किसान खेती के साथ पशुपालन और उसका उपयोग प्राचीन काल से ही करते आ रहे है. पशुओं की उपयोगिता इसलिए भी महत्वपूर्ण है. क्योंकि, कृषि से जुड़े कई प्रमुख कार्यों में इनका इस्तेमाल किया जाता रहा है. इनके गोबर से बनी जैविक खाद, कृषि उपज को बढ़ावा देती है. इन पशुओं का प्रमुख स्रोत दूध, खाना तो है ही इसके साथ यह किसानों के लिए आय का प्रमुख साधन भी है. ऐसे में मौजूदा वक्त में कुछ किसान कृषि में ज्यादा लाभ न मिल पाने के वजह से पशुपालन की ओर अपना झुकाव दिखा रहे है.अगर आप भी पशुपालन करने के बारे में सोच रहें हैं, तो बकरी पालन (Goat rearing ) की शुरुआत कर सकते हैं . बकरी पालन में सबसे बड़ा फायदा यह है की इसके लिए बाजार स्थानीय स्तर पर उपलब्ध हो जाता है. जिससे बाजार की कोई समस्या नहीं रहती है .
भारतीय बकरियों की प्रमुख नस्लें (Major Breeds of Indian Goats )
ब्लैक बंगालः इस जाति की बकरियाँ पश्चिम बंगाल, झारखंड, असोम, उत्तरी उड़ीसा एवं बंगाल में पायी जाती है. इसके शरीर पर काला, भूरा तथा सफेद रंग का छोटा रोंआ पाया जाता है. अधिकांश (करीब 80 प्रतिशत) बकरियों में काला रोंआ होता है. यह छोटे कद की होती है वयस्क नर का वजन करीब 18-20 किलो ग्राम होता है जबकि मादा का वजन 15-18 किलो ग्राम होता है.
जमुनापारीः जमुनापारी भारत में पायी जाने वाली अन्य नस्लों की तुलना में सबसे उँची तथा लम्बी होती है. यह उत्तर प्रदेश के इटावा जिला एवं गंगा, यमुना तथा चम्बल नदियों से घिरे क्षेत्र में पायी जाती है. एंग्लोनुवियन बकरियों के विकास में जमुनापारी नस्ल का विशेष योगदान रहा है.
गद्दी: यह हिमांचल प्रदेश के काँगडा कुल्लू घाटी में पाई जाती है. यह पश्मीना आदि के लिए पाली जाती है कान 8.10 सेमी. लंबे होते हैं. सींग काफी नुकीले होते हैं. इसे ट्रांसपोर्ट के रूप में भी प्रयोग किया जाता है. प्रति ब्याँत में एक या दो बच्चे देती है.
बीटलः बीटल नस्ल की बकरियाँ मुख्य रूप से पंजाब प्रांत के गुरदासपुर जिला के बटाला अनुमंडल में पाया जाता है. पंजाब से लगे पाकिस्तान के क्षेत्रों में भी इस नस्ल की बकरियाँ उपलब्ध है. इसके भूरे रंग पर सफेद-सफेद धब्बा या काले रंग पर सफेद-सफेद धब्बा होता है.
बारबरीः बारबरी मुख्य रूप से मध्य एवं पश्चिमी अफ्रीका में पायी जाती है. इस नस्ल के नर तथा मादा को पादरियों के द्वारा भारत वर्ष में सर्वप्रथम लाया गया. अब यह उत्तर प्रदेश के आगरा, मथुरा एवं इससे लगे क्षेत्रों में काफी संख्या में उपलब्ध है.
सिरोहीः सिरोही नस्ल की बकरियाँ मुख्य रूप से राजस्थान के सिरोही जिला में पायी जाती है. यह गुजरात एवं राजस्थान के सीमावर्ती क्षेत्रों में भी उपलब्ध है. इस नस्ल की बकरियाँ दूध उत्पादन हेतु पाली जाती है लेकिन मांस उत्पादन के लिए भी यह उपयुक्त है. इसका शरीर गठीला एवं रंग सफेद, भूरा या सफेद एवं भूरा का मिश्रण लिये होता है. इसका नाक छोटा परन्तु उभरा रहता है. कान लम्बा होता है. पूंछ मुड़ा हुआ एवं पूंछ का बाल मोटा तथा खड़ा होता है. इसके शरीर का बाल मोटा एवं छोटा होता है. यह सलाना एक वियान में औसतन 1.5 बच्चे उत्पन्न करती है. इस नस्ल की बकरियों को बिना चराये भी पाला जा सकता है.
विदेशी बकरियों की प्रमुख नस्लें (Major breeds of foreign goats )
अल्पाइन - यह स्विटजरलैंड की है. यह मुख्य रूप से दूध उत्पादन के लिए उपयुक्त है. इस नस्ल की बकरियाँ अपने गृह क्षेत्रों में औसतन 3-4 किलो ग्राम दूध प्रतिदिन देती है.
एंग्लोनुवियन - यह प्रायः यूरोप के विभिन्न देशों में पायी जाती है. यह मांस तथा दूध दोनों के लिए उपयुक्त है. इसकी दूध उत्पादन क्षमता 2-3 किलो ग्राम प्रतिदिन है.
सानन - यह स्विटजरलैंड की बकरी है. इसकी दूध उत्पादन क्षमता अन्य सभी नस्लों से अधिक है. यह औसतन 3-4 किलो ग्राम दूध प्रतिदिन अपने गृह क्षेत्रों में देती है.
टोगेनवर्ग - टोगेनवर्ग भी स्विटजरलैंड की बकरी है. इसके नर तथा मादा में सींग नहीं होता है. यह औसतन 3 किलो ग्राम दूध प्रतिदिन देती है.
बकरियों पालन की प्रक्रिया (Goats rearing process)
बकरी पालन करने के लिए पशुपालक को अलग से किसी आश्रय स्थल की आश्यकता नहीं पड़ती है. उन्हें वो अपने घर पर ही आसानी से रख सकते हैं. बड़े पैमाने पर यदि बकरी पालन का कार्य किया जाएं, तब उसके लिए अलग से बाड़ा बनाने की जरुरत पड़ती है. यूपी के बुंदेलखंड क्षेत्र में ज्यादातर लोग खेती किसानी के साथ बकरी पालन का कार्य करते हैं. ऐसी स्थिति में ये बकरियां खेतों और जंगलों में घूम-फिर कर अपना भोजन आसानी से प्राप्त कर लेती है. अतः इनके लिए अलग से दाना-भूसा आदि की व्यवस्था बहुत कम मात्रा में करनी पड़ती है.
गौरतलब है कि देशी बकरियों के अलावा बरबरी और जमुनापारी नस्ल की बकरी पालन (goat Farming ) करने के लिए दाना, भूषा और चारा आदि की समुचित व्यवस्था करनी पड़ती है. लेकिन वह भी सस्ते में हो जाता है. दो से पांच बकरी तक एक परिवार बिना किसी अतिरिक्त व्यवस्था के आसानी से पाल सकता है. घर की महिलाएं बकरी की देख-रेख आसानी से कर सकती हैं और खाने के बाद बचे जूठन से इनके भूसा की सानी कर दी जाती है. ऊपर से थोड़ा बेझर का दाना मिलाने से इनका खाना स्वादिष्ट हो जाता है. बकरियों के रहने के लिए साफ-सुथरी एवं सूखी जगह की जरुरी होती है.
बकरियों की प्रजनन क्षमता (Goat fertility)
एक बकरी लगभग डेढ़ वर्ष की उम्र में बच्चा प्रजनन करने की स्थिति में आ जाती है और 6-7 माह में प्रजनन करती है. प्रायः एक बकरी एक बार में 3 से 4 बच्चों का प्रजनन करती है और एक साल में दो बार प्रजनन करने से इनकी संख्या में वृद्धि होती है. बच्चे को एक वर्ष तक पालने के बाद ही बेचते हैं.
बकरियों में प्रमुख रोग (Major diseases in goats )
देशी बकरियों में मुख्यतः मुंहपका - खुरपका रोग के साथ पेट में कीड़ी और खुजली की समस्या होती हैं. ये समस्याएं प्रायः बरसात के मौसम में होती हैं.
उपचार
बकरियों में रोग का प्रसार आसानी से और तेजी से होता है. अतः रोग के लक्षण दिखते ही इन्हें तुरंत पशु डाक्टर से दिखाना चाहिए. कभी-कभी देशी उपचार से भी रोग ठीक हो जाते हैं.
बकरी पालन में सावधानियां (Precautions for goat rearing )
आबादी क्षेत्र जंगल से सटे होने के वजह से जंगली जानवरों का भय बना रहता है, क्योंकि बकरी जिस जगह पर रहती है, वहां उसकी महक आती है और उस महक को सूंघकर जंगली जानवर गांव की तरफ आने लगते हैं. कई बार तो वो पालतू जानवरों को नुकसान भी पहुंचा देते है.
बकरी के छोटे बच्चों को कुत्तों से बचाकर रखें .
बकरी एक ऐसा जानवर है, जो फ़सलों को अधिक नुकसान पहुँचाती है . इसलिए खेत में फसल होने की स्थिति में विशेष रखवाली करनी पड़ती है.
बकरी पालन (Goat farming ) में समस्याएं
बकरी गरीब की गाय होती है, फिर भी इसके पालन में कई दिक्कतें भी आती हैं. बरसात के मौसम में बकरी की देख-भाल करना सबसे कठिन होता है. क्योंकि बकरी गीले स्थान पर बैठती नहीं है और उसी समय इनमें रोग भी बहुत अधिक होता है. बकरी का दूध पौष्टिक होने के बावजूद उसमें महक आने के कारण कोई उसे खरीदना नहीं चाहता. इसलिए उसका कोई मूल्य नहीं मिल पाता है. बकरी को रोज़ाना चराने के लिए ले जाना पड़ता है. इसलिए एक व्यक्ति को उसी की देख-रेख के लिए हमेशा रहना पड़ता है.
आहार प्रबंधन:
बकरी एक जुगाली करने वाला पशु है लेकिन उनकी दूसरे पशुओं के मुकाबले खाने की आदत भिन्न होती है. बकरिया अपने हिलने डुलने वाले ऊपरी होठो तथा जिव्हा की सहायता से वे बहुत छोटी घास एवं पेड़ तथा झाड़ियों की पत्तियों को आसानी से खा जाती है| बकरी अपने शरीर के वजन का 3-4 प्रतिशत तक सूखा पदार्थ आराम से ग्रहण कर सकती है| बकरी के आहार को मुख्य तोर पर दो भागों में बाँटा जा सकता है
चारा
चारे के रूप में किसान बकरियों को अनाज वाली फसलों से प्राप्त चारा, फलीदार हरे चारा, पेड़-पौधों की पत्तियों का चारा, विभिन्न प्रकार की घास आदि को काम में लिया जा सकता है. इसके अलावा कटहल, नीम, पीपल, पाकड़ की पत्तियों को समय-समय पर हरे चारे के रुप में दे सकते हैं.
दाना
दाना वह पदार्थ है जिसमें नमी व् क्रूड फाइबर की मात्रा अपेक्षाकृत कम, परन्तु प्रोटीन की मात्रा प्रचुर होती है. दाने अधिक पाचनशील भी होते है| दूध देने वाली बकरियों को जीवन निर्वाह के लिए 150 ग्राम के अतिरिक्त 300-400 ग्राम दाना प्रति किलोग्राम दूध के हिसाब से प्रति बकरी देना आवश्यक है.