पशुपालकों को आर्थिक नुकसान पहुँचाने वाला व पशुओं के स्वास्थ्य को बहुत अधिक हानि पहुँचाने का एक महत्वपूर्ण रोग गलघोटू है. इसे धुरखा, घोटुआ, असडिया व डकहा आदि नामों से भी जाना जाता हैं. देशभर में हर वर्ष 40,000 से अधिक जानवर इस रोग के शिकार हो जाते हैं और उन में से अधिकांश की मृत्यु हो जाती है.
यह भैंसों में होने वाले प्रमुख रोगों में से एक है. यह रोग पाश्पास्चुरेला मल्टोसिडा नामक जीवाणु के कारण होता है. इस रोग के लिए उत्तरदायी जीवाणु प्रभावित पशु से स्वस्थ पशु में दूषित चारे, सवंमित लार अथवा श्वास द्वारा फैलता है. भैंस एवं गाय में यह रोग अधिक घातक होता है, किन्तु भेड़, बकरी ऊँट आदि में भी यह रोग देखा गया है. इस रोग से प्रभावित पशुओं में मृत्यु दर (80 प्रतिशत) से भी अधिक पाई गई है.
संक्रमण के दो से पाँच दिन तक जीवाणु सुषुप्त अवस्था में रहते हैं, परन्तु पाँच दिन के बाद पशु के शरीर का तापमान अचानक बढ़ जाता है और साथ ही रोग के अन्य लक्षण भी दिखाई देने लगते हैं. तीव्र रोग से ग्रसित पशुओं की मृत्यु हो जाती है व इसके इलाज पर भी बहुत अधिक पैसा खर्च हो जाता है. सामान्यता यह पाया गया है कि अन्य रोग जैसे मुह-खुर से प्रभावित पशुओं में यह रोग ज्यादा खतरनाक साबित होता हैं. यह रोग बरसात के मौसम में अधिक फैलता हैं. बरसात के मौसम में यह रोग महामारी का रूप ले सकता है.
लक्षणः
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रोग से प्रभावित पशु का उच्च बुखार 106-107 डिग्री फा. मिलता है.
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पशु खाना पीना छोड़ देता है.
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रोगी पशु को सांस लेने में कठिनाई होती है.
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सांस लेते समय घुर्र-घुर्र की आवाज आती है.
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रोगी पशु के नाक से स्त्राव, अश्रुपातन, मुख से लार एंव झूल के साथ-साथ गुदा के आस-पास सूजन मिलती है.
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रोग की घातकता कम होने पर पशु में निमोनिया, दस्त या पेचिस के लक्षण मिल सकते है.
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अति प्रभावित पशुओं में गर्दन के निचले हिस्से में व पशु की छाती में शेफ (ऐडिमा) की वजह से सूजन हो जाती है.
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कालान्तर में पशु धराशायी हो जाता है.
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गंभीर अवस्था में या समय पर उपयुक्त इलाज न मिलने से पशुओं में मृत्यु दर बढ़ जाती है.
चिकित्साः
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पशु में रोग के लक्षण दिखने पर तत्काल पशु चिकित्सक से सम्पर्क करें. रोग से ग्रसित पशु को या उसके सम्पर्क में रहने वाले स्वस्थ दिखने वाले पशुओं को लम्बे परिवहन पर न ले जाएं.
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4 मि.ली. युकेलिप्टस तेल, 4 मि.ली. मेन्था तेल, 4 ग्राम कपूर तथा 4 ग्राम नौसादर एवं 46 ग्राम कुटी सौंठ को 2 लीटर उबलते हुए पानी में डालकर पशु को भपारा दें. ऐसा दिन में दो बार करें. भाप देने के बाद पशु को सीधी हवा से बचाएं.
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30 ग्राम अमोनियम कार्बोनेट, 30 ग्राम खाने का सोड़ा, 10 ग्राम कपूर एवं 50 ग्राम कुटी सौंठ को एक कि.ग्रा. गुड़ के साथ पशु की जीभ पर चाटने के लिए लगाएँ.
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पशु को चरने के लिए नरम व पौष्टिक चारा दें. पीने का पानी भी हल्का गरम होना चाहिए.
रोकथाम
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चार से छह माह की आयु में गलघोटू से बचाव के लिए प्रथम टीकाकरण लगवाएं तथा बरसात के मौसम के प्रारंभ से एक माह पहले प्रत्येक वर्ष टीकाकरण लगवाए. जिन क्षेत्रों में गला घोटू स्थानिक बीमारी है उन क्षेत्रों में प्रत्येक छह महीने के बाद गला घोटू से बचाव के लिए टीकाकरण किया जाता है.
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इस बात का ध्यान रखें कि गला घोटू की महामारी के समय स्वस्थ पशुओं का टीकाकरण करवाने पर भी कुछ स्वस्थ पशुओं में यह रोग हो सकता हैं ऐसा इसलिए होता है क्योंकि इन पशुओं में जीवाणु पहले से ही ऊष्मायन अवधि में उपस्थित होता है.
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बीमार पशु को लक्षण देखते ही अन्य स्वस्थ पशुओं से अलग कर देना चाहिए तथा बीमार पशु के प्रयोग में आने वाले बर्तनों को स्वस्थ पशुओं के प्रयोग में न लाएं.
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महामारी के समय पशुओं को पानी पिलाने के लिए जोहड़ पर न ले जाए व घर पर ही पानी पिलाएं.
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लम्बे परिवहन से पशुओं को बचाएँ तथा परिवहन के समय पशुओं के लिए उचित आराम, चारे व पानी का प्रबंध करें.
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बाडे़ में सफाई की समुचित व्यवस्था रखें एवं बाड़े को 10% कास्टिक सोडा या 5% फिनाइल या 2 कापॅर सलफेट के घाले से विसक्रंमित करें.
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गलघोटू के कारण मरे हुए पशु के शव को भलीभाँति चूने या नमक के साथ छह फीट गहरे गडढ़े में विसर्जित करें.
लेखक: अमनदीप1 अनन्या2
1पशुधन उत्पादन एवं प्रबंधन विभाग, लाला लाजपतराय पशुचिकित्सा एवं पशुविज्ञान विश्वविद्यालय, हिसार, हरियाणा
2पशु मादा एवम् प्रसूति रोग विभाग चै स कु कृषि विवि, पालमपुर, हिमाचल प्रदेश