बरसात के दिनों में पशुओं में संक्रमित बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है क्योंकि मौसम में नमी बढ़ जाती है तथा जीवाणुओं को पनपने के लिए उपयुक्त वातावरण मिल जाता है. जीवाणु जनित रोगों में लंगड़ा बुखार (ब्लैक क्वार्टर) प्रमुखता से बरसात के दिनों में पशुओं को प्रभावित करता है. साधारण भाषा में इस रोग को जहरबाद, फडसूजन, काला बाय, कृष्णजंधा, लंगड़िया, एकटंगा आदि नामों से भी जाना जाता है. यह रोग प्रायः सभी स्थानों पर पाया जाता है लेकिन नमी वाले क्षेत्रों में व्यापक रूप से फैलता है. यह मुख्यतः गौवंश में अधिक होता है. भैंसों, बकरियों, भेड़ों तथा घोड़ों में भी यह रोग होता है. 6 माह से 3 वर्ष की आयु वाले पशु जो शारीरिक रुप से स्वस्थ होते हैं, उनमें यह अधिक होता है.
रोग कारक - यह रोग क्लोस्टरीडियम चौवई नामक जीवाणु से होता है. यह जीवाणु बीजाणुओं का निर्माण करता है. जो प्रतिकूल परिस्थितियों को सहन करते हुए कई सालों तक मिट्टी में जीवित रह सकते है.
संक्रमण - यह रोग मिट्टी द्वारा फैलता है. इस रोग के जीवाणु मिट्टी में संक्रमित पशुओं के मल द्वारा या उसकी मृत्यु होने पर उसके शव द्वारा पहुँचते हैं. जीवाणु दूषित चारागाह में चरने से आहार के साथ स्वस्थ पशु के शरीर में प्रवेश कर जाता है. इसके अलावा शरीर पर मौजूद घाव के ज़रिये भी इसका संक्रमण होता है. भेड़ों में ऊन कतरने, बधिया करने तथा अन्य शल्य चिकित्सा के कार्यों के दौरान भी संक्रमण हो सकता है.
लक्षण -
• इस रोग में पशु को तेज बुखार आता है तथा उसका तापमान 106°F से 107°F तक पहुंच जाता है.
• पशु सुस्त होकर खाना पीना छोड देता है.
• पशु के पिछली व अगली टांगों के ऊपरी भाग में भारी सूजन आ जाती है, जिससे पशु लंगड़ा कर चलने लगता है या फिर बैठ जाता है.
• सूजन वाले स्थान को दबाने पर कड़-कड़ की आवाज़ आती है.
• यह रोग प्रायः पिछले पैरों को अधिक प्रभावित करता है एवं सूजन घुटने से ऊपर वाले हिस्से में होती है.
• यह सूजन शुरू में गरम एवं कष्टदायक होती है जो बाद में ठण्ड एवं दर्दरहित हो जाती है.
• यदि सूजन की जगह पर चीरा लगाया जाये तो काले रंग का झागदार रक्त निकलता है.
• पैरों के अतिरिक्त सूजन पीठ, कंधे तथा अन्य मांसपेशियों वाले हिस्से पर भी हो सकती है.
• सूजन के ऊपर वाली चमडी सूखकर कडी होती जाती है.
• लक्षण प्रारम्भ होने के 1-2 दिन में रोगी पशु की मृत्यु हो सकती है.
उपचार- आमतौर पर उपचार अप्रभावी होता है जब तक कि बहुत जल्दी उपचार नहीं किया जाता. यदि पशुचिकित्सक समय पर उपचार शुरू कर भी देता है, तब भी इस जानलेवा रोग से बचाव की दर काफी कम है. सूजन को चीरा मारकर खोल देना चाहिये जिससे जीवाणु हवा के सम्पर्क में आते पर अप्रभावित हो जाता है. पेनिसिलिन, सल्फोनाम्येद, टेट्रासाइक्लीन ग्रुप के एंटिबायोटिबस का सपोर्टिव औषधि के साथ उपयोग, बीमारी की तीव्रता तथा पशु की स्थिति के अनुसार लाभकारी होता है. सूजन वाले भाग में चीरा लगाकर 2०/० हाइड्रोजन पेरोक्साहड से ड्रेसिंग जिया जाना लाभकारी होता है.
रोकथाम- बीमार पशुओं को स्वस्थ पशुओं से तुरंत अलग करे तथा फीड, चारा और पानी को बीमारी के जीवाणुओं के संक्रमण से बचाएँ. भेडों में ऊन कतरने से तीन माह पूर्व टीकाकरण करवा लेना चाहिये क्योंकि ऊन कतरने के समय घाव होने पर जीवाणु घाव से शरीर में प्रवेश कर जाता है जिससे रोग की संभावना बढ जाती है. जीवाणु के स्पोर्स को खत्म करने के लिए संक्रमित स्थानों पर पुआल के साथ मिट्टी की ऊपरी परत को जलाने से संक्रमण रोकने में मदद मिल सकती है. मरे हुए पशुओं को जमीन में कम से कम 5 से 6 फुट गहरा गड्डा खोदकर तथा चूना एवं नमक छिड़क कर गाड़ देना चाहिए.
टीकाकरण- 6 महीने और उससे अधिक उम्र के सभी पशुओं को वर्ष में एक बार वर्षा ऋतु शुरू होने से पहले (मई-जून महीने में) लंगड़ा बुखार का टीकाकरण करवाना चाहिए.
निष्कर्ष- भारत ने दुग्ध उत्पादन में बड़ी तेजी के साथ विश्व बाजार में अपनी एक पहचान बनाई है. अंतरराष्ट्रीय बाजार में आज भारत दुग्ध उत्पादन के मामले में शीर्ष पर है. जिस स्तर पर हम आज दूध उत्पादन कर रहे हैं यह हमारे लिए एक गर्व की बात है. इस लय को बरक़रार रखने के लिए हमें अपने दुधारू पशुओं को लंगड़ा बुखार जैसी बीमारियों से बचाना बहुत आवश्यक है, क्योंकि लंगड़ा बुखार जैसे बीमारियों की संक्रमण दर बहुत अधिक है जिससे यह बीमारियाँ बहुत जल्दी बीमार पशु से अन्य स्वस्थ पशुओ में फ़ैल सकती है और हमारे भारत देश कि दुग्ध उत्पादन क्षमता को हानि कर सकती है.
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