, स्टैंड, छीलन छुरी, छत्ताधार, रानी रोक पट, हाईवे टूल (खुरपी), रानी रोक द्वार, नकाब, रानी कोष्ठ रक्षण यंत्र, दस्ताने, भोजन पात्र, धुआंकर और ब्रुश.

मधुमक्खी परिवार का उचित रखरखाव एवं प्रबंधन : मधुमक्खी परिवारों की सामान्य गतिविधियाँ १०० और ३८० सेंटीग्रेट की बीच में होती है उचित प्रबंध द्वारा प्रतिकूल परिस्तिथियों में इनका बचाव आवश्यक हैं। उतम रखरखाव से परिवार शक्तिशाली एवं क्रियाशील बनाये रखे जा सकते है। मधुमक्खी परिवार को विभिन्न प्रकार के रोगों एवं शत्रुओं का प्रकोप समय समय पर होता रहता है। जिनका निदान उचित प्रबंधन द्वारा किया जा सकता है इन स्तिथियों को ध्यान में रखते हुए निम्न प्रकार वार्षिक प्रबंधन करना चाहिये।

शरदऋतु में मधुवाटिका का प्रबंधन : शरद ऋतु में विशेष रूप से अधिक ठंढ पड़ती है जिससे तापमान कभी कभी १० या २० सेन्टीग्रेट से निचे तक चला जाता है। ऐसे में मौन वंशो को सर्दी से बचाना जरुरी हो जाता है। सर्दी से बचने के लिए मौनपालको को टाट की बोरी का दो तह बनाकर आंतरिक ढक्कन के निचे बिछा देना चाहिए। यह कार्य अक्टूबर में करना चाहिये। इससे मौन गृह का तापमान एक समान गर्म बना रहता है। यह संभव हो तो पोलीथिन से प्रवेश द्वार को छोड़कर पूरे बक्से को ढक देना चाहिए। या घास फूस या पुवाल का छापर टाट बना कर बक्सों को ढक देना चाहिए ।

इस समय मौन गृहों को ऐसे स्थान पर रखना चाहिये। जहाँ जमीं सुखी हो तथा दिन भर धुप रहती हो परिणामस्वरूप मधुमक्खियाँ अधिक समय तक कार्य करेगी अक्टूबर में यह देख लेना चाहिये। की रानी अच्छी हो तथा एक साल से अधिक पुरानी तो नही है यदि ऐसा है तो उस वंस को नई रानी दे देना चाहिये। जिससे शरद ऋतु में श्रमिको की आवश्यक बनी रहे जिससे मौन वंस कमजोर न हो ऐसे क्षेत्र जहाँ शीतलहर चलती हो तो इसके प्रारम्भ होने से पूर्व ही यह निश्चित कर लेना चाहिये। की मौन गृह में आवश्यक मात्रा में शहद और पराग है या नही ।

यदि शहद कम है नही है तो मौन वंशों को ५०रू५० के अनुपात में चीनी और पानी का घोल बनाकर उबालकर ठंडा होने के पश्चात मौन गृहों के अंदर रख देना चाहिये। जिससे मौनो को भोजन की कमी न हो । यदि मौन गृह पुराने हो गये हो या टूट गये हो तो उनकी मरम्मत अक्टूबर नवम्बर तक अवश्य करा लेना चाहिए। जिससे इनको सर्दियों से बचाया जा सके। इस समय मौन वंसो को फुल वाले स्थान पर रखना चाहिये। जिससे कम समय में अधिक से अधिक मकरंद और पराग एकत्र किया जा सके ज्यादा ठंढ होने पर मौन गृहों को नही खोलना चाहिए। क्योंकि ऐसा करने पर ठण्ड लगने से शिशु मक्खियों के मरने का डर रहता है। साथ ही श्रमिक मधुमक्खियाँ डंक मरने लगती है पर्वतीय क्षेत्रो में अधिक ऊंचाई वाले स्थानों पर गेहूं के भूंसे या धान के पुवाल से अच्छी तरह मौन गृह को ढक देना चाहिए।

बसंत ऋतु में मौन प्रबंधनरू : बसंत ऋतु मधुमक्खियों और मौन पालको के लिए सबसे अच्छी मानी जाती है। इस समय सभी स्थानों में प्रयाप्त मात्रा में पराग और मकरंद उपलब्ध रहते है जिससे मौनों की संख्या दुगनी बढ़ जाती है। परिणामस्वरूप शहद का उत्पादन भी बढ़ जाता है। इस समय देख रेख की आवश्यकता उतनी ही पड़ती है जितनी अन्य मौसमो में होती है शरद ऋतु समाप्त होने पर धीरे धीरे मौन गृह की पैकिंग ( टाट, पट्टी और पुरल के छापर इत्यादि) हटा देना चाहिए। मौन गृहों को खाली कर उनकी अच्छी तरह से खाली कर उनकी अच्छी तरह से सफाई कर लेना चाहिए। पेंदी पर लगे मौन को भलीभांति खुरच कर हट देना चाहिए संम्भव हो तो ५०० ग्राम का प्रयोग दरारों में करना चाहिए जिससे कि माईट को मारा जा सके। मौन गृहों पर बहार से सफेद पेंट लगा देना चाहिए। जिससे बहार से आने वाली गर्मी में मौन गृहों का तापमान कम रह सके ।

बसंत ऋतु प्रारम्भ में मौन वंशो को कृत्रिम भोजन देने से उनकी संख्या और क्षमता बढती है। जिससे अधिक से अधिक उत्पादन लिया जा सके। रानी यदि पुरानि हो गयी हो तो उसे मरकर अंडे वाला फ्रेम दे देना चाहिए। जिससे दुसरे वाला सृजन शुरू कर दे यदि मौन गृह में मौन की संख्या बढ़ गयी हों तो मोम लगा हुआ अतिरिक्त फ्रेम देना चाहिए। जिससे की मधुमक्खियाँ छत्ते बना सके यदि छत्तों में शहद भर गया हो तो मधु निष्कासन यंत्र से शहद को निकल लेना चाहिए। जिससे मधुमक्खियां अधिक क्षमता के साथ कार्य कर सके यदि नरो की संख्या बढ़ गयी हो तो नर प्रपंच लगा कर इनकी संख्या को नियंत्रित कर देना चाहिए।

ग्रीष्म ऋतु में मौन प्रबंधन : ग्रीष्म ऋतु में मौनो की देख भाल ज्यादा जरुरी होता है जिन क्षेत्रो में तापमान ४०० सेंटीग्रेट से उपर तक पहुचना है। वहां पर मौन गृहों को किसी छायादार स्थान पर रखना चाहिए। लेकिन सुबह की सूर्य की रौशनी मौन गृहों पर पदनी आवश्यक है जिससे मधुमक्खियाँ सुबह से ही सक्रीय होकर अपना कार्य करना प्रारम्भ कर सके इस समय कुछ स्थानों जहाँ पर बरसीम, सूर्यमुखी इत्यादि की खेती होती है। वहां पर मधुस्त्रव का समय भी हो सकता है। जिससे शहद उत्पदान किया जा सकता है । इस समय मधुमक्खियों को साफ और बहते हुए पानी की आवश्यकता होती है। इसलिए पानी को उचित व्यवस्था मधुवातिका के आस पास होना चाहिये मौनो को लू से बचने के लिए छ्प्पर का प्रयोग करना चाहिये जिससे गर्म हवा सीधे मौन गृहों के अंदर न घुस सके अतिरिक्त फ्रेम को बाहर निकल कर उचित भण्डारण करना चाहिये।

Honey

जिससे मोमी पतंगा के प्रकोप से बचाया जा सके मौन वाटिका में यदि छायादार स्थान न हो तो बक्से के उपर छप्पर या पुआल डालकर उसे सुबह शाम भिगोते रहना चाहिये। जिससे मौन गृह का तापमान कम बना रहे कृत्रिम भोजन के रूप में ५०रू५० के अनुपात में चीनी और पानी के उबल कर ठंडा होने अपर मौन गृह के अंदर कटोरी या फीडर में रखना चाहिये। मौन गृह के स्टैंड की कटोरियों में प्रतिदिन साफ और तजा पानी डालना चाहिए। यदि मौनो की संख्या ज्यादा बढ़ने लगे तो अतिरिक्त फ्रेम डालना चाहिए।

वर्षा ऋतु में मौन प्रबंधन: वर्षा ऋतु में तेज वर्षा, हवा और शत्रुओं जैसे चींटियाँ, मोमी पतंगा, पक्षियों का प्रकोप होता है मोमि पतंगों के प्रकोप को रोकने के लिए छतो को हटा दे फ्लोर बोड को साफ करे तथा गंधक पाउडर छिडके चीटो को रोकथाम के लिए स्टैंड को पानी भरा बर्तन में रखे तथा पानी में दो तिन बूंदें काले तेल की डाले मोमी पतंगों से प्रभावित छत्ते, पुराने काले छत्ते एवं फफूंद लगे छत्तों को निकल कर अलग कर देना चाहिए।

मधुमक्खी परिवारों का विभाजन एवं जोड़ना :

विभाजन: अच्छे मौसम में मधुमक्खियों की संख्या बढती है तो मधुमक्खी परिवारों का विभाजन करना चाहिये। ऐसा न किये जाने पर मक्खियाँ घर छोड़कर भाग सकती है। विभाजन के लिए मूल परिवार के पास दूसरा खाली बक्सा रखे तथा मूल मधुमक्खी परिवार से ५० प्रतिशत ब्रुड, शहद व पराग वाले फ्रेम रखे रानी वाला फ्रेम भी नये बक्से में रखे मूल बक्से में यदि रानी कोष्ठ हो तो अच्छा है अन्यथा कमेरी मक्खियाँ स्वयं रानी कोष्ठक बना लेगी तथा १६ दिन बाद रानी बन जाएगी। दोनों बक्सों को रोज एक फीट एक दुसरे से दूर करते जाये और नया बक्सा तैयार हो जायेगा।

जोड़ना: जब मधुमाखी परिवार कमजोर हो और रानी रहित हो तो ऐसे परिवार को दुसरे परिवार में जोड़ दिया जाता है। इसके लिए एक अखबार में छोटे छोटे छेद बनाकर रानी वाले परिवार के शिशु खण्ड के उपर रख लेते है। तथा मिलाने वाले परिवार के फ्रेम एक सुपर में लगाकर इसे रानी वाले परिवार के उपर रख दिया जाता है। अखबार के उपर थोडा शहद छिडक दिया जाता है जिससे १०-१२ घंटों में दोनों परिवारों की गंध आपस में मिल जाती है। बाद में सुपर और अखबार को हटाकर फ्रेमो को शिशु खण्ड में रखा जाता है।

मधुमक्खी परिवार स्थानान्तरण:

मधुमक्खी परिवार का स्थानान्तरण करते समय निम्न सुचनाए ध्यान रखें-

1- स्थानांतरण की जगह पहले से ही सुनिश्चित करें ।

2- स्थानांतरण की जगह दुरी पर हो तो मौन गृह में भोजन का प्रयाप्त व्यवस्था करें ।

3- प्रवेश द्वार पर लोहे की जाली लगा दें तथा छत्तों में अधिक शहद हो तो उसे निकल लें और बक्सो को बोरी से कील लगाकर सील कर दें।

4- बक्सों को गाड़ी में लम्बाई की दिशा में रखें तथा परिवहन में कम से कम झटके लें ताकि छत्ते में क्षति न पहुचे ।

5- गर्मी में स्थनान्तरण करते समय बक्सों के उपर पानी छिडकते रहे और यात्रा रत के समय ही करें।

6- नई जगह पर बक्सों को लगभग ८-१० फुट की दुरी पर तथा मुंह पूर्व -पश्चिम दिशा की तरफ रखें ।

7- पहले दिन बक्सों की निरिक्षण न करें दुसरे दिन धुंआ देने के बाद मक्खियाँ की जाँच करनी चाहिये तथा सफाई कर देनी चाहिए।

शहद व मोम निष्कासन व प्रसंस्करण: मधुमक्खी पालन का मुख्य उद्देश्य शहद एवं मोम उत्पादन करना होता है। बक्सों में स्थित छत्तों में ७५-८० प्रतिशत कोष्ठ मक्खियों द्वारा मोमी टोपी से बंद कर देने पर उनसे शहद निकाला जाए इन बंद कोष्ठों से निकाला गया शहद परिपक्व होता है। बिना मोमी टोपी के बंद कोष्ठों का शहद अपरिपक्व होता है जिनमे पानी की मात्रता अधिक होती है। मधु निष्कासन का कार्य साफ मौसम में दिन में छत्तों के चुनाव से आरम्भ करके शाम के समय शहद निष्कासन प्रक्रिया आरम्भ करना चाहिए। अन्यथा मखियाँ इस कार्य में बाधा उत्पन्न करती है।

शहद से भरे छत्तों को बक्से में रख कर ऐसे सभी बक्सों का कमरे या खेत में बड़ी मच्छरदानी के अंदर रखकर मधु निष्कासन करना चाहिए। अब छीलन चाकू को गर्म पानी में डुबोकर एवं कपडे से पोंछकर चाटते से मोम की टोपियाँ हटा देनी है। छत्ते को शहद निकलने वाली मशीन में रखकर यंत्र को घुमाकर कर बारी बारी से छत्तों को पलटकर दोनों ओर से शाहद निकला जाता है। इस शहद को मशीन से निकलकर टंकी में लगभग ४८ घंटे तक पड़ा रहने देते है। ऐसा करने पर शहद में मिले हवा के बुलबुले तथा मोम इत्यादि शहद की उपरी सतह पर तथा मैली वस्तुएं पेंदी पर बैठ जाती है। शहद को पतले कपडे से छानकर स्वच्छ एवं सुखी बोतलों में भरकर बेचा जा सकता है।

शहद प्रसंस्करण (घरेलु विधि): इस प्रकार निष्कासित शहद में अशुधियां जैसे पानी की अधिक मात्रा, पराग, मोम एवं कीट के कुछ बहग रह सकती है। इस अशुद्धियाँ हटाने के लिए शहद का प्रसंस्करण जरुरी होता है। इसके लिए बड़े गंज में पानी रखकर गर्म किया जाता है। तथा छोटे कपडे से छान शहद रखते है। शहद को चम्मच द्वारा हिलाते रहे ताकि सारा शहद एक समान गर्म हो जब शहद ६०० सेन्टीग्रेट तक गर्म हो जाए तब शहद वाले बर्तन पानी वाले बर्तन से अलग कर देते है।

इस गर्म किये गए शहद की बारीक छलनी द्वारा छानकर टोंटी लगे स्टील के ड्रम में भर देते है। जब शहद ठंडा हो जाये तो उसके उपर जमी मोम के पारत को करछी से हटा कर टोंटी द्वारा शहद को बोतलों में भरे लिया जाता है।

मोम का निष्कासन एवं प्रसंस्करण: पुराने छत्तों से मोम काटकर उबलते पानी में डाल कर पिघला लेते है। उपर तैरते हुए मोम को निकल लिया जाता है इस मोम को साफ करने हेतु २-३ बार शहद पानी में पिघलाकर ठंडा कर लेते है। प्रत्येक बार जमे हुए मोम की तलहटी पर लगी गन्दी चाकू से काटकर अलग करते रहना चाहिए।

मधुमक्खियों के भोजन स्त्रोतः

जनवरी : सरसों, तोरियाँ, कुसुम, चना, मटर, राजमा, अनार, अमरुद, कटहल, यूकेलिप्टस इत्यादि।

फरवरी : सरसों, तोरियाँ, कुसुम, चना ,मटर, राजमा, अनार, अमरुद, कटहल, यूकेलिप्टस, प्याज, धनिया, शीशम इत्यादि।

मार्च : कुसुम, सूर्यमुखी, अलसी, बरसीम, अरहर, मेथी, मटर, भिन्डी, धनियाँ, आंवला, निम्बू, जंगली जलेबी, शीशम, यूकेलिप्टस, नीम इत्यादि।

अप्रैल : सूरजमुखी, बरसीम, अरण्डी, रामतिल, भिन्डी, मिर्च, सेम, तरबूज, खरबूज, करेला, लोकी, जामुन, नीम, अमलतास इत्यादि।

मई: तिल, मक्का, सूरजमुखी, बरसीम,  तरबूज, खरबूज, खीरा, करेला, लोकी, इमली, कद्दू, करंज, अर्जुन, अमलतास इत्यादि।

जून : तिल, मक्का, सूरजमुखी, बरसीम,  तरबूज, खरबूज, खीरा, करेला, लोकी, इमली, कद्दू, बबुल, अर्जुन, अमलतास इत्यादि।

जुलाई : ज्वार, मक्का, बाजरा, करेला, खिरा, लोकी, भिन्डी, पपीता इत्यादि।

अगस्त: ज्वार, मक्का, सियाबिन, मुंग, धान, टमाटर, बबुल, आंवला, कचनार, खिरा, भिन्डी, पपीता इत्यादि।

सितम्बर: बाजारा, सनई, अरहर, सोयाबीन, मुंग, धान, रामतिल, टमाटर, बरबटी, भिन्डी, कचनार, बेर इत्यादि।

अक्टूबर: सनई, अरहर, धान, अरण्डी, रामतिल, यूकेलिप्टस, कचनार, बेर, बबूल इत्यादि।

नवम्बर : सरसों, तोरियां, मटर, अमरुद, शह्जन, बेर, यूकेलिप्टस, बोटलब्रश इत्यादि।

दिसम्बर; सरसों, तोरियाँ, राइ, चना, मटर, यूकेलिप्टस, अमरुद इत्यादि।

मधुमक्खियों की बिमारियों और उसकी शत्रु: मधुमक्खियों के सफल प्रबंधन के लिए यह आवश्यक है। की उनमे लगने वाली बिमारियों और उनके शत्रुओं के बारे में पूर्ण जानकारी होनी आवश्यक है। जिससे उनसे होने क्षति को बचाकर शहद उत्पादन और आय में आशातीत बढ़ोतरी की जा सकती है। मधुमक्खी एक सामाजिक प्राणी होने के कारण यह समूह में रहती है। जिससे इनमे बीमारी फैलने वाले सूक्ष्म जीवो का संक्रमण बहुत तेजी से होता है। इनके विषय में उचित जानकारी के माध्यम से इससे अपूर्णीय क्षति हो सकती है बिमारियों के अलावा इनके अनेकों शत्रु होते है जो सभी रूप से मौन वंशो को नुकसान पहुचाते है।

नाशीजीव :

यूरोपियन फाउलबु्रड : यह एक जीवाणु मैलिसोकोकस प्ल्युटान से होने वाला एक संक्रामक रोग है। इसका रंग गहरा होता है तथा इनसे प्रौढ़ मक्खी भी नही निकलती है। इस बीमारी की पहचान के लिए एक माचिस की तिल्ली को लेकर मरे हुए डिम्भक के शरीर में चुभोकर बहर की ओर खींचने पर एक धान्गनुमा संरचना बनती है। जिसके आधर पर इस बीमारी की पहचान की जा सकती है ।

रोकथाम : प्रभावित वंशो को मधु वाटिका से अलग कर देना चाहिए प्रभावित वंशों के फ्रेम और अन्य समान का संपर्क किसी दुसरे स्वस्थ वंश से नही होने देना चाहिए। प्रभावित मौन वंश को रानी विहीन कर देना चाहिये। तथा कुछ महीनो बाद रानी देना चाहिये। संक्रमित छत्तों का इस्तेमाल नही करना चाहिय। बल्कि उन्हें पिघलाकर मोम बना देना चाहिए संक्रमित वंशो को टेरामईसिन की २४० मि.लि.ग्रा. मात्रा प्रति ५ लिटर चीनी के घोल के साथ ओक्सीटेट्रासईक्लिन ३..२५ मि.ग्रा. प्रति गैलन के हिसाब से देना चाहिये।

अमेरिकन फाउलबु्रड : यह भी एक जीवाणु बैसिलस लारवी के द्वारा होने वाला एक संक्रामक रोग है। जो यूरोपियन फाउलवूड के समान होता है यह बीमारी कोष्ठक बंद होने के पहले ही लगती है जिसे कोष्ठक बंद ही नही होते यदि बंद भी हो जाते है तो उनके ढक्कन में छिद्र देखे जा सकते है। इसके अंदर मर हुआ डीम्भक भी देखा जा सकता है। जिससे सडी हुई मछली जैसी दुर्गन्ध आती है इनका आक्रमण गर्मियों में या उसके बाद होता है।

रोकथाम : प्रभावित वंशो को मधु वाटिका से अलग कर देना चाहिए प्रभावित वंशों के फ्रेम और अन्य समान का संपर्क किसी दुसरे स्वस्थ वंश से नही होने देना चाहिए। प्रभावित मौन वंश को रानी विहीन कर देना चाहिये। तथा कुछ महीनो बाद रानी देना चाहिये। संक्रमित छत्तों का इस्तेमाल नही करना चाहिय। बल्कि उन्हें पिघलाकर मोम बना देना चाहिए संक्रमित वंशो को टेरामईसिन की २४० मि.लि.ग्रा. मात्रा प्रति ५ लिटर चीनी के घोल के साथ ओक्सीटेट्रासईक्लिन ३..२५ मि.ग्रा. प्रति गैलन के हिसाब से देना चाहिये।

नोसेमा रोग : यह एक प्रोटोजवा नोसेमा एपिस से होता है इस बीमारी से मधुमक्खियो की पहचान व्यवस्था बिगड़ जाती है। रोगग्रसित मधुमक्खियाँ पराग की अपेक्षा केवल मकरंद ही एकत्र करना पसंद करती है। ग्रसित रानी नर सदस्य ही पैदा करती है तथा कुछ समय बाद मर भी सकती है। जब मधुमक्खियों में पेचिस, थकान, रेंगने तथा बाहर समूह बनाने जैसे लक्षण दिखे तो इस रोग का प्रकोप समझना चाहिए।

रोकथाम : फ्युमिजिलिन-बी का ०-५ से ३ मि.ग्रा. मात्रा प्रति १०० मि.लि. घोल के साथ मिला कर देना चाहिए। वाईसईकलो हेक्साईल अमोनियम प्युमिजिल भी प्रभावकारी औषध है।

सैकब्रूड : यह रोग भारतीय मौन प्रजातियों में बहुतायात में पाया जाता है। यह एक विषाणु जनित रोग है जो संक्रमण से फैलता है। संक्रमित वंशों के कोष्ठको में डिम्भक खुले अवस्था में ही मर जाते ह।ै या बंद कोष्ठको में दो छिद्र बने होते है इससे ग्रसित डिम्भको का रंग हल्का पिला होता है अंत में इसमें थैलिनुमा आकृति बन जाती है।

रोकथाम : एक बार इस बिमरी का संक्रमण होने के बाद इसकी रोकथाम बहुत कठिन हो जाती है। इसका कोई कारगर उपोय नही है संक्रमण होने पर प्रभावित वंशों को मधु वाटिका से हटा देना चाहिए। तथा संक्रमित वंशो में प्रयुक्त औजारो या मौन्ग्रिः का कोई भी भाग दुसरे वंशो तक नही ले जाने देना चाहिए। वंशो को कुछ समय रानी विहीन कर देना चाहिए। टेरामईसिन की २५० मि. ग्रा. मात्रा प्रति ४ लिटर चीनी के घोल में मिलकर खिलाया जाये तो रोग का नियंत्रण हो जाता है। गंभीर रूप से प्रभावित वंशो को नष्ट कर देना चाहिए।

एकेराईन : यह आठ पैरो वाला बहुत ही छोटा जीव है जो कई तरह से मधुमक्खियों को नुकसान पहुंचता है। इस रोग में श्रमिक मधुमक्खियाँ मौन गृह के बहर एकत्रित होती है। इनके पंख कमजोर हो जाते है जिससे ये उड़ नही पाती है या उड़ते उड़ते गिर जाती है। और दोबारा नही उड़ पाती है इसका प्रकोप होने पर संक्रमित वंशों को अलग कर गंधक का धुंआ देना चाहिए। गंधक की २०० मि. ग्रा. मात्रा प्रति फ्रेम के हिसाब से बुरकाव करना चाहिए। डिमाईट या क्लोरोबेन्जिलेट जो क्रमशः पीके और फल्बेकस के नाम से बाजार में आता है को धुंए के रूप में देना चाहिए।

यह अष्टपादी जीव कछुए के आकार का होता है। जो मधुमक्खी के वाह्य परजीवी के रूप में नुकसान पहुचता है प्रौढ़ मादा अष्टपानी ५ दिन पुराने मौन लारवा वाले खण्ड में २ से ४ अंडे देती है जिनमे  एक या दो दिन बाद कोष्ठक बंद हो जाते है। इसके ठीक बाद माईट के अन्डो से निम्फ निकलते है। और मधुमक्खी के लारवा पर भोजन लेकर उसे कमजोर बना देते है या अपांग बनाकर उसे मार देते है। इस अष्टपादी का ज्यादा प्रकोप होने पर नए श्रमिक बनने बंद हो जाते है। जिससे मौन वंश कमजोर हो जाते है जिससे कुछ समय बाद पूरा वंश समाप्त हो जाता है।

रोकथाम : प्रायः ऐसा देखने में आता है की मौनपालक जाने अनजाने मौनो को बचने के लिए जहरीले रसायनों का प्रयोग करते है जिससे काफी मात्रा में मौन मर जाती है। परिणामस्वरुप मौन पलकों को लाभ के बजे नुकसान उठाना पड़ता है इनके प्रबंध के लिए निम्नलिखित उपाय करनी चाहिए ऐसे मौन गृह से फ्रेम की संख्या कम कर देना चाहिए। साथी ही मौन गृह में मधुमक्खियों की संख्या बढ़ाने के उपाय करना चाहिए नर कोष्ठक वाले फ्रेम को बाहर निकाल देना चाहिए। तथा उसमे उपस्थित सभी नर शिशुओं को मार देना चाहिए। तथा दोबारा इस फ्रेम को मौन परिवार में नहीं देना चाहिए। सल्फर का ५ ग्राम पाउडर प्रति वंश के हिसाब से एक सप्ताह के अंतर पर बुरकाव करना चाहिए। फार्मिक एसिड की एक मि.लि. मात्रा एक छोटी प्लास्टिक की शीशी में डाल कर उसके ढक्कन में एक बारीक सुराख बनाकर प्रत्येक मौन गृह में रख देना चाहिए। साथ ही मौन गृह में भोजन की उपलब्धता सुनिश्चित करना चाहिए।

ट्रोपीलेइलेप्स क्लेरी : यह माईट जंगली मधुमक्खी या सारंग मौन का मुख्या रूप से परजीवी है इसका प्रकोप इटैलियन प्रजाति में भी होता है। प्रभावित वंश में प्युपा की अवस्था में बंद कोष्ठक में छिद्र देखे जा सकते है। कुछ प्यूपा मर जाते है जिनको साफ कर दिया जाता है जिससे कोष्ठक खाली हो जाते है। तथा जो डिम्भक बच जाते है उनका विकास विकृत हो जाता है। जैसे पंख, पैर या उदर का अपूर्ण विकास होना इसका लक्षण माना जाता है।

रोकथाम : एकेराईन बीमारी की तरह ही इसकी रोकथाम की जाती है।

वरोआ माईट : सर्वप्रथम यह माईट भारतीय मौन में ही प्रकाश में आई थी लेकिन अब यह मेलिफेरा में भी देखी जाती है। इसका आकार १.२ से १.६ मि.मी. है यह बाह्यपरजीवी है जो वक्ष और उदर के बिच से मौन का रक्त चुसती है मादा माईट कोष्ठक बंद होने से पहले ही इसमें घुसकर २ से ५ अंडे देती है जिससे 24 घंटे में शिशु लारवा निकलता है तथा ४८ घंटे में यह प्रोटोनिम्फ में बदल जाता है ।

नियंत्रण : फार्मिक एसिड की ५ मि.लि. प्रतिदिन तलपट में लगाने से इसका नियंत्रण हो जाता है। अन्य उपाय इकेरमाईट के तरह ही करनी चाहिए।

मोमी पतंगा : यह पतंगा मधुमक्खी वंश का बहुत बड़ा शत्रु है यह छतो की मोम को अनियमित आकार का सुरंग बनाकर खाता रहता है अंदर ही अंदर छत्ता खोखला हो जाता है। जिससे मधुमक्खियाँ छत्ता छोड़कर भाग जाती है इनके द्वारा सुरंगों के उपर टेढ़ी मेढ़ी मकड़ी के जाल जैसे संरचना देखी जा सकती है। इनके प्रकोप की आशंका होने पर छतो को 5 मिनट के लिए तेज धुप में रख देना चाहिये। जिससे इनके उपस्थित मोमी पतंगा की सुंडियां बाहर आकार धुप में मर जाती है। इस प्रकार इसके प्रकोप का आसानी से पता चल जाता है साथ ही सुडिया नष्ट हो जाती है ।

रोकथाम : इसका प्रकोप वर्ष के दिनों में जब मधुमक्खियो की संख्या कम हो जाती है जब होता हैं। जब मौन ग्रगो में आवश्कता से अधिक फ्रेम होते है तो इसके प्रकोप की संभावना बढ़ जाती है। इसलिए अतिरिक्त फ्रेम को मौन गृहों से बहार उचित स्थान पर भंडारित करना चाहिए वर्ष में प्रवेश द्वार संकरा कर देना चाहिए। मौन गृह में प्रवेश द्वार के अलावा अन्य दरारों को अबंद कर देना चाहिए। कमजोर वंशो को शक्तिशाली वंशो के साथ मिला देना चाहिए।

शहद पतंगा यह बड़े आकार का पतंगा होता है। जिसका वैज्ञानिक नाम एकेरोंशिया स्टीवस है यह मौन गृहों में घुस कर शहद खाता है अधिकतर मधुमक्खियां इस पतंगे को मार देती है इस कीट से ज्यादा नुकसान नहीं होता है।

चींटियाँ : इनका प्रकोप गर्मी और वर्ष ऋतु में अधिक होता है जब वंश कमजोर हो तो इनका नुकसान बढ़ जाता है। इनसे बचाव के लिए स्टैंड के कटोरियों में पानी भरकर उसमे कुछ बूंद किरोसिन आयल भी डाल देनी चाहिए। जिससे चींटियो को मौन गृहों पर चढ़ने से बचाया जा सके।

अधिक जानकारी के लिए संपर्क करें-

डा. देवेन्द्र कुमार राणा
विशेषज्ञ (पादप सुरक्षा)
कृषि विज्ञानं केंद्र
(राष्ट्रीय बागवानी अनुसन्धान एवं विकास प्रतिष्ठान)
उजवा, नई दिल्ली - ११००७३
दूरभाष रू ०११-६५६३८१९९

English Summary: Beekeeping techniques complete information ...
Published on: 14 November 2017, 03:25 IST

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