बात पुरानी है, मेरे बचपन की, जब बेर के पेड़ों पर चुड़ैल और पीपल पर भूत रहा करते थे. तमाम कहानियां थीं,जो अक्सर दादी और नानी सुनाया करती थीं. वो दौर था चिट्ठी का, टेलीफोन का, संचार क्रांति और इंटरनेट से अछूता एक दौर. दसवीं की बोर्ड परीक्षा देकर मैं गांव आया था. दादी जी और दादा जी को इंतजार रहता था गर्मी की छुट्टियों का. उतनी ही खुशी हमें भी होती थी गांव पहुंचने की.
माखन रोटी से दिन की शुरुआत,देसी घी की खुशबू से महकती रसोई और जामुन के बगीचे में पेड़ों पर चढ़ना,मीठे आम और जामुन का जायका लेना. वो दौर था जब गर्मियों में बिजली की पर्याप्त आपूर्ति नही थी. सभी लोग ज्यादातर समय बगीचों में बिताते थे. हमारी भी गांव में एक पूरी मित्र मंडली हुआ करती थी,जो गांव पहुंचने के साथ ही साथ हो जाया करती थी. सुबह कुएं से पानी निकालकर दिव्य स्नान के साथ ही दिन की धमाचौकड़ी शुरू हो जाती. दस बजते बजते दादी घर के भीतर आने को आवाज लगाती. दादा जी दालान में रेडियो सुनने में व्यस्त हुए इधर हम सभी दोस्त फुर्सत में. दोपहर में पेड़ों की सबसे ऊंची डालों पर ठिकाना बनाना और फल खाना दुनिया भर की मस्ती. दादी बाहर निकलते ही दूर से चिल्लाती,गिर जाबे रे पपीयवा.. रुक तोहरे बापे से कहब..उतर नीचे.
उतरना भी पड़ता था क्योंकि प्यास लग जाती थी. नीचे उतरते ही,दादी के हाथ का दही से बना शर्बत. सच पूछिए तो उस दौर का सुख आज अकल्पनीय है. 4 बजते-बजते गाय के खाने का वक़्त होते होते सूर्य क्रमशः अस्ताचलगामी हो जाता था. ताप कम होते ही हम सभी दोस्त घूमने निकल पड़ते थे. सुदूर गांव के दूसरे छोर पर खेतों की ओर,दूर दूर तक सिर्फ खेत.बीच मे एक दो पम्पिंग सेट और मचान या छोटे घर.
शहर में रहने के कारण निर्जनता कुछ ज्यादा ही रोचक लगती थी. उस दिन भी कुछ ऐसा ही था फर्क इतना सा था कि साथ मित्र मंडली नहीं थी. गांव में शादी थी तो सिनेमा आने वाला था इसलिए सारे लड़के उधर चले गए थे. मेरे साथ सिर्फ मयंक था,वो भी बाहर ही रहता था.
हम दोनों निकल पड़े,मस्ती में बढ़े जा रहे थे. सूर्य अस्त हो गया था हवाओं में ठंडक बढ़ने लगी थी. दूर से सियारों की आवाज आने लगी थी. हालांकि अभी उजाला था,पर ऐसा जो सिर्फ कुछ पलों में अंधेरे में बदल जाता. हम दोनों गांव से लगभग 5 किमी दूर निकल आये थे. उस आखिरी बबूल तक,जहां दादी जाने से मना करती थी. बाकी लड़के भी उस ओर जाने से कतराते थे. आज मौका था इसलिए हम दोनों ने ये दूरी तय कर ली. इस वजह से शाम अपने अंतिम पलों में पहुंच गयी. बबूल तक पहुंचने पर होश आया समय ज्यादा हो गया. दादी डांटेंगी, ये सोचकर वापस मुड़े और तेज कदमों से वापस लौटने लगे. अभी मुश्किल से,100 मीटर आगे बढ़े थे कि पीछे से आवाज आयी.
कउन है रे?
हमने सुना,पर अनसुना कर दिया क्योंकि हमें लगा हो सकता है किसी और से बात हो रही हो. बोलने वाला स्वर स्त्री था साफ महसूस हुआ.
हम आगे बढ़ते रहे,फिर वही आवाज.तो हमने सोचा देखना होगा,कोई हमे ही कह रहा है. हम मुड़े तो देखा, सुखमनिया खड़ी थी.बिल्कुल साफ-सुथरे कपड़ों में कुछ अलग सी. वो हमारे खेतों की देखरेख करने वाले उमेश काका की बेटी थी.यही पास में हमारे खेत थे, जहां रहकर ये लोग खेतों की रखवाली करते थे.
दिमाग मे ये ख्याल आया तो,लगा वो मुझे पहचान नही रही. मैंने कहा हम हई रे..पल्लव..चिन्हली की नाही.अभी मैं कुछ और कहता कि उससे पहले ही वो बोल पड़ी.
ईहा काहे आ गइल,एहर मत आवल कर.
आगे बढ़ते हुए उसके ये शब्द कानों में पड़े तो गुस्सा आया. इसकी इतनी हिम्मत,पीछे मुड़े तो देखा दूर-दूर तक कोई नहीं. आवाज भी दी पर कहीं से कोई जवाब नही. मुझे लगा वो डरकर छुप गयी, वैसे भी घर पहुंचने की जल्दबाजी थी तो तेज कदम से चलते हुए घर आये। घर आते ही दादा जी ने खूब डांटा, डांट से बचने के लिए दादी को आवाज दी भूख लगी है.
दादी बोली हाथ धोव,खाना तैयार हो आव.
जल्दबाजी में हाथ धोकर मैं और मयंक सीधे दादी के पास पहुंचे. खाना खाया, उठते हुए दादी से कहा दादी उ सुखमनिया हमको कौन है रे बोली? दादी ने हैरानी से पूछा.
दादी: कौन सुखमनिया?
मैं: अरे उमेश काका का बिटिया.
दादी:उ त मर ग.....
तू कहा गयल रहल,दादी ने बात अधूरी रखकर सवाल किया.
जवाब में मैंने बताया,बबूल वाले खेत की तरफ लेकिन दादी उ हमसे ऐसे बात क्यों की?
दादी:सहमते हुए बोली,उ न होई रे तो के भ्रम हो गयल बा.
मैं:नहीं दादी वही थी,हमारे सामने खड़ी थी.
दादी: लेकिन उ त मर गइल बा,का कुछो कहलेस तोसे?
हा कही थी इधर मत आना.
दादी:अब कभी ओहर मत जाय बचवा. शीतला माई रक्षा कइलीं तोहार. कहकर दादी ने गले लगा वो रो रही थी. ये सुनकर मुझे पहली बार डर लगा.
मेरे साथ गया मयंक सुनकर बुरी तरह डर गया. दादा जी उसे घर छोड़कर आये. वो पूरी रात बुखार में रहा, बाद में पागल हो गया. वो अब गांव पे ही रहता है. कोई भी नजर आए,तो सिर्फ यही पूछता है कउन है रे?
जमाना बिल्कुल बदल चुका है. ये बातें फ़िजूल हैं सभी के लिए फिर भी उस रात जो मैंने देखा महसूस किया कभी नही भूल सकता.ये बातें अभी लिख रहा हूँ तो रोंगटे खड़े हैं. सुखमनी और मयंक, दोनों के चेहरे नजर आ जाते हैं. भूत हैं या नहीं बड़ा विमर्श है? क्या रहस्य है, कोई नहीं जानता? पर मैंने जो देखा वो भूल नहीं सकता...