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Jute Farming: जूट की उन्नत खेती करने का तरीका

अगर आप खेती करने की सोच रहे हैं तो ऐसे में आप जूट की उन्नत खेती कर अच्छा मुनाफा कमा सकते हैं क्योंकि वर्तमान समय में इसकी खेती काफी ज्यादा लोकप्रिय हो रही है...

हेमन्त वर्मा
Jute
Jute Farming

जूट एक रेशेदार पौधा है जिसका तना पतला और बेलनाकार होता है. इस नकदी फसल के रेशे से बोरे, दरी, टाट, रस्सियाँ, कागज और कपड़े बनाये जाते हैं. जूट की खेती भारत के पश्चिम बंगाल, बिहार, उड़ीसा, असम, त्रिपुरा, मेघालय और उत्तर प्रदेश के कुछ तराई वाले भागों में की जाती है. इसके रेशे की एक गांठ 180 किलो की होती है.

जूट खेती के लिए जलवायु (Climate for Jute Farming)

जूट की खेती हेतु गर्म और नम जलवायु के साथ 24 से 35 डिग्री सेंटीग्रेड तापक्रम उपयुक्त रहता है, जहां 100-200 सेमी वर्षा होती हो.   

मिट्टी का चुनाव (Selection of Soil)

जूट की खेती के लिए समतल भूमि के साथ दोमट तथा मटियार दोमट मिट्टी जो पानी रोकने की पर्याप्त क्षमता रखती हो, अधिक उपयुक्त रहती है.

उन्नत किस्में (Improved varieties)

जूट की दो प्रकार की किस्में होती हैं. पहली कैपसुलेरिस और दूसरी ओलीटोरियस प्रकार की.

1. कैपसुलेरिस

इसे सफेद जूट भी कहते हैं. इसकी पत्तियां स्वाद में कडुवी होती हैं. इसकी बुवाई फरवरी से मार्च में की जाती है.

जे०आर०सी०-321: यह शीघ्र पकने वाली किस्म है, जो जल्दी वर्षा होने तथा निचली भूमि के लिए सर्वोत्तम है. इसकी बुवाई फरवरी-मार्च में तथा जुलाई में कटाई की जाती है.

जे०आर०सी०-212: मध्य एवं उच्च भूमि में देर से बोई जाने वाली जगहों के लिए उपयुक्त है. बुवाई मार्च से अप्रैल में करके जुलाई के अन्त तक कटाई की जाती है.

यू०पी०सी०-94 (रेशमा): निचली भूमि के लिए उपयुक्त यह किस्म बुवाई फरवरी के तीसरे सप्ताह से मध्य मार्च तक की जाती है.

जे०आर०सी०-698: बुवाई मार्च के अन्त में की जाने वाली यह किस्म निचली भूमि के लिए उपयुक्त है.

अंकित (एन०डी०सी०): निचली भूमि के लिए उपयुक्त इस प्रजाति को 15 फरवरी से 15 मार्च तक बुवाई कर सकते हैं.

एन०डी०सी०.9102: पूर्वी उत्तर प्रदेश के लिए इस किस्म की सिफारिस की जाती है.

2. ओलीटोरियस

इसकी पत्तियां स्वाद में मीठी होती हैं और इसे देव या टोसा जूट भी कहते है. इसका रेशा केपसुलेरिस से अच्छा होता है. उच्च भूमि के लिए उपयुक्त इस किस्म की बुवाई अप्रैल के अन्त से मई तक की जाती है.

जे०आर०ओ०- 632: यह देर से बुवाई और ऊची भूमि के लिए सही मानी जाती है. बुवाई अप्रैल से मई के अन्तिम सप्ताह तक की जाती है.

जे०आर०ओ०-878: यह प्रजाति लगभग सभी मिट्टियों के लिए उपयुक्त है. बुवाई मध्य मार्च से मई तक की जाती है. समय से पहले फूल आने हेतु यह किस्म अवरोधी है.

जे०आर०ओ०-7835: यह किस्म अधिक उर्वरा शक्ति ग्रहण करने के कारण अच्छी पैदावार देती है.

जे०आर०ओ०-524 (नवीन): इसकी बुवाई मार्च तृतीय सप्ताह से अप्रैल तक की जाये तो 120 से 140 दिन में कटाई योग्य हो जाती है.

जे०आर०ओ०-66: यह प्रजाति 100 दिन में अच्छी उपज दे देती है. मई जून में बुवाई होती है.

बुवाई विधि (Sowing method)

एक जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से तथा बाद में 2-3 जुताइयां देशी हल या कल्टीवेटर से करके पाटा लगाकर खेत को भुरभुरा बना देना चाहिए. जूट का बीज बहुत छोटा होता है इसलिए मिट्टी का भुरभुरा होना आवश्यक है. बुवाई हल द्वारा लाइनों से लाइनों का दूरी 30 सेमी॰ तथा पौधे से पौधे की दूरी 7-8 सेमी॰ एवं गहराई 2-3 सेमी॰ करनी चाहिए. सीड ड्रिल से पंक्तियों में बुवाई करने पर कैपसुलेरिस क़िस्मों के लिए 4-5 किग्रा० तथा ओलिटेरियस प्रकार की जुट के लिए 3-5 किलो बीज प्रति हेक्टेयर पर्याप्त रहता है. छिड़कवां विधि से बोने पर 5-6 किलो बीज की आवश्यकता होती है.

पौध संरक्षण (Plant protection)

जड़ तथा तना सड़न रोग: जूट की फसल इस रोग से ग्रसित हो सकती है, जिससे कभी-कभी फसल पूर्णतः नष्ट हो जाती है. इससे बचाव के लिए बीज को उपचरित करके ही बोना चाहिए. बीज उपचार के लिए कार्बेण्डजीम 12%+ मेंकोजेब 63% डबल्यूपी दवा की 2.5 ग्राम मात्रा प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करना चाहिए. जैविक उपचार के लिए ट्राइकोडर्मा विरिडी 10 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपचारित तथा अन्तिम जुटाई के समय 1 किलो ट्राइकोडरमा विरिडी को 25 किलो गोबर की सड़ी खाद में मिलाकर प्रयोग करना चाहिए.

जूट फसल पर सेमीलूपर कीटों का प्रकोप होता है. इन कीटों के रोकथाम हेतु 600 मिली डाइकोफाल 18.5% ईसी को 200 लीटर पानी में मिलकर प्रति एकड़ फसल में छिड़काव करना चाहिए.

खाद एवं उर्वरक प्रबंधन (Manure & Fertilizer management)

उर्वरक का प्रयोग मिट्टी परीक्षण के आधार पर किया जाना चाहिए किन्तु नहीं कराने पर कैपसुलेरिस प्रकार की किस्मों के लिए 60:30:30 नत्रजन फास्फोरस एवं पोटाश देना चाहिए. दूसरी तरफ ओलीटोरियस प्रकार की किस्मों के लिए 40:20:20 किग्रा० नत्रजन फास्फोरस एवं पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से बुवाई से पूर्व फसल को देना चाहिए. यदि बुवाई के 15-20 दिन पहले एक टन गोबर की सड़ी खाद या कम्पोस्ट प्रति हेक्टेयर की दर से डाल दी जाए तो पैदावार अच्छी होती है.

सिंचाई प्रबन्धन (Irrigation management)

कूंड विधि से बुवाई करने पर 30 प्रतिशत जल की बचत होती है. बुवाई के साथ सिंचाई करना आवश्यक है तथा उसके बाद आवश्यकता अनुसार 15-20 दिन बाद सिंचाई करते रहना चाहिए. सिंचाई के 4-5 दिन बाद नेट वीडर का उपयोग खेत में करना चाहिए अधिक समय तक खेत में पानी भरा होना फसल के लिए हानिकारक है अतः उचित जल निकास प्रबंधन करना चाहिए.

खरपतवार प्रबंधन (Weed management)

खरपतवार निराई खेत में बुवाई के 20-25 दिन बाद करनी चाहिए. अतिरिक्त सघन पौधे हटाकर पौधे से पौधे की दूरी 6-8 सेमी कर देना चाहिए. खरपतवार का नियंत्रण खरपतवार नाशी रसायनों से भी किया जा सकता है. पौध उगने से पहले पेन्डीमेथिलीन 30% ईसी ई०सी० 1 लीटर अथवा फ्लूक्लोरोलिन 600 से 800 ग्राम प्रति एकड़ 200 लीटर पानी के साथ घोलकर छिड़काव कर देना चाहिए. खड़ी फसल में खरपतवार नियंत्रण हेतु 30-35 दिन के अन्दर क्यूनालफास इथाइल 5% 400 मिली प्रति एकड़ की दर से छिड़काव करना प्रभावी होता है.

कटाई और पौधों को गलाना (Harvesting and smelting of plants)

100 से 120 दिन की फसल हो जाने पर उत्तम रेशा प्राप्त करने के लिए कटाई की जाती है. जल्दी कटाई करने पर प्रायः रेशे की उपज कम प्राप्त होती है. लेकिन देर से काटी जाने वाली फसल में रेशा अच्छा होता है. छोटे तथा पतले पौधों को छांटकर अलग-अलग छोटे-छोटे बंडलों में बांधकर दो तीन दिन तक खेत में पत्तियों के गिरने हेतु छोड़ दिया जाता है.

कटे हुए पौधों के बन्डलों को 2-3 दिन पानी में 10 सेमी॰ गहराई तक रखना चाहिए. उसके बाद किसी वजनी पत्थर के टुकड़े से दबा देना चाहिए. साथ ही इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि बन्डल तालाब की निचली सतह से न छूने पाये. सामान्य स्थिति होने पर 15-20 दिन में रेश निकलने शुरू हो जाते है.

रेशा निकालना एवं सुखाना (Fibre removal and drying)

प्रत्येक पौधों के रेशों को अलग-अलग निकालकर हल्के बहते हुए साफ पानी में अच्छी तरह धोकर किसी तार, बांस इत्यादि पर लटकाकर कड़ी धूप में 3-4 दिन तक सुखा दिया जाता है. सुखाने की अवधि में रेशे को उलटते-पलटते रहना चाहिए. सघन विधि द्वारा रेशे की उपज प्राप्त की जा सकती है.

सम्पर्क सूत्र (For contact)

बीज प्राप्ति और अधिक जानकारी के लिए भारत सरकार द्वारा किसानों के लिए स्थापित केन्द्रीय पटसन एवं समवर्गीय रेशा अनुसंधान संस्थान, बैरकपुर, पश्चिम बंगाल से या संस्थान की वेबसाइट https://crijaf.icar.gov.in/ पर सम्पर्क किया जा सकता है.

संस्थान के अधिकारी द्वारा भी जानकारी प्राप्त की जा सकती है- 91-33-25356124, 91-33-25353781, 91-33-25353776, 91-33-25353786

English Summary: Jute farming: method of advanced jute farming Published on: 09 November 2020, 04:19 PM IST

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