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जून में बुवाई: जूट की खेती करने का तरीका, संकर किस्में, बीजोपचार और फसल प्रबंधन

जूट पूर्वी भारत की सबसे महत्वपूर्ण नकदी फसलों में से एक है.यह गर्म और आर्द्र जलवायु की फसल है और इसे माल के रूप में और कच्चे फाइबर के रूप में निर्यात किया जाता है. यह फसल मुख्य रूप से पश्चिम बंगाल, असम, उत्तरी बिहार, दक्षिण-पूर्वी उड़ीसा, त्रिपुरा और पूर्वी उत्तर प्रदेश में उगाई जाती है. जूट को सही मायने में भारत की दूसरी महत्वपूर्ण फाइबर फसल कहा जाता है.जूट के रेशे से ब्रिग बैग्स कनवास टिवस्ट एवं यार्न के अलावा कम्बल दरी कालीन ब्रुश एवं रस्सियां आदि तैयार की जाती हैं.जूट के डंठल से चारकोल एवं गन पाउडर बनाया जाता है.

मनीशा शर्मा
Jute Cultivation
Jute Cultivation

जूट पूर्वी भारत की सबसे महत्वपूर्ण नकदी फसलों में से एक है.यह गर्म और आर्द्र जलवायु की फसल है और इसे माल के रूप में और कच्चे फाइबर के रूप में निर्यात किया जाता है. जूट की फसल मुख्य रूप से पश्चिम बंगाल, असम, उत्तरी बिहार, दक्षिण-पूर्वी उड़ीसा, त्रिपुरा और पूर्वी उत्तर प्रदेश में उगाई जाती है. जूट को सही मायने में भारत की दूसरी महत्वपूर्ण फाइबर फसल कहा जाता है.जूट के रेशे से ब्रिग बैग्स कनवास टिवस्ट एवं यार्न के अलावा कम्बल दरी कालीन ब्रुश एवं रस्सियां आदि तैयार की जाती हैं.जूट के डंठल से चारकोल एवं गन पाउडर बनाया जाता है.

जूट की भारी मांग क्यों है? (Why is there a huge demand for jute?)

कपास के बाद जूट की मांग आती है.क्योंकि इसके फाइबर के सस्तेपन, कोमलता, मजबूती, लंबाई, चमक और एकरूपता के कारण जूट की बाजारों में काफी मांग है.

जूट की खेती और जूट के प्रसंस्करण के लिए सर्वोत्तम महीने

निम्न भूमियों पर फ़रवरी से मार्च तक तथा उच्च भूमि पर मार्च से जून तक जूट की बुवाई की जाती है. जो फ़सल सबसे पहले बोई जाती है, उसी को पहले काटा जाता है. वैसे सभी प्रकार की फ़सल के लिए कटाई अगस्त से सितम्बर तक की जाती है.

जूट की खेती कैसे की जाती है?

जूट की खेती के लिए सही जलवायु, उचित भूमि, मिट्टी, श्रम, सही कृषि तकनीकों की आवश्यकता होती है.

कैसे करें खेत की तैयारी (How to prepare the farm)

भूमि का चुनाव

ऐसी भूमि जो समतल हो जिसमें पानी का निकास अच्छा हो साथ की साथ पानी रोकने की पर्याप्त क्षमता वाली दोमट तथा मटियार दोमट भूमि इसकी खेती के लिए अधिक उपयुक्त रहती है.

भूमि की तैयारी

मिट्टी पलटने वाले हल से एक जुताई तथा बाद में 2-3 जुताइयां देशी हल या कल्टीवेटर से करके पाटा लगाकर भूमि को भुरभुरा बनाकर खेत बुवाई के लिए तैयार किया जाता है. चूंकि जूट का बीज बहुत छोटा होता है इसलिए मिट्टी का भुरभुरा होना आवश्यक है ताकि बीज का जमाव अच्छा हो.भूमि में उपयुक्त नमी जमाव के लिए अच्छी समझी जाती है.

जूट की संकर किस्में (Hybrid varieties of jute)

कैप्सुलरिस-

इसको सफेद जूट या कहीं-कहीं ककिया बम्बई भी कहते हैं. इसकी पत्तियां स्वाद में कडुवी होती हैं. इसकी बुवाई फरवरी से मार्च में की जाती है. भूमि के आधार पर निम्न प्रजातियों की संस्तुति की गयी है.

जे.आर.सी.-321

यह शीघ्र पकने वाली  प्रजाति है. जल्दी वर्षा होने तथा निचली भूमि के लिए सर्वोत्तम पाई गई है. जूट के बाद लेट पैडी (अगहनी घान) की खेती की जा सकती है. इसकी बुवाई फरवरी-मार्च में करके जुलाई में इसकी कटाई की जा सकती है.

जे.आर.सी.-212

मध्य एवं उच्च भूमि में देर से बोई जाने वाली जगहों के लिए उपयुक्त है. बुवाई मार्च से अप्रैल में करके जुलाई के अन्त तक कटाई की जा सकती है.

यू.पी.सी.-94 (रेशमा)

निचली भूमि के लिए उपयुक्त बुवाई फरवरी के तीसरे सप्ताह से मध्य मार्च तक की जाए 120 से 140 दिन में कटाई योग्य हो जाती है.

जे.आर.सी.-698

निचली भूमि के लिए उपयुक्त इस प्रजाति की बुवाई मार्च के अन्त में की जा सकती है. इसके पश्चात् धान की रोपाई की जा सकती है.

अंकित (एन.डी.सी.)

निचली भूमि के लिए उपयुक्त इस प्रजाति की बुवाई 15 फरवरी से 15 मार्च तक की जा सकती है.

एन.डी.सी.9102

ओलीटोरियस-

इसको देव या टोसा जूट भी कहते हैं. इसकी पत्तियां स्वाद में मीठी होती हैं. इसका रेशा केपसुलेरिस से अच्छा होता है. उच्च भूमि हेतु अधिक उपयुक्त हैं. इसकी बुवाई अप्रैल के अन्त से मई तक की जाती है.

जे.आर..- 632

यह देर से बुवाई और ऊची भूमि के लिए उपयुक्त है. अधिक पैदावार के साथ-साथ उत्तम किस्म को रेशा पैदा होता है.इसकी बुवाई अप्रैल से मई के अन्तिम सप्ताह तक की जा सकती है.

जे.आर..-878

यह प्रजाति सभी भूमियों के लिए उपयुक्त है.बुवाई मध्य मार्च से मई तक की जाती है. यह समय से पहले फूल आने हेतु अवरोधी है.

जे.आर..-7835

इस जाति में 878 के सभी गुण विद्यमान हैं.इसके अतिरिक्त अधिक उर्वरा शक्ति ग्रहण करने के कारण अच्छी पैदावार होती है.

जे.आर..-524 (नवीन)

उपरहार एवं मध्य भूमि के लिए उपयुक्त बुवाई मार्च तृतीय सप्ताह से अप्रैल तक की जाये.120 से 140 दिन में कटाई योग्य हो जाती है.

जे.आर..-66

यह प्रजाति मई जून में बुवाई करके 100 दिन में अच्छी उपज प्राप्त की जा सकती है.

जूट की राज्यवार किस्में (State wise varieties of jute)

1. असम

AAUOJ-1 (तरुण), JBO-2003H (इरा), JRO-204 (Suren),  S-19 (सुबाला), JRO-8432 (शक्ति), CO-58 (सौरव), JBO-1 (सुधांशु) JRC-698, JRC-80, JBC-5 (अर्पिता), RRPS-27-C-3 (मोनालिसा)

2. बिहार

JBO-2003H (इरा), JRO-204 (Suren), S-19 (सुबाला), JRO-8432 (शक्ति), JRO-128 (Surya), JRO-66 (गोल्डन जुबली टोसा), CO-58 (सौरव) , JBO-1 (सुधांशु), JRC-698, JBC-5 (अर्पिता), RRPS-27-C-3 (मोनालिसा)

3. मेघालय

JRO-204 (Suren), S-19 (Subala), JRO-8432 (शक्ति), CO-58 (सौरव), JBO-1 (सुधांशु), JBC-5 (अर्पिता)

4. नागालैंड

AAUOJ-1 (तरुण), JBO-2003H (इरा), JRO-204 (Suren), S-19 (सुबाला), JRO-8432 (शक्ति), CO-58 (सौरव), JBO-1 (सुधांशु), JBC -5 (अर्पिता)

5. उड़ीसा

JBO-2003H (इरा), JRO-204 (Suren), S-19 (सुबाला), JRO-8432 (शक्ति), JRO-128 (Surya), JRO-66 (गोल्डन जुबली टोसा), CO-58 (सौरव) , JBO-1 (सुधांशु), JBC-5 (अर्पिता), RRPS-27-C-3 (मोनालिसा)

6. त्रिपुरा

AAUOJ-1 (तरुण), JBO-2003H (इरा), JRO-204 (Suren), S-19 (सुबाला), JRO-8432 (शक्ति), CO-58 (सौरव), JBO-1 (सुधांशु), JBC -5 (अर्पिता)

7. उत्तर प्रदेश

JBO-2003H (इरा), JRO-204 (Suren), S-19 (सुबाला), JRO-8432 (शक्ति), JRO-128 (Surya), JRO-66 (गोल्डन जुबली टोसा), JRC-80, CO- 58 (सौरव), JBO-1 (सुधांशु), JBC-5 (अर्पिता), NDC 2008 (अंकित)

8. पश्चिम बंगाल

JBO-2003H (इरा), JRO-204 (Suren), S-19 (सुबाला), JRO-8432 (शक्ति), JRO-128 (Surya), JRO-66 (गोल्डन जुबली टोसा), JRC-80, JRC- 698, CO-58 (सौरव), JBO-1 (सुधांशु), JBC-5 (अर्पिता), RRPS-27-C-3 (मोनालिसा)

बीज दर (Seed rate)

सीड ड्रिल से पंक्तियों में बुवाई करने पर कैपसुलेरिस प्रजातियों के लिए 4-5 किग्रा० तथा ओलिटेरियस के लिए 3-5 किग्रा० बीज प्रति हे० पर्याप्त होता है. छिड़कवां बोने पर 5-6 किग्रा० बीज की आवश्यकता होती है.

बीज शोधन (Seed treatment)

बुवाई से पहले बीज को थीरम 3 ग्राम अथवा कार्बेन्डाजिम 50 डब्लू.पी. 2ग्राम प्रति किलो बीज से शोधित करके बोना चाहिए.

बुवाई की विधि (Method of sowing)

बुवाई हल के पीछे करनी चाहिए. लाइनों से लाइनों की  दूरी 30 से.मी. तथा पौधे से पौधे की दूरी 7-8 से.मी. एवं गहराई 2-3 से.मी. से अधिक नहीं होनी चाहिए. मल्टीरो जूट सीड ड्रिल के प्रयोग से 4 लाइनों की बुवाई एक बार में हो जाती है और एक व्यक्ति एक दिन में एक एकड़ की बुवाई कर सकता है.

उर्वरक (Fertilizers)

उर्वरक का प्रयोग मृदा परीक्षण के आधार पर किया जाए अथवा कैपसुलेरिस किस्मों के लिए 60:30:30 और ओलीटोरियस के लिए 40:20:20 किग्रा. नत्रजन फास्फोरस एवं पोटाश प्रति हे. की दर से बुवाई से पूर्व देना चाहिए. यदि बुवाई के 15 दिन पूर्व 100 कु. कम्पोस्ट प्रति हे.डाल दी जाए तो पैदावार अच्छी होती है. आवश्यकतानुसार सिंचाई की जानी चाहिए.

खरपतवार नियंत्रण (Weed Control)

बुवाई के 20-25 दिन बाद खरपतवार निराई करके निकाल देना चाहिए और विरलीकरण करके पौधे से पौधे की दूरी 6-8 से.मी. कर देना चाहिए. खरपतवार का नियंत्रण खरपतवार नाशी रसायनों से भी किया जा सकता है.पौध उगने से पूर्व पेन्डीमेथिलीन ई०सी० 3.3 लीटर अथवा फ्लूक्लोरोलिन 1.50 से 2.50 किग्रा०/हेक्टेर 700 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करने के बाद जुताई करके मिट्टी में मिला देने से खरपतवार नहीं उगते हैं. खड़ी फसल में खरपतवार नियंत्रण हेतु 30-35 दिन के अन्दर क्यूनालफास इथाइल 5 प्रतिशत की एक लीटर प्रति हे० की दर से छिड़काव करना प्रभावी होता है.

फसल सुरक्षा (Crop Protection)

जूट की फसल प्रायः दो बीमारियों जड़ तथा तना सड़न  से प्रभावित होती है तथा इन बीमारियों से कभी-कभी फसल पूर्णतः नष्ट हो जाती है. इससे बचाव के लिए बीज को शोधित करके ही बोना चाहिए. इन बीमारियों से बचाव के लिये ट्राइकोडर्मा विरिडी 5 ग्राम प्रति किलो० बीज की दर तथा 2.5 किलो० प्रति हे० 50 किग्रा० गोबर की सड़ी खाद में मिलाकर प्रयोग करना चाहिए.

जूट फसल पर सेमीलूपर एपियन स्टेम बीविल कीटों का प्रकोप होता है. इन कीटों के रोकथाम हेतु 1.5 लीटर डाइकोफाल को 700-800 लीटर पानी में घोलकर फसल की 40-45 60-65 तथा 100-105 दिन की अवस्थाओं पर छिड़काव किया जा सकता है. इन कीटों के नियंत्रण के लिए नीम उत्पादित रसायन एजादीरेक्सीन 0.03 प्रतिशत के 1.5 लीटर की दर से घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए.

कटाई (Cutting)

उत्तम रेशा प्राप्त करने हेतु 100 से 120 दिन की फसल हो जाने पर कटाई की जा सकती है. जल्दी कटाई करने पर प्रायः रेशे की उपज कम प्राप्त होती है. लेकिन देर से काटी जाने वाली फसल की अपेक्षा रेशा अच्छा होता है. छोटे तथा पतले व्यास वाले पौधों को छांटकर अलग-अलग छोटे-छोटे बंडलों में (15-20 से०मी०) बांधकर दो तीन दिन तक खेत में पत्तियों के गिरने हेतु छोड़ देना चाहिए.

पौधों का सड़ाना (Rotting of plants)

कटे हुए पौधों के बन्डलों को पहले खड़ी दशा में 2-3 दिन पानी में रखने के बाद एक दो पंक्ति में लगाकर तालाब या हल्के बहते हुए पानी में 10 से०मी० गहराई तक जाकर बनाकर डुबोने के पूर्व पानी वाले खरपतवार से ढककर किसी वजनी पत्थर के टुकड़े से दबा देना चाहिए. साथ ही इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि बन्डल तालाब की निचली सतह से न छूने पाये. सामान्य स्थिति होने पर 15-20 दिन में पौधा सड़कर रेश निकालने योग्य हो जाता है. बैक्टीरियल कल्चर के प्रयोग से सड़ान में 4 प्रतिशत समय की बचत के साथ-साथ रेशे की गुणवत्ता बढ़ जाती है.

रेशा निकालना एवं सुखाना प्रत्येक सड़े हुए पौधों के रेशों को अलग-अलग निकालकर हल्के बहते हुए साफ पानी में अच्छी तरह धोकर किसी तार बांस इत्यादि पर सामानान्तर लटकाकर कड़ी धूप में 3-4 दिन तक सुखा लेना चाहिए. सुखाने की अवधि में रेशे को उलटते-पलटते रहना चाहिए.सघन पद्धतियों को अपनाकर 25-35 प्रति हे० रेशे की उपज प्राप्त की जा सकती है.

भारत की शीर्ष जूट कंपनियां (Top jute companies in India)

-लवसन निर्यात

-जयकिशन दास मॉल जूट उत्पाद (पी) लिमिटेड

-इको जूट प्राइवेट लिमिटेड

-बूम बाइंग प्राइवेट लिमिटेड

-आनंद जूट इंडस्ट्रीज

और अधिक जानकारी के लिए आप http://www.crijaf.org.in/home.asp पर विजिट कर सकते हैं.

English Summary: Sowing in June: Method of Jute Cultivation, Hybrid Varieties, Seed Treatment and Crop Management Published on: 22 May 2020, 04:49 PM IST

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