ग्वारपाठा सम्पूर्ण भारतवर्ष में प्राकृतिक रूप से मिलता है तथा अनेक नाम से जाना जाता है जैसे घृतकुमारी, एलोवेरा, इंडियन एलो, कुवांर पाठ इत्याधी . इसके पोधे बहुवर्षीय तथा 2-3 फुट ऊँचे होते है . इसके मूल के ऊपर कांड से पत्ते निकलते है . इसके पत्ते हरे, मांसल, भालाकार 1.5-2.0 फीट तक लम्बे व 3-5 इंच चोडे एवं सूक्ष्म कांटों युक्त होते हैं . पत्तों के अंदर घृत के समान चमकदार गूदा होता है. यह एक औषधीय पौधा है जिसका उपयोग विभिन्न रोगों जैसे गठिया, मांसपेशियों की समस्या, मधुमेंह, त्वचा विकार, उच्च रक्त दाब, दमा, केंसर, अल्सर, पाचन क्रिया दोष, कब्ज आधी में किया जाता है . कम वर्षा क्षेत्र ग्वारपाठा की खेती के लिए सर्वथा अनुकूल है . अनेक औषधीयों में प्रयुक्त होने के कारण वर्तमान में ग्वारपाठा की मांग काफी बढ़ रही है. इसकी मांसल पत्तियों से प्राप्त जैल व सूखे पाउडर की मांग विश्वस्तर पर बनी रहती है .
ग्वारपाठा की खेती :
ग्वारपाठे की फसल कंदों के द्वारा उगाई जाती है. इसका पोध रोपण मुख्यत: वर्षाकाल में जुलाई-अगस्त माह में किया जाता है. ग्वारपाठा की खेती के लिए चयनित खेत की 2-3 बार हल द्वारा जुताई करके अंतिम जुताई के बाद पाटा लगा देना चाहिए. इसकी खेती के लिए मुख्यत: खाद एवं उर्वरक की आवश्यकता नहीं होती है. बहुवर्षीय पौधा होने की वजह से पोध रोपाई के पूर्व में 10-15 टन सड़ी गोबर की खाद खेत में डालना लाभप्रद माना जाता है. पौधों को क्रमबद्ध तरीके से लाइनों में लगाना चाहिए . लाइन से लाइन एवं पोधे से पोधे के बीच की दूरी क्रमश: 2 X 2, 2.5 X 2.5 एवं 3 X 3 फीट रखनी चाहिए . इस प्रकार एक हेक्टेयर में लगभग क्रमश: 28000, 18000 एवं 12000 तक पौधों की आवश्यकता होती है .
सिंचाई एवं निराई-गुड़ाई : साधारणतया ग्वारपाठा की खेती के लिए सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है परन्तु गर्मियों में कभी-कभी हल्की सिंचाई करना लाभदायक होता है . पत्तियों की कटाई के एक माह पूर्व फसल में सिंचाई करने से अधिक जैल प्राप्त होता है . प्रत्येक माह के अन्तराल पर खेत की निराई-गुड़ाई करके अवांछित पौधों को निकालते रहना चाहिए . फसक के जमने के पश्चात इसकी जड़ों से कंद निकलना शुरू हो जाते हैं, जो खेत में लगातार पौधों की संख्या बडाते हैं . खेत में तादाद से ज्यादा पोधे होने पर इसके उत्पाधन पर प्रतिकूल असर पड़ता है अत: प्रत्येक छ: माह पश्चात जड़ों से निकले कंदों को हटाते रहना चाहिए, जिससे पौधों की वांछित संख्या खेत में बनी रहे .
फसल की कटाई एवं भंडारण : पोधे लगाने के एक वर्ष पश्चात प्रत्येक चार माह में पोधे की 3-4 पत्तियों को छोड़कर शेष सभी पत्तियों को तेज धारदार हंसिये से काट लेना चाहिए . ग्वारपाठे की ताजी कटी हुई पत्तियों को छाया में रखना चाहिए. कटी हुई पत्तियों को ज्यादा दिनों तक भण्डारित नहीं किया जा सकता अत: कटाई के पश्चात 2-3 दिन के भीतर इनमें से जैल को निकाल लेना चाहिए. जैल निकालने के पश्चात इसमें उपयुक्त प्ररेजरवेटिव डालकर एक से दो साल तक सुरक्षित रखा जा सकता है .
उपज : इस प्रकार की कृषि क्रिया से वर्ष भर में प्रति हेक्टर लगभग 250 क्विंटल तजा पत्तियाँ प्राप्त होती है . इसके अतिरिक्त लगभग 25000 कंद प्राप्त होते है, जिनको रोपाई के काम में लाया जा सकता है .
आय विवरण : प्रथम वर्ष का शुद्ध लाभ 39500 रूपये (प्राप्ति 75000 – लागत 35500) प्राप्त इसके उपरांत ग्वारपाठा की ताजा पत्तियाँ लगातार 5 वर्षो तक प्रत्येक 3-4 महीने के अन्तराल पर काटी जा सकती है . इस खेती का प्रमुख लाभ यह है कि फसल के एक बार जमने के पश्चात हर वर्ष खेत की तैयारी, रोपण सामग्री व बुवाई की आवश्यकता नहीं होती है तथा आगे के वर्षो में कंदों को हटाना व पत्तियों की कटाई की लागत मात्र 10000 रूपये प्रति हैक्टर आती है . अत: प्रति वर्ष प्रति हैक्टर लगभग 65000 रूपये का लाभ प्राप्त किया जा सकता है .
क्र.सं. |
विवरण |
खर्चा (रूपये) |
क्र.सं. |
विवरण |
प्राप्ति (रूपये) |
1. |
खेत की तेयारी एवं गोबर खाद |
6000 |
1. |
ताजा पत्तियाँ (250 क्विंटल x 2.00 दर) |
50000 |
2. |
रोपण सामग्री (18000 पोधे X 1.00 रूपये प्रति पोध) |
18000 |
2. |
रोपण कंदों से आय |
25000 |
3. |
बुवाई, सिंचाई, निराई-गुड़ाई, कटाई व अन्य खर्च |
11500 |
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कुल लागत |
35500 |
कुल प्राप्ति |
75000 |
स्त्रोत: एस.क.एन. कृषि महाविद्यालय, जोबनेर
ग्वारपाठा की खेती के लाभ :
इसकी खेती के लिए खाद, कीटनाशक आदि की आवश्यकता नहीं होती है अत: लागत कम आती है एवं मुनाफा ज्यादा होता है .
यह फसल वर्षो पर्यंत आमदनी देती है .
जानवर इसको नहीं खाता अत: इसकी रखवाली की आवश्यकता नहीं होती है .
इसके ड्राईपाउडर व जैल की विश्व बाजार में व्यापक मांग होने के कारण इससे विदेशी मुद्रा अर्जित की जा सकती है .
इस पर आधारित एलुआ बनाने व सुखा पाउडर बनाने वाले उधोगों की स्थापना की जा सकती है .
यह एक हल्की मिट्ठी व कम वर्षा क्षेत्रों की उपयुक्त फसल है जो मृदा क्षरण को रोकने में भी सहायता प्रधान करती है .
औषधीय महत्व :
एलोवेरा एंटी-इनफ्लामेंट्री और एंटी-एलर्जिक है तथा बिना किसी साइड-इफेक्ट के सूजन एवं दर्द को मिठाता है व एलर्जी से उत्पन्न रोगों को दूर करता है .
यह पेठ के हाजमें के लिए लाभदायक है. एलोवेरा के नियमित सेवन से पेठ में उत्पन्न विभिन्न प्रकार के रोगों को दूर किया जा सकता है, जैसाकि गैस का बनना, पेठ का दर्द आदि .
यह शरीर में सूक्ष्म कीटाणु, बैक्टीरिया, वायरस एवं कवक जनित रोगों से लड़ने में एंटीबायोटिक के रूप में काम करता है .
एलोवेरा जख्मों को भरने में अत्यंत लाभदायक है . मधुमेंह के रोगियों के जख्म भरने में भी कारगर सिद्ध हुआ है .
यह हृदय के कार्य करने की क्षमता को बढ़ाता है एवं उसे मजबूती प्रधान करता है तथा शरीर में ताकत एवं स्फूर्ति लाता है .
यह शरीर में यकृत एवं गुर्दा के कार्यो को सुचारू रूप से संचालित करने में मदद करता है एवं शरीर से टॉक्सिक पदार्थों को बाहर निकालता है . इसमें उपस्थित एंजाइम, कार्बोहाइड्रेट, वसा एवं प्रोटीन को पेट एवं आँतों में शोषण करने की क्षमता को बढाते हैं .
एलोवेरा जैल प्राकृतिक रूप से त्वचा को नमी पहुँचाती है एवं उसे साफ़ करने के उपयोग में लायी जाता है .
यह एक्सिमा, चोट एवं जलन, कीड़े का काटा, मुहांसे, घमेंरिया, छालरोग इत्यादि में लाभदायक है .
एलोवेरा जैल, बालों में डेन्डरफ को दूर करने तथा बालों को झड़ने से रोकता है .