कलिहारी की खेती मुख्य तौर पर दवाईयों को बनाने के लिए की जाती है. इससे बनने वाले अधिकतर दवाई जोड़ों के दर्द, एंटीहेलमैथिक, ऐंटीपेट्रिओटिक आदि के उपचार में काम आते हैं. इसके इलावा पॉलीप्लोइडी के उपचार में भी इस पौधे का उपयोग किया जाता है. सरल शब्दों में कहा जाए तो कलिहारी एक तरह की जड़ी-बूटी ही है, जो किसी बेल की तरह बढ़ती है. चलिए आपको इसकी खेती के बारे में बताते हैं.
फल-फूल
इस पौधे की औसतन ऊंचाई की बात करें तो ये 3.5-6 मीटर तक ऊंचे हो सकते हैं. इसके पत्ते बिना डंठलों के 8 इंच तक लम्बे हो सकते हैं. इसके फूलों का रंग हरा होता है, जिसे आसानी से पहचाना जा सकता है और फलों की लम्बाई 2 इंच तक होती है.
मिट्टी
इसकी खेती मुख्य तौर दोमट रेतली मिट्टी पर आसानी से हो सकती है. भारत में इसकी खेती तमिलनाडु और कर्नाटक के क्षेत्रों में होती है. मिट्टी का पीएच मान 5.5 -7 तक होना चाहिए, ध्यान रहे कि सख्त मिट्टी में इसके लिए लाभकारी नहीं है.
खेत की तैयारी
कलिहारी को बिजाई के लिए जोताई कर सबसे पहले खेतों को भुरभुरा और समतल बनाना जरूरी है. पानी को जमा होने से रोकने के लिए जल निकासी की व्यवस्था करें.
बिजाई का समय और तरीका
इसकी बिजाई के लिए मध्य जून से अगस्त तक का समय उपयुक्त है. पनीरी वाले पौधों में 60x45 सेंटीमीटरकी दूरी रखनी जरूरी है. बीजों की आपसी दूरी 6-8 सेंटीमीटर तक होनी चाहिए.
सिंचाई
इस फसल को बहुत अधिक पानी की जरूरत नहीं होती है, हालांकि बढ़िया फसल के लिए थोड़े-थोड़े समय बाद सिंचाई करना लाभदायक है. शुरु में साप्ताहिक सिंचाई और फल पकने के समय दो बार सिंचाई करनी चाहिए.
कटाई
कटाई का काम बिजाई के लगभग 6 महीने बाद शुरू कर देना चाहिए. इसके फलों के गहरे हरे रंग के होने पर तुड़ाई का काम करना चाहिए. गांठों की कटाई बिजाई के लगभग 6 साल के बाद करनी चाहिए.
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